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 बैगा आदिवासियों की बेंवर खेती - बाबा मायाराम

मध्यप्रदेश के मंडला जिले में बैगा आदिवासी बेंवर विधि से खेती करते हैं। इसी विधि से ही छत्तीसगढ़ में बैगा व पहाड़ी कोरवा आदिवासी खेती करते हैं। पिछले कुछ समय से इसमें कमी आई है, पर अभी भी यह काफी प्रचलित है। 

बेंवर विधि से खेती बिना जुताई की जाती है, जिसके लिए पहले ग्रीष्म ऋतु में पेड़ों की छोटी-छोटी टहनियों, पत्ते, घास और छोटी झाड़ियों को एकत्र कर उनमें आग लगा दी जाती है। उसकी पतली राख की परत पर बीजों को बिखेर दिया जाता है। जब बारिश होती है तो बिखेरे गए बीज अंकुरित होने लगते हैं। अनुकूल मौसम और बारिश की नमी के कारण अंकुरित बीज धीरे-धीरे बड़े हो जाते हैं और फसलें लहलहाने लगती हैं। 

इस विधि से एक जगह पर एक वर्ष ही खेती की जाती है। अगले साल दूसरी जगह पर खेती होती है। इस खेती को स्थानांतरित खेती (अंग्रेजी में शिफ्टिंग कल्टीवेशन) कहते हैं। यह खेती मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के पहाड़ी इलाकों में होती है। हालांकि अब पर प्रतिबंध है पर कुछ लोग अभी भी इस विधि से अपने  खेतों में फसलें उगाते हैं। 

बेंवर खेती को बढ़ावा देने में लगे नरेश विश्वास बताते हैं कि कोदो, कुटकी, ज्वार, सलहार (बाजरा), मक्का, सांवा, कांग, कुरथी, राहर, उड़द, बरबटी, तिली जैसे अनाज बेंवर विधि से बोये जाते हैं। इसमें 16 प्रकार के अनाज बैगा आदिवासी बोते हैं और इन अनाजों की 56 किस्में हैं। बेंवर विधि में अधिकांश काम हाथ से करना पड़ता है। खेती का अधिकांश काम महिलाएं करती हैं। वे खेत तैयार करना, बोउनी, निंदाई-गुड़ाई, कटाई और बीजों का भंडारण का काम करती हैं। इसके अलावा वे पैरों से फसलों की मिजाई करती हैं। ओखली में कूटकर उनके छिलके निकालती हैं और भोजन पकाकर सबको खिलाती हैं।

यह खेती संयुक्त परिवार की तरह है। एक फसल दूसरी की प्रतिस्पर्धी नहीं है बल्कि उनमें सहकार है और एक दूसरे को मदद करती हैं। मक्के के पौधे कुलथी को हवा से गिरने से बचाते हैं। फली वाले पौधों के पत्तों से नाइट्रोजन मिलती है। 

इन अनाजों में शरीर के लिए जरूरी पोषक तत्व होते हैं। रेशे, लौह तत्व, कैल्शियम, विटामिन, प्रोटीन, व अन्य खनिज तत्व मौजूद हैं। इससे दाल, चावल, पेजे, सब्जी, सब कुछ मिलता है। पेज (सूप की तरह) कोदो व मक्का का पेय होता है जिसमें स्वाद के लिए नमक डाल दिया जाता है। यह गरीबों का भोजन होता है। कम अनाज और ज्यादा पानी। मेहमान आने पर अनाज में पानी की मात्रा बढ़ा दी जाती है। बेंवर से खाद्य सुरक्षा बनी रहती है। एक के बाद एक फसल पकती जाती हैं और उसे काटकर भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। सबसे पहले भादो के महीने में कांग की फसल आ जाती है। कुटकी भी जल्द पक जाती है, यह डेढ़ महीने की फसल है। कार्तिक यानी दीपावली के आसपास तक सभी फसलें पक जाती हैं।

निर्माण संस्था के नरेश विश्वास बताते हैं कि यह देसी बीजों पर आधारित है, और इसमें लागत भी नहीं है। न रासायनिक खाद के इस्तेमाल की जरूरत है और न ही कीटनाशक की। और न ही किसी तरह की मशीन का इस्तेमाल। यह पूरी तरह स्वावलंबी खेती है। जलवायु बदलाव के दौर में यह और भी प्रासंगिक हो गई है। क्योंकि देसी बीजों में प्रतिकूल मौसम में उत्पादन देने की क्षमता है।