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पातालकोट में पौष्टिक अनाजों की खेती -बाबा मायाराम

“हमारे इलाके में परंपरागत देसी बीज लुप्त हो रहे थे, लेकिन अब हम उनको बचा रहे हैं, उनकी खेती कर रहे हैं। इससे सालभर के भोजन के लिए अनाज तो मिलता ही है, बाजार में भी बेच लेते हैं।” यह ज्ञान शाह भारती थे, जो पातालकोट के घाना कौड़िया गांव के निवासी हैं।

पातालकोट, मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले की तामिया तहसील में है। यह सतपुड़ा की पहाड़ियों के बीच स्थित है। पातालकोट का अर्थ है, पाताल की तरह गहराई वाली जगह और कोट यानी दुर्ग। दीवारों से घिरा हुआ। दीवार का अर्थ यहां पहाड़ों से घिरा हुआ है। और इसी गहराई में बसे हुए हैं 12 गांव और उनके ढाने यानी मोहल्ले।

पातालकोट के बारे में कहा जाता है कि यहां सूरज की रोशनी देर से पहुंचती है और जल्दी ही अंधेरा हो जाता है। गहरे पहाड़ों के बीच होने के कारण यहां सूरज उनकी ओट में छिप जाता है। इन पहाड़ों में छोटे-छोटे झरने व बारहमासी दुधी नदी बहती है। हालांकि अब यह नदी नीचे की ओर सूख जाती है।

यहां मुख्यतः भारिया आदिवासी रहते हैं। और वे पीढ़ियों से परंपरागत देसी बीजों के साथ खेती करते आ रहे थे। लेकिन धीरे-धीरे परंपरागत बीज लुप्त होने लगे। करीब 3 साल पहले निर्माण संस्था ने देसी बीज बचाने की कोशिश शुरू की और अब उनकी मेहनत रंग लाने लगी है। 

निर्माण संस्था से जुड़े ज्ञान शाह भारती कहते हैं कि हमने शुरूआत में  गांव गांव जाकर परंपरागत बीजों की तलाश की। दूरदराज के गांवों से कुछ बीज मिले। और कुछ बीज मध्यप्रदेश के डिंडौरी व छत्तीसगढ़ के अनूपपुर से भी लेकर आए। इसके अलावा, जहां भी हम देसी बीजों की प्रदर्शनी लेकर जाते हैं, वहां से भी बीज लेकर आते हैं।   

वे आगे बताते हैं कि हमारे दो बीज बैंक हैं। एक सूखाभंड में और दूसरा चिमटीपुर में। इनमें करीब 30 किस्मों के परंपरागत देसी बीज हैं।  सांवा, भदेली, कुटकी, सफेद मड़िया, लाल मड़िया, ज्वार, बेउरी, बाजरा, काला कंगना, भूरी कंगनी, कोदो,कुसमुसी.जगनी, बरबटी, लौकी, झिकिया, गिलकी, लाल सेमी इत्यादि के बीज शामिल हैं।

ज्ञान शाह बताते हैं कि बीजों के रखरखाव व प्रबंधन के लिए समूहों का गठन किया गया है। जो लोग बीज बैंक से बीज ले जाते हैं, फसल आने पर बीज बैंक को डेढ़ गुना वापस करते हैं, जिससे अगले साल ज्यादा किसानों को बीज मिल सकें। अगर किसी किसान की फसल नहीं पकी तो वह अगले साल बीज दे सकता है। या फिर उसके बदले में दूसरी फसल भी दे सकता है। 

ज्ञान शाह भारती बताते हैं कि यहां तीन तरह की खेती होती है। कुछ लोग दहिया खेती करते हैं। दहिया खेती में हल नहीं चलाया जाता है। इसमें ललताना जैसी खरपतवार, छोटी झाड़ियों की टहनियां व पत्तों को खेत में बिछा दिया जाता है और उसमें आग लगा दी जाती है। उस राख में बीज छिड़क देते हैं, बारिश होती है तो बीज उग जाते हैं। और फसल पककर तैयार हो जाती है। 

इसके अलावा, हल-बक्खर चलाकर खेती की जाती है। सब्जी बाड़ी में हल व कुदाल से खोदकर फसलें व सब्जियां लगाते हैं। उन्होंने कहा कि अगर वन अधिकार कानून के तह्त पातालकोट के भारिया आदिवासियों को सामुदायिक वन अधिकार मिले तो इससे बहुत मदद मिलेगी। आजीविका के साथ वनों की सुरक्षा भी होगी। 

चिमटीपुर गांव के सुरेन्द्र पंदराम के पास 5 एकड़ जमीन है। इस बार डेढ़ क्विंटल कुटकी का उत्पादन हुआ है। 50 किलोग्राम कोदो भी हुआ। इसके साथ तुअर, मक्का का उत्पादन हुआ है।

घाना कोडिया गांव के सोंदराम बताते हैं कि पहले तीन महीने अच्छी बारिश होती थी। अब बारिश होती है लेकिन कम- ज्यादा होती है और कभी होती है और कभी सूखा पड़ जाता है। यहां की जमीन हल्की ( कम उपजाऊ) व पथरीली है। ऐसे में हमारे पुरखों के अनाज काम आते हैं। वह कम पानी में भी पक जाते हैं। सालभर खाने को तो मिलता ही है, बाजार में बेच देते हैं। कोदो, कुटकी, मड़िया का अच्छा दाम मिल जाता है।
उन्होंने बताया कि सब्जी बाड़ी में मक्का, तुअर, बल्लर (सेमी), बरबटी, कद्दू, लौकी, गिलकी, तूमा ( लौकी की तरह बड़े आकार का) लगाते हैं। भेजरा ( छोटा टमाटर) बाड़ी में अपने आप ही उगता है, जिसकी चटनी अच्छी होती है।

निर्माण संस्था से जुड़े लक्ष्मण अहके व ज्ञान शाह बताते हैं कि हम किसानों के साथ स्कूली बच्चों को भी देसी बीजों की पहचान करवाते हैं। उनके गुणधर्म बताते हैं। स्कूलों में जाकर देसी बीजों की प्रदर्शनी लगाते हैं। उन्होंने बताया कि वन कलेबा ( जंगल का नाश्ता) नामक कार्यक्रम के तहत् बच्चों को जंगल में लेकर गए थे। वहां उन्हें जंगल कंद-मूल, फल, व हरी पत्तीदार सब्जियों से रूबरू करवाया था।

हाल ही में 20 फरवरी को गैलडुब्बा में पारंपरिक बीज एवं गैर कृषि खाद्य मेला का आयोजन हुआ था जिसमें बड़ी संख्या में ग्रामीण आए थे। यहां देसी बीजों की प्रदर्शनी लगाई गई थी। सांस्कृतिक कार्यक्रम भी हुए थे। यह एक मौका होता है जब लोग देसी बीजों पर बात करते हैं और उससे जुड़ी जानकारी का आदान-प्रदान करते हैं।

निर्माण संस्था के प्रमुख नरेश विश्वास बताते हैं कि हम देसी बीजों की रिश्तेदारी कार्यक्रम चलाते हैं। इसका मतलब यह है कि जैसे रिश्तेदारी में एक दूसरे के घर जाना-होना है, उनका विशेष ख्याल रखा जाता है, उनसे आत्मीय संबंध होते हैं। उसी तरह से पीढ़ियों से चल आ रहे परंपरागत बीजों के साथ भी रिश्तेदारी जरूरी है। उनका संरक्षण व संवर्धन जरूरी है। वे करीब दो दशकों से मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच यह काम कर रहे हैं। बैगा, पहाड़ी कोरवा, गोंड और भारिया आदिवासियों में यह काम चल रहा है।

उन्होंने बताया कि जलवायु बदलाव के दौर में परंपरागत बीज बहुत उपयोगी हैं। इनमें कम पानी व प्रतिकूल मौसम में पकने की क्षमता होती है। देसी बीजों की खेती स्वावलंबी होती है और इसमें बहुत कम मेहनत लगती है। लागत खर्च नहीं के बराबर है। किसी भी तरह के रासायनिक खाद व कीटनाशक की जरूरत नहीं होती है। पूरी तरह जैविक खेती है और यह अनाज पौष्टिक भी होता है।     

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि पातालकोट में देसी बीजों को बचाने की पहल बहुत उपयोगी व सार्थक है। इससे परंपरागत देसी बीजों का संरक्षण व संवर्धन हो रहा है। किसान इससे खाद्य सुरक्षा के साथ कुछ हद तक आय संवर्धन का काम भी कर रहे हैं। परंपरागत बीजों के साथ पारंपरिक ज्ञान को संजोया जा रहा है और नई पीढ़ी के बच्चों को इससे परिचित करवाया जा रहा है। यह कहा जा सकता है कि जलवायु बदलाव के दौर में परंपरागत देसी बीजों की उपयोगिता और बढ़ गई है, जिसे पातालकोट के आदिवासी समझ रहे हैं। यह पहल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है। 

फोटो- निर्माण संस्था व लक्ष्मण अहके