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हरी वादियों का चितेरा

अस्सी के दशक की शुरुआत से ही एक अकेले व्यक्ति के शांत प्रयासों ने ऐसे ग्रामीण आंदोलन की नींव रखी जिसने उत्तराखंड की बंजर पहाड़ियों को फिर से हराभरा कर दिया। सच्चिदानंद भारती की असाधारण उपलब्धियों को सामने लाने का प्रयास किया संजय दुबे ने। (तहलका-हिन्दी से साभार)

शायद ही कुछ ऐसा हो जो संच्चिदानंद भारती को उफरें खाल के बाकी ग्रामीणों से अलग करता हो। ये तो जब वो हमारा स्वागत गुलाब के फूल से करने के साथ हमें अपने गले लगाते हैं तब हमें एहसास होता है कि इसी असाधारण रूप से साधारण व्यक्ति के महान कृत्य हमें उफरें खाल खींच कर लाये हैं।

औपचारिकताओं से निबटकर जब हम चारो तरफ फ़ैली पर्वत श्रृंखलाओं पर नज़र दौडाते है तो हमें भारती जी की अद्भुत उपलब्धियों की गुरुता का एहसास हो जाता है। दरअसल भारती ने एक समय नग्न हो चुकी उत्तराखंड के पौड़ी ज़िले में स्थित दूधातोली पर्वत श्रृंखला के एक बड़े हिस्से को राज्य के सबसे बढिया और घने जंगलों में तब्दील कर दिया है।
साल 1960 के बाद अनियंत्रित औद्योगिकरण ने पहाड़ों के एक लंबे-चौड़े हिस्से को प्राकृतिक संपदा का गोदाम बना डाला। एक ऐसा गोदाम जिसमें मैदान की ज़रूरत के सामान रखे होते थे। 1970 के दशक में वन्य संपदा के विनाश को रोकने के लिए सबसे मशहूर संघर्ष था चिपको आंदोलन, इसकी शुरुआत चमोली ज़िले के गोपेश्वर नाम की जगह से हुई। भारती उस समय गोपेश्वर के कॉलेज में पढ़ रहे थे और इस आंदोलन में उन्होंने भी सक्रिय भुमिका निभाई। भारती जी ने पेड़ों के संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए कॉलेज में एक समूह भी बनाया जिसका नाम था 'डालियों का दागड़िया' (पेड़ों के मित्र)। पढ़ाई खत्म करके जब वो उफरें खाल पहुंचे तो वहां भी उनका सामना विनाश की कुछ ऐसी ही परिस्थितियों से हुआ। भारती बताते हैं, "उसी दौरान वन विभाग ने डेरा गांव के समीप लगे पेड़ों का एक बड़ा हिस्सा काटने का फैसला किया। चिपको आंदोलन से जुड़ा होने की वजह से मुझे पता था कि इस परिस्थिति से कैसे निपटना है, मैंने गांव वालो को साथ लेकर अभियान शुरू कर दिया।" उनकी कोशिशों की बदौलत सैंकड़ो पेड़ सरकारी कुल्हाड़ी के शिकार होने से बच गए। बाद में ये छोटी सी सफलता एक बड़े परिवर्तन की नींव बनी। महत्वपूर्ण बात ये थी कि इस घटना ने उफरें खाल और इसके आसपास के लोगों में अपने अधिकारों को लेकर समझ और एकता की भावना पैदा कर दी।

पहाड़ों के बुजुर्ग याद करते हैं कि किस तरह से एक समय में यहां के वन, इनमें रहने वाले जंगली जानवरों और इस पर ईंधन और भोजन के लिए आश्रित गाँव वालों, दोनों के लिए पर्याप्त हुआ करते थे। लेकिन, जैसे-जैसे जंगलो की कटाई अनियंत्रित होती गई, गाँव वालो को दोहरी मार झेलनी पड़ गई-- एक तरफ़ तो उनके लिए ज़रूरी संसाधनों का अकाल पड़ने लगा, वहीं दूसरी ओर जंगली जानवर भी सिकुड़ते वनों के चलते अपनी ज़रूरतें पूरी न होने से इंसानी रिहाइशों में सेंध लगाने लगे थे। लेकिन भारती की सलाह पर पास के डेरा गांव के लोग इन जानवरों को मारने की बजाय अपने घरों और खेतों के चारो तरफ चारदीवारियां खड़ी करने लगे। 1980 में बननी शुरू हुई दीवार के लिए सिर्फ डेरा गांव के ही नहीं बल्कि दूसरे गांवो के लोगों ने भी आर्थिक सहयोग दिया। आज 9 किमी लंबी इस दीवार के प्रयोग को और जगहों पर भी लागू किया जा रहा है। इसी दौरान भारती ने एक स्थानीय स्कूल में अध्यापन का कार्य भी शुरू कर दिया। उनके पुराने साथी और पेशे से डॉक्टर, दिनेश ने बताया कि ये उनकी सफलता के सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक था। क्योंकि ऐसा करने से वो सीधे-सीधे पर्यावरण सरंक्षण के संदेश को नई पीढी तक पहुंचा पाए।

1970 के अंत तक जंगलों की कटाई इस स्तर पर पहुंच चुकी थी कि इसने सरकारी अमले में भी इससे निपटने के लिए क़दम उठाने की बेचैनी पैदा कर दी। उन्होंने संरक्षित वनों के खाली पड़े भू-भाग पर चीड़ के पेड़ लगाने शुरू कर दिए। भारती के अनुसार ये क़दम खतरनाक साबित हुआ। वो कहते हैं, "चीड़ के जंगलों ने ज़मीन में नमी का स्तर तेज़ी से कम किया और नमी की कमी के साथ चीड़ के पेड़ों की पत्तियों में मौजूद ज्वलनशील पदार्थ ने  जंगल में आग की घटनाओं को भी बढ़ा दिया। इसके अलावा चीड़ की जड़ों में मिट्टी की बेहतर पकड़ के गुण न होने के चलते भू-स्खलन के खतरे भी बढ़ गए।" 1980 में भारती ने एक दूसरा तरीका निकाला। वन विभाग की मदद से उन्होंने स्थानीय पहाड़ी प्रजाति के पौधे--देवदार, बुरांस, बांच आदि--की नर्सरी खोली। ये कोशिश बाद में दूधातोली लोक विकास संस्थान(डीएलवीएस) के रूप में विकसित हुई जो आज पूरे क्षेत्र में स्थानीय पहाड़ी पौधे लगाने के साथ-साथ अपने अपने साथ जुड़े 150 गांवों मेंइसी समय भारती गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र के संपर्क में आए, जिन्होंने उन्हें छोटे स्तर की बावड़ियों और पानी के स्रोत तैयार करने के तरीके सुझाए। भारती ने इन सिद्धांतों को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ढाल लिया और पुराने, सूखे पड़े पानी के स्रोतों को पुनर्जीवित करना शुरू कर दिया। सालाना पर्यावरण जागरुकता शिविर का आयोजन भी करता है। डीएलवीएस क्षेत्र की महिलाओं के सशक्तिकरण का भी बड़ा ज़रिया बना है--पहाडों में कामकाज के अभाव में ज्यादातर पुरूष मैंदानो की ओर चले जाते है और घर की जिम्मेदारी महिलाओं के कंधे पर आ जाती है और इन्हें ही संसाधनों के अकाल की मार झेलनी पड़ती है। इनकी सहभागिता बढ़ाने के लिए भारती ने हर गांव में महिला मंगल दल की नींव डाली और उनके सुरक्षित भविष्य की जिम्मेदारी का थोडा सा बोझा उन्ही के कन्धों पर डाल दिया। पहले वृक्षारोपण अभियान के बाद जितने गांवो ने इसमें हिस्सा लिया था उन्होंने एक सामूहिक फैसला लिया कि अगले 10 सालों तक जंगल में सारी प्रतिकूल गतिविधियां रोक दी जाएंगी। महिला मंगल दल के माध्यम से महिलाओं ने जंगलों के रखरखाव और उनमें किसी के अवांछित प्रवेश को रोकने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली।

एक दशक के भीतर ही दूधातोली के लोगों ने अपने खोए हुए जंगलों का एक बड़ा हिस्सा वापस पा लिया। भारती गर्व से बताते हैं कि पिछले 27 सालों के दौरान पूरे जंगल को लगाने में गांव वालों ने बमुश्किल 5-6 लाख रूपए खर्च किए होंगे। शुरुआती नर्सरी स्थापित करने के लिए मिली सहायता के बाद डीएलवीएस ने कभी कोई और सरकारी सहायता नहीं मांगी। इसकी बजाय नर्सरी के पौधों की बिक्री के जरिए इसने अपने कार्यक्रमों के लिए धन का बंदोबस्त ख़ुद ही किया। असल में भारती वन संरक्षण को लेकर सरकारी रवैये की आलोचना करते हैं। उनके मुताबिक, "वन रिज़र्व करने का अर्थ है पहाड़ी लोगों के वन में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगना लेकिन पैसे के लालच में वन अधिकारी ठेकेदारों के साथ मिलकर इन्ही कानूनों का खुले आम उल्लंघन करते हैं।"

1987 में पूरा इलाका भीषण सूखे की चपेट में था। चिंतित डीएलवीएस ने हर पेड़ के पास एक छोटा सा गड्ढा बनाने का फैसला किया ताकि इनमें पानी इकट्ठा हो सके और पेड़ों को जीने के लिए कुछ औऱ समय मिल सके। इसी समय भारती गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र के संपर्क में आए, जिन्होंने उन्हें छोटे स्तर की बावड़ियों और पानी के स्रोत तैयार करने के तरीके सुझाए। भारती ने इन सिद्धांतों को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ढाल लिया और पुराने, सूखे पड़े पानी के स्रोतों को पुनर्जीवित करना शुरू कर दिया। इसके अलावा उन्होंने कई नए जलस्रोतों का भी निर्माण किया। नतीजा, छोटे-बड़े लगभग 12 हजार तालाब अब 40 से ज्यादा गांवों की पानी की जरूरत बखूबी पूरी करते हैं। सिमकोली गांव के सतीश चंद्र नौटियाल एक छोटे से कुएं की तरफ इशारा करके बताते हैं कि 2005 में इसे बनाने में भारती ने उनकी सहायता की थी। वो कहते हैं कि आज ये कुआं ही पूरे गांव के आस्तित्व का आधार है।

भारती से विदा लेते वक्त उनके पुराने साथी रहे पोस्टमैन दीनदयाल धोंडियाल और किराना व्यापारी विक्रम नेगी के चेहरे गर्व से चमक रहे थे। नेगी कहते हैं, "जंगलो की कटाई रोकना तो एक छोटा सा क़दम था। असली चुनौती थी पहाड़ों की खत्म हो चुकी सुंदरता को फिर से वापस लाना।"

निस्संदेह भारती और उनके साथियों ने इस चुनौती पर एक चमकदार जीत अर्जित की है।