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आत्मनिर्भर खेती की ओर - बाबा मायाराम

पहले मैं रासायनिक खेती करता था, लेकिन इससे धीरे-धीरे मेरे खेत की मिट्टी जवाब देने लगी, उत्पादन कम होने लगा। इसके बाद मैंने जैविक खेती शुरू की। जैविक खाद व जैव कीटनाशक बनाना सीखा। खेती में अच्छा उत्पादन लिया, मिट्टी में सुधार हुआ। अब मैं दूसरों को भी जैविक खेती करने के लिए प्रशिक्षण देता हूं। यह ओडिशा के सुदाम साहू थे, जो बरगढ़ जिले के कांटापाली गांव में रहते हैं।

यह बदलाव की कहानी है सुदाम साहू की, जिनके पास 5 एकड़ जमीन है। इसमें से 1 एकड़ जमीन में परिवार की भोजन की जरूरतों के लिए धान लगाते हैं, जबकि 4 एकड़ में उन्होंने देसी बीजों की सुरक्षा, संरक्षण व संवर्धन के लिए अलग-अलग किस्में लगाई हैं। उनका प्रचार-प्रसार करते हैं।

जब रासायनिक खेती के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं तो देश भर में कई जगह जैविक खेती की ओर किसानों का रूझान बढ़ा है। ओडिशा में देसी बीज सुरक्षा मंच का गठन किया गया है।

पश्चिम ओडिशा में हीराकुंद बांध की नहरों से धान की खेती होती है। यहां रासायनिक खेती हो रही है, जिससे खेती की लागत भी बढ़ी है, मिट्टी-पानी का प्रदूषण बढ़ा है और लोगों के स्वास्थ्य पर असर हुआ है।

देसी बीज सुरक्षा मंच के संयोजक सरोज भाई व कार्यकर्ता दशरथी बेहरा ने बताया कि वर्ष 2013 में इस मंच की स्थापना हुई। हालांकि अनौपचारिक रूप से इसकी प्रक्रिया पहले शुरू हो गई थी। इस काम को आगे बढ़ाने में प्रगतिशील किसान, गैर सरकारी संगठन ने योगदान दिया है। भित्तीभूमि सेवा संघर्ष और उनके सचिव प्रभात बेहर का मंच बनाने से लेकर इसे आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान है।

सरोज भाई ने बताया कि मंच का उद्देश्य देसी बीजों की सुरक्षा और संवर्धन करना है। प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना, बाजार पर निर्भरता को कम करना और समाज व किसान को आत्मनिर्भर बनाना है। भोजन में पोषणयुक्त खाद्य शामिल करना है। ऋणमुक्त किसान और जहरमुक्त अनाज करना है, जिससे समाज स्वस्थ बने और किसानी बची रहे।

देसी बीज सुरक्षा मंच ने प्राकृतिक जैविक खेती को बढ़ावा दिया है। इसके तहत् किसानों को केंचुआ खाद, हांडी खाद और जैव कीटनाशकों को तैयार करने का प्रशिक्षण दिया है। इससे खेती में लागत खर्च कम हुआ है, मिट्टी में सुधार हुआ है, और उत्पादन बढ़ा है। इस काम को आगे बढ़ाने के लिए इलाके में 10 प्रशिक्षणकर्ता तैयार किए हैं, जो किसानों को जैविक खाद व जैव कीटनाशक तैयार करने के लिए प्रशिक्षण देते हैं।

इसके अलावा, समुदाय आधारित 20 बीज बैंक बनाए गए हैं। इनमें 1300 धान की देसी किस्में, 90 सब्जी के देसी बीज, 10 दलहन के बीज शामिल हैं। इसके साथ ही 10 स्कूलों में किचिन गार्डन का काम किया जा रहा है। इसे स्कूली पाठ्यक्रम से भी जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि इस मंच से गैर सरकारी संस्थाएं, जैविक खेती करने वाले किसान और जागरूक नागरिक जुड़े हैं। यहां के मीडिया ने भी इस खेती के प्रचार-प्रसार में मदद दी है।

जैविक खेती के किसान सुदाम साहू बताते हैं कि वे बहुत कम उम्र से खेती करने लगे थे। जब वे 7 वीं कक्षा में पढ़ते थे, तब से उनके मां-बाप के साथ खेती सीख रहे थे। पर रासायनिक खेती में उनका मन नहीं लगता था। उसमें नुकसान भी हो रहा था तब देसी बीज सुरक्षा मंच से संपर्क हुआ। और इसके बाद उन्होंने वर्धा (महाराष्ट्र में गांधी जी की कर्मस्थली) में हांडी जैव खाद बनाने का प्रशिक्षण लिया। गाय का ताजा गोबर, महुआ फूल, गुड़ आदि को मिलाकर इसे तैयार किया जाता है।

इसी प्रकार, जैव कीटनाशक बनाने की विधियां सीखी। हालांकि वे कहते हैं कि देसी बीजों की फसलों में ज्यादा कीट नहीं लगते। उनमें मौसम बदलाव के दौर में भी अच्छा उत्पादन देने की क्षमता होती है।

उन्होंने गांव में देसी बीज बैंक भी बनाया है, जिसमें देसी धान की 1000 किस्में संग्रहित हैं। वे उनकी फसल को जैविक बाजार में बेचते हैं। बरगढ़ में जैविक बाजार भी शुरू हुआ है, जो सप्ताह में दो दिन लगता है। इसके अलावा, उनके घर खेत से लोग उनसे धान बीज खरीद लेते हैं। बीज के लिए बाहर से भी मांग होती है। उनके पास काले चावल की 14 किस्में हैं और लाल चावल की 60 किस्में हैं। कुछ नकदी के लिए चावल बनाकर बेचते हैं।

घिंडौलमाल गांव के ब्रम्हा बताते हैं कि वे खेत में देसी धान लगाते हैं जिनमें जगन्नाथ भोग, रागिनी सुपर धान किस्में शामिल हैं। जैव कीटनाशक खुद बनाते हैं। ब्रम्हास्त्र, बज्रास्त्र, जीवामृत, घना जीवामृत। खेतों में कीट लगने पर इनका छिड़काव करते हैं। उन्होंने सब्जियों की खेती भी की है। टमाटर, बैंगन, सहजन, पपीता, नींबू लगाया है। जिससे ताजी हरी सब्जियां मिले व पोषणयुक्त भोजन मिले।

सुंदरगढ़ जिले के धरवाडीह के सूरतराम बताते हैं कि वर्ष 2012 से जैविक खेती कर रहे हैं। उनका 5 एकड़ खेत है। जिसमें वे अलग-अलग फसलें लगाते हैं। जमीन के एक टुकड़े में उन्होंने 70 देसी धान की किस्में लगाई हैं। इसमें से कुछ कुसुमकली, रागिनी सुपर और सोनाकाठी का चावल बेचते हैं। इन किस्मों की बाजार में मांग है।

वे खेत की जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए धनधा (हरी खाद) उगाते हैं। और थोड़ा बड़ा होने पर उसे खेत की मिट्टी में मिला देते हैं, जिससे वह जैव खाद में तब्दील हो जाती है। और जमीन उर्वर बनती है।

उन्होंने बताया कि 1 एकड़ धान की खेती में लगभग 9 हजार का लागत खर्च आता है। और 11-12 क्विंटल धान उत्पादन होता है। कुसुमकली धान की किस्म में उत्पादन ज्यादा होता है, जो 14-15 क्विंटल तक पहुंच जाता है। उनके उत्पाद की साख बन गई है, उनका जैविक चावल घर से ही बिक जाता है। अब धीरे-धीरे जैविक खेती का चलन बढ़ रहा है।

विशेषकर कोविड-19 के दौरान भी यह देखा गया है कि भारत में भोजन की जरूरत पूरी करने में कृषि का बड़ा योगदान है। इसलिए आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ना जरूरी है, सरकार ने भी इसकी जरूरत बताई है। आत्मनिर्भरता के मायने यही है कि जहां तक संभव हो, खाद्य जैसी जरूरत के मामले में हम आत्मनिर्भर हों। जो खाद्य और पोषण की दृष्टि से महत्वपूर्ण फसलें हैं गेहूं,चावल, पौष्टिक अनाज, दलहन, तिलहन आदि के बारे में आत्मनिर्भर होना चाहिए। इसका लाभ है कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जो भी उतार- चढ़ाव आएं हम सुरक्षित रहेंगे, जैसा कुछ हद तक कोविड़-19 के दौरान हुआ।

इसके साथ ही हमें किसानों को इस दिशा में भी प्रोत्साहित करना चाहिए कि खेती की ऐसी तकनीक अपनाई जाए जिससे बाहरी निर्भरता कम से कम हो और स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग पर अधिक जोर दिया जाए। सूखे व प्रतिकूल मौसम में परंपरागत बीजों में सूखे व प्रतिकूल मौसम सहने की क्षमता होती है। किसानों ने सैकड़ों पीढ़ियों से तरह-तरह के गुणधर्म वाले देसी बीज तैयार किए हैं। यह हमारी विरासत है। देसी बीजों की जैविक खेती ही इसका अच्छा उदाहरण है।

कुल मिलाकर, ओडिशा में देसी बीज सुरक्षा मंच की पहल ने किसानों को जैविक खेती की ओर मोड़ा है। उन्हें जैव खाद व जैव कीटनाशक बनाने का प्रशिक्षण दिया है। देसी बीज बैंक बनाए हैं, जिससे देसी बीजों की सुरक्षा के साथ साथ उनका संवर्धन भी हो रहा है। इससे मिट्टी-पानी का संरक्षण भी हो रहा है और खेती में लागत खर्च कम हो रहा है। और लोगों को जैविक उत्पाद व जैविक भोजन उपलब्ध हो रहा है। किसान आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे हैं।

इसके अलावा, जैविक खेती का विस्तार किचिन गार्डन ( सब्जी बाड़ी) तक हुआ है। स्कूली बच्चों को जोड़ा गया है जो महत्वपूर्ण है। पर्यावरण शिक्षा की तरह कृषि शिक्षा भी बच्चों को दी जानी चाहिए, जिससे वे हमारी खेती को, पर्यावरण को, शरीर की बुनियादी जरूरत संतुलित भोजन को समझ सकें।

इस काम में कुछ चुनौतियां भी सामने आई हैं, जैसे जैविक उत्पादों का उचित दाम नहीं मिल पा रहा है। जिस दाम पर रासायनिक कृषि उत्पाद बिकते हैं, उसी दाम पर जैविक कृषि उत्पाद बिकते हैं। इस दिशा में नीतिगत बदलाव होने से किसान इससे लाभांवित होंगे।