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खुद की ट्राइसिकिल पर दौड़ेगा शनिचरवा

अक्सर लोग किसी काम के न हो पाने के लिए संसाधनों का रोना रोते रहते हैं. लेकिन कुछ ऐसे सिरफिरे होते हैं जो जिस काम के पीछे जुट जाते हैं तो उसे पूरा करके ही दम लेते हैं. चाहे संसाधन उपलब्ध हो या न हो. ऐसी ही एक मिसाल शनिचरवा उरांव की है. सड़क हादसे में पांव गंवाने वाले शनिचरवा से जब घर और समाज के लोगों ने मुंह मोड़ लिया तो उसने खुद अपने लिए बांस से कई उपकरण तैयार किये. जैसे बांस की कुर्सी और कुएं से पानी निकालने में नि:शक्तों को मदद करने वाला उपकरण. वह अब लकड़ी का ट्राइसिकिल बनाने में जुटा है, जो लगभग तैयार हो चुका है. बहुत जल्द कांके की सड़कों पर शनिचरवा अपनी खुद की बनायी ट्राइसिकिल पर घूमता-फिरता नजर आयेगा. पेश है शनिचरवा की कहानी मुकेश रंजन की कहानी:

रांची जिले के कांके मुख्यालय से 30 किलोमीटर सुदूरवर्ती अति पिछड़ा काशीटांड़ गांव जहां चारो ओर जंगल ही जंगल है़ पांच वर्ष पहले काशीटांड़ गांव के शनिचरवा उरांव ने सड़क दुर्घटना में अपने पांव खो दिये थे. दुर्घटना के बाद अपने लोगों ने ही उससे मुंह मोड़ लिया़ मगर उसने भगवान द्वारा दिये गये नि:शक्तता को चुनौती के रूप में स्वीकार किया और वह काम कर दिखाया जो किसी नि:शक्त के लिए ही नहीं बल्कि समाज के लिए अन्य लोगों के लिए एक उदाहरण है़
बांस की कुर्सी-बांस की घिरनी
34 वर्षीय शनिचरवा उरांव ने अपने लिए खुद बांस की कुर्सी, बांस की बनी घिरनी (कुएं से पानी निकालने के लिए) व लकड़ी से बनी ट्राइसिकिल बनायी है. सरकारी मुआवजे व बैठने के लिए ट्राइसिकिल की उम्मीद में वर्षों बीत गय़े इस अवधि में न ही किसी सरकारी पदाधिकारी ने सुध ली और न किसी भी जनप्रतिनिधि ने जानकारी ली़ ऐसे में उसने अपनी जरूरत का उपकरण खुद तैयार कर लिया है.

भाभी ने दिया सहारा
अपनी कहानी बताते हुए शनिचरवा कहता है कि अस्पताल से घर आने के बाद परिवार वाले और माता-पिता ने उसे घर के एक कोने में भगवान के भरोसे छोड़ दिया था. ऐसी परिस्थिति में वह कभी बाहर की दुनिया देख पायेगा इसकी उम्मीद भी नहीं थी. धन्य हो उसकी भाभी का जिसने उसे खाने का निवाला उपलब्ध कराया और हमेशा उत्साहित करती रही. भाभी के प्रोत्साहन और दृढ़ निश्चय से उसके मन में जीने की ललक जाग उठी.
शनिचरवा उरांव ने सबसे पहले घर पर रखी बांस को लेकर कुर्सी बनाया. इसके बाद बांस की कुर्सी के सहारे वह घूमने-फिरने लगा़ अब शनिचरवा के सामने सबसे बड़ी चुनौती दैनिक क्रिया के लिए पानी की जरूरत को पूरा करने की थी़ उरांव ने इसके लिए बांस, रस्सी, तार व घिरनी (लकड़ी से बना) का उपयोग कर पानी निकलाने की तरकीब निकाली़ अब वह अपनी जरूरत का पानी स्वयं ला पा रहा है.

तैयार है ट्राइसिकिल
सारी मुसीबतों को ङोल कर अब शनिचरवा ट्राइसिकिल (लकड़ी से बनी) तैयार करने में जुटा है़ ट्राइसिकिल की रूप-रेखा भी वह तैयार कर चुका है़ इसके लिए उरांव ने आवश्यक संसाधनों के रूप में साइकिल के पैडल, साइकिल का चेन, एल्युमीनियम तार, टायर, टीन व लकड़ी का उपयोग किया है़ सिर्फ अब इस ट्राइसिकिल को संयोजन करने की जुगत हो रही है. वह दिन दूर नहीं जब शनिचरवा खुद की बनायी ट्राइसिकिल से सवारी करते नजर आयेगा. ट्राइसिकिल के लिए शनिचरवा ने रूखना, बशली, कांटी से बना पेचकस, अधैड़ आदि उपकरणों का उपयोग किया है़

2000 की ट्राइसिकिल
जहां सरकारी दर पर ट्राइसिकिल 10,500 रुपये में मिलती है और निजी कंपनियों की ट्राइसिकिल की कीमत 14,000 के आस-पास होती है. मगर आप शनिचरवा की ट्राइसिकिल को देखें तो इसकी लागत 2000 रुपये भी नहीं होगी. ऐसे में सरकार चाहे तो उसके इसम मॉडल को अपनाकर गरीब नि:शक्तों को बहुत कम कीमत में ट्राइसिकिल उपलब्ध करा सकती है.