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हरियाली से कुपोषण मिटाने की मुहिम--- बाबा मायाराम

मध्य प्रदेश के बैतूल और हरदा जिले में पिछले कुछ सालों से आदिवासी हरियाली अभियान चला रहे हैं। उनका नारा है- हरियाली लाएंगे, भुखमरी मिटाएंगे।


इस मुहिम का उद्देश्य है, पहला तो यह कि आदिवासियों को कुपोषण से निजात मिल सके, उनकी आमदनी बढ़ सके और दूसरा, जंगलों को फिर से हरा-भरा बनाया जा सके, पर्यावरण सुधारा जा सके और जैव-विविधता का संवर्धन और संरक्षण किया जा सके। इससे मिट्टी का कटाव रूकेगा, पेड़ों में पानी संचित रहेगा- और नदियों में फिर से बारहमासी पानी बहेगा।


हरियाली अभियान के तहत् हर साल जुलाई माह में आदिवासियों के हरी जिरोती त्यौहार पर पखवाड़े भर हरियाली अभियान के रूप में कार्यक्रमों का सिलसिला चलता है। इस दौरान आदिवासी साप्ताहिक हाट बाजारों में एकत्र होते हैं, ढोल-ढमाकों के साथ फलदार पेड़-पौधों के साथ यात्रा निकालते हैं, और लोगों को फलदार वृक्ष लगाने के लिए प्रेरित करते हैं।


इसके लिए बैतूल जिले के तीन गांव मरकाढाना, बोड़ और पीपलबर्रा में नर्सरी बनाई गईं हैं। हर नर्सरी में 2 से 5 हजार पौधे तैयार किए जाते हैं।


हरियाली अभियान की मुहिम श्रमिक आदिवासी संगठन और समाजवादी जन परिषद ने शुरू की है, जो कई सालों से आदिवासी इलाके में सक्रिय है। आदिवासियों ने अपने घर के आसपास, खाली पड़ी जमीन पर, खेतों में और जंगल में फलदार वृक्ष लगाएं हैं। उनकी परवरिश की है और इसका नतीजा है कि न केवल पेड़-पौधे लहलहा रहे हैं, बल्कि अब फल भी देने लगे हैं।


बैतूल और हरदा जिले में चल रही इस मुहिम के बारे में श्रमिक आदिवासी संगठन के अनुराग मोदी बताते हैं कि "मौसम परिवर्तन और बढ़ती बेरोजगारी के इस दौर में फलदार पेड़ लगाना बहुत जरूरी है। सूखे और बेरोजगारी की समस्या का यह समाधान हो सकता है। इससे दीर्घकाल में लोगों को भोजन, पानी और पर्यावरणीय समस्याओं का हल संभव है।"


उन्होंने 70 के दशक के प्रसिद्ध अमरीकी अर्थशास्त्री शु-माकर की किताब ‘स्माल इज ब्यूटीफुल' को उद्धृत करते हुए कहा कि "अगर इस देश के हर गांव में, हर व्यक्ति पांच पेड़ लगाए तो बिना किसी विदेशी कर्जे और आर्थिक मदद के इस देश की बेरोजगारी और भुखमरी की समस्या का हल निकाला जा सकता है।"


आदिवासियों के अधिकारों के लिए बरसों से सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता राजेन्द्र गढ़वाल कहते हैं, ‘‘पहले जंगल आम, आँवला, बेर, अचार, महुआ, जामुन जैसे फलदार वृक्षों से भरा था। लेकिन अब यह फलदार वृक्ष खत्म हो गए हैं। जंगल से गुजारा होता था, भोजन भी मिलता था, वह खत्म हो गया। मनरेगा में एक तो काम मिलता नहीं, अगर मिल भी जाए तो भुगतान बहुत देर से मिलता है। इसलिए पेड़ लगाना बहुत जरूरी है।"


वे मुझे मरकाढाना गांव के मांडूखेड़ा में ले गए। जहां जंगल में वहां के आदिवासियों ने बहुत फलदार वृक्ष लगाएं हैं। अपनी मेहनत से बिना पैसा खर्च किए बड़ा स्टापडेम बनाया है। कुआं खोदा है। वहां के आसपास होने वाले छींद से झाडू बनाकर वहां की महिलाएं अपने बच्चों का पेट पाल रही हैं।


यहां के सुबन और पत्नी समलिया ने मुझे आसपास लगाए आम, जाम,जामुन, कटहल,सीताफल, बादाम, काजू, इमली, कोलिहारी , नींबू, रीठा, आंवला, लीची, बेर, महुआ, अचार के पेड़ दिखाए। और कहा कि दो-तीन बार वनविभाग ने पौधे उखाड़ दिए नहीं तो और भी पौधे होते।


समाजवादी जनपरिषद के राजेन्द्र गढवाल कहते हैं, ‘‘ वनविभाग को भी हम इस मुहिम में शामिल करना चाहते हैं लेकिन वे उल्टे पेड़ों को उखाड़ देते हैं, कहते हैं यह हमारा जंगल है, इसमें कोई और पेड़ लगाने का अधिकार नहीं है, जंगल में रहकर पेड़ लगाने का हक नहीं है। गढवाल कहते हैं कि नया वन अधिकार कानून आदिवासियों को यह अधिकार देता है। वह पुराने खेड़े में रहकर अपने जंगल का संरक्षण और संवर्धन कर सकते हैं।


उन्होंने चिचौली विकास खण्ड के पीपलबर्रा का गाँव का उदाहरण दिया, जहाँ वन विभाग और वन सुरक्षा समिति के लोगों ने पेड़ों में आग लगा दी थी। उनका कहना है अब तक अरबों रुपए की वानिकी परियोजनाएँ भी असफल साबित हुई हैं। अगर लोगों की जरूरत के हिसाब से वृक्षारोपण किया जाए तो इसके सकारात्मक नतीजे आएँगे।


जंगलों में फलदार वृक्ष कम होने के कई कारण हैं। एक तो जंगल में सागौन और बांस लगाए जा रहे हैं। दूसरा, जंगल में कुछ लोग लालचवश फलदार वृक्षों से कच्चे फल तोड़ लेते हैं। उन्हें पकने से पहले ही झाड़ लेते हैं। टहनियाँ भी तोड़कर फेंक देते हैं जिससे तेजी से जंगलों में फलदार वृक्ष कम हो रहे हैं। इन पर रोक लगना ही चाहिए। साथ ही पौधे लगाकर फिर से जंगल को हरा-भरा करना भी जरूरी है।


बहरहाल, इस नयी पहल में न केवल जंगल के पेड़ों को बचाया जा रहा है बल्कि नये पेड़ लगाए जा रहे हैं। इससे पर्यावरण का सुधार और जैव-विविधता का संरक्षण और संवर्द्धन भी होगा। आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होगी।