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पहाड़ पर लौटी हरियाली-- बाबा मायाराम

मध्यप्रदेश का एक गांव है रूपापाड़ा। यहां पेड़ लगाने की चर्चा गांव-गांव फैल गई है। पहले यहां आसपास गांव के हैंडपंप सूख चुके थे लेकिन जंगल बड़ा हुआ, हरा भरा हुआ तो उनमें पानी आ गया। लोगों के पीने की पानी की समस्या हल हुई।


यह झाबुआ जिले की पेटलावद विकासखंड में है। यहां के लोगों को खेती में पानी नहीं है, सूखे की खेती करते हैं,यानी वर्षा आधारित। लेकिन जब पीने के लिए पानी का संकट खड़ा हुआ तो लोगों को चिंता में डाल दिया। क्या किया जाए, इस पर बातचीत शुरू हुई।


पानी लाने और पेड़ लगाने की मुहिम ने जोर तब पकड़ा जब स्थानीय लोग संपर्क संस्था से मिले, अपनी समस्य़ा बताई। संस्था ने गांव वालों पानी बचाने के जहां -जहां काम हुए हैं, उनकी कहानी बताई, लोगों को वहां लेकर गए। महाराष्ट्र के रालेगांव सिद्धी, राजस्थान के अलवर ग्रामीण गए।


महाराष्ट्र के रालेगांव सिद्धी में अन्ना हजारे के नेतृत्व में पानी के मामले में अच्छा काम हुआ है। राजस्थान में तरूण भारत संघ ने सैकड़ों जोहड़, तालाब बनाने के साथ सूखी नदियों को सदानीरा बनाने का काम किया है। यहां से प्रेरणा लेकर गांव के लोगों ने अपने गांव में जंगल लगाने की पहल शुरू की।


वर्ष 1998 में इसकी शुरूआत हुई। रूपापाड़ा की 50 एकड़ की गोचर भूमि में पेड़ लगाने की मुहिम चलाई गई। पानी रोकने के लिए कंटूर बनाए गए। यह पहाड़ी में पत्थर थे।


यहां गांववालों ने श्रमदान से 20 हजार पेड़ लगाए थे जो बढ़कर अब 50 हजार हो गए हैं। अकेसिया, शीशम, सुबबूल, खैर, खेचड़ी, नीम, बांस, सागौन, आंजन, करंज, धावड़ा, महुआ इत्यादि कई प्रजातियों के पेड़ लगाएं हैं। इन्हें दूर दूर से टैंकर से लाकर सींचा भी, जब सूखा पड़ा था।


संपर्क से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मण सिंह कहते हैं कि यहां पत्थर हैं, हमने इनके बीच में पेड़ लगाए, इनका जतन किया और इस पहाड़ी को हरा-भरा बनाया। वे कहते हैं पहले यहां बहुत जंगल था लेकिन अब नहीं रहा।


गांव के लोग ही बारी-बारी से इसकी निगरानी करते हैं। गांव के 42 परिवार मिलकर इसकी रखवाली करते हैं। अगर पलायन के कारण लोग खुद निगरानी कर पाते तो एक व्यक्ति की नियुक्ति की जाती है, जो इसकी देखभाल करता है। यहां की लकड़ी और चारा बेचा जाता है लेकिन गांव के लोगों को ही, बहुत कम दाम में। एक घास के पूले ( गट्ठर) का दाम 5 या 10 रूपया होता है।


इस सबका परिणाम यह हुआ है कि भूजल रिचार्ज हुआ है। हैंडपंप में पानी आ गया है। यहां कुंड में पानी भरा होता है। कई तरह के पक्षी यहां आने लगे हैं। छोटे-मोटे जंगली जानवर भी आ गए हैं। और आसपास के गांव की लकड़ी चारा की जरूरत पूरी हो जाती हैं।


यहां की चौकीदार तेजूबाई कहती है शुरूआत में जंगल लगाने का कुछ लोगों ने विरोध भी किया था पर बाद में सबकी मदद मिलने लगी। हम समय- समय पर पेड़ों की कटाई- छंटाई करते हैं और लकड़ी चारा गांव में भी बिक जाता है।


संपर्क संस्था जैविक खेती पर जोर दे रही है। परंपरागत फसलों व देसी अनाजों को खेतों में लगाने व उनकी किस्में बचाने पर काम किया है। जैविक खाद व कीटनाशक बनाने की विधियां भी लोगों को सिखाई जाती हैं। संस्था की पहल से ही एक किसान ने अपने खेत में देसी गेहूं की 16 प्रकार की किस्में लगाई थी। अपनी संस्था के परिसर में वर्षाजल बचाने का अनूठा काम किया है।


यहां 3 लाख लीटर पानी की टंकी है, जो उनकी दो बिल्डिंगों में एकत्र वर्षा जल से भरी जाती हैं, और इसका पानी यहां स्थित छात्रावास के विद्यात्री साल भर उपयोग में लाते हैं। और उनके द्वारा उपयोग किए गए पानी से परिसर के खेतों में सिंचाई होती है। यानी वर्षाजल के पानी का दो बार उपयोग होता है।


संस्था के प्रमुख नीलेश देसाई कहते हैं कि जंगल, पानी, खेती और मुर्गी पालन जैसे परंपरागत कामों से ही हम लोगों के जीवन स्तर को बेहतर कर सकते हैं। इस दिशा में संस्था की भूमिका लोगों की सहयोगी है पर लोगों को ही नेतृत्व व पहल करनी होगी। कुल मिलाकर, जंगल और पानी बचाने के काम प्रेरणादायक, अनुकरणीय और सराहनीय हैं।