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एक मुलाकात जेल से छूटे बिनायक सेन से

जेल के अनुभव और अपने सरोकारों पर हाल ही में रिहा हुए मानवाधिकारकर्ता बिनायक सेन की शोमा चौधरी से बातचीत


अपनी आजादी खो देने के अनुभव ने आपको किस तरह से प्रभावित किया?
(एक लंबी चुप्पी) मानवाधिकारों के लिए लड़ते हुए अगर आप कभी जेल नहीं गए तो आपका बायोडेटा अच्छा नहीं लगता. (हंसते हैं). मगर मुझे लगा कि ये बस 10-15 दिन की बात होगी. यदि मुझे ये पता होता कि वहां दो साल बिताने हैं तो मैं कुछ कम खुश होता. जेल में आपको दूसरों से अलग कोई सहूलियत नहीं मिलती और इस मायने में यहां रहने वाले सभी लोग बाहरी दुनिया के उलट आपस में बराबर होते हैं. जेल का अनुभव अक्सर खराब ही होता है मगर मेरे लिए ये दिलचस्प था. वहां की स्थितियां खुशनुमा तो बिल्कुल नहीं थीं और मुझे गर्मी, मच्छरों और गंदे खाने से जूझना पड़ा. मगर सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि सभी इनसे जूझ रहे थे इसलिए मुङो इससे कोई समस्या नहीं थी. जेलतंत्र भ्रष्टाचार पर चलता है. लेकिन कुछ मायनों में यह भ्रष्टाचार सकारात्मक है क्योंकि इससे वह मानवीय भावना दिखती है जिसका व्यवस्था ने पूरी तरह से दमन कर दिया है. जेल में स्टोव रखना अवैध है लेकिन यहां लगभग हर कैदी के पास अपना स्टोव था और सुबह छह बजे आपको हर कोई दाल बनाता हुआ मिलता था.
आप लंबे समय के लिए भीतर रहे. इस दौरान क्या आपने कभी खुद को भावनात्मक रूप से टूटा हुआ महसूस नहीं किया?
इन हालात में आपकी मानसिक स्थिति पर बुरा असर पड़ता है. जेल में कुछ समय रहने के बाद मैं लोगों के नाम, शब्द आदि भूलने लगा. इससे मैं घबरा जाता था. यहां तक कि मैं अपने कुत्तों के नाम भी भूल गया था. रोजमर्रा की बातचीत न हो पाए तो ऐसा ही होता है. मैं अक्सर अवसादग्रस्त हो जाता था. मेरे दिमाग में तरह-तरह के नए विचार थे लेकिन मैं उन्हें लिख नहीं पाता था. जेल में आपको मानवीय प्रकृति के कई रूप और परिस्थितियां देखने को मिलती हैं. इस सब ने मुझे कानून के बारे बहुत गहराई से सोचने पर मजबूर किया. जैसे कि दफा 302 हत्या के मामले में लगाई जाती है. लेकिन इसे मनगढंत मुकदमों से लेकर आत्मरक्षा की कार्रवाई, गैंग-वार और सुपारी लेकर काम करने के मामले में भी लगाया जा सकता है. जेल में 25 साल का एक लड़का मेरा काफी अच्छा दोस्त बन गया था. जब ये लड़का 19 साल का था तब उसने अपने पिता की चाकू मारकर हत्या कर दी थी क्योंकि वो शराब के नशे में उसकी मां को बुरी तरह से पीट रहा था. अपनी मां को मरने से बचाने के लिए उसके पास यही आखिरी विकल्प था. इस लड़के को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी. लेकिन सबसे भयावह बात थी.
अधिकारियों के दिल में ऐसे कैदियों के लिए कोई इज्जत न होना. उन्हें वह बुनियादी गरिमा भी नहीं मिलती थी जिसका हर इंसान हकदार होता है. हर शाम को जेल के लंबरदार कैदियों को लाठियों और चप्पलों से पीटते थे. एक आदमी पर 10 लोग झपटते थे. इसके अलावा और भी कई बुरी चीजें थीं. यदि मैं इसकी शिकायत करता तो अधिकारी मुझे ऐसे देखते जैसे मुझमें अक्ल नाम की कोई चीज न हो. वहां कई लोग हैं जो निर्दोष हैं. मगर व्यवस्था की बर्बरता को झेलते रहने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं. इसलिए मैं यहां खुद को असहाय महसूस करता था. अपने शुभचिंतकों को दूर से देखना, आधे घंटे की मुलाकात के लिए मेरी पत्नी (इलीना) का हर सप्ताह ट्रेन से यहां आना और जाना बेहद भयभीत कर देने वाला अनुभव था.
सरकार आपको खामोश करना चाहती थी. इन दो सालों में क्या कभी आपको लगा कि अब इस विरोध को खत्म किया जाए?
मैं बुनियादी रूप से महत्वाकांक्षी व्यक्ति नहीं हूं. यदि मैं इन हालात से मुंह मोड़ सकता तो खुशी-खुशी ऐसा कर लेता. मेरी बेटियां इस समय अपनी उम्र के सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव पर हैं. अपनी पत्नी इलीना का मैं बेहद सम्मान करता हूं. मगर मध्य भारत के इस इलाके में हालात बेहद खराब हैं. यहां युद्ध के हालात हैं. इस पर ध्यान देने और स्थितियों को सुधारने की दिशा में काम करने की जरूरत है. मुझे लगता है कि मैं ऐसा करने की स्थिति में हूं. हालांकि मैं इस समय कुछ दुविधा में हूं कि इस मसले पर किस तरह से आगे बढ़ा जाए. मेरा हमेशा से मानना रहा है कि हिंसा कभी आखिरी विकल्प नहीं हो सकती. बल्कि हिंसा का चक्र तो कभी खत्म नहीं होता और एक बार इसमें घुसने के बाद आप इससे बाहर नहीं निकल पाते. माओवादी और सरकार दोनों ही इस चक्र में शामिल हो चुके हैं और इस वजह से लाखों लोगों की जिंदगियों पर इसका बुरा असर पड़ रहा है. डॉक्टर और खासकर बाल चिकित्सक होने के नाते हर कुपोषित बच्चे को देखकर मेरे मन में रोष पैदा होता है. ये चीजें आपको परेशान करती हैं. ये असमानताएं और समस्याएं अपने आप पैदा नहीं हुईं बल्कि किसी ने इन्हें बना कर रखा है. किसी न किसी को तो माओवादियों और सरकार के बीच जारी सैन्य संघर्ष को खत्म कराने और दोनों पक्षों को राजनीतिक विरोध या राजनीतिक समाधान के लिए तैयार कराना होगा. इसके अलावा राज्य में जारी उस संगठनात्मक हिंसा पर सवाल उठाने की जरूरत है जिसकी वजह से गरीबी दूर नहीं हो पा रही. यदि बस में हो तो खुशी से पीछे हट जाऊं, पर अब ये और भी नामुमकिन लगता है.
अपने समर्थन में चले व्यापक अभियान से क्या आप हैरान हुए?
मेरा मानना था कि हम छोटे-मोटे लोग हैं. लेकिन अब लगता है कि ऐसा नहीं है. ये अभिभूत कर देने वाला अनुभव था. इससे सच्चाई के पक्ष में आवाज उठाने की हमारी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है. अभी तक हमने जो काम किया है वह न के बराबर है. दुविधा यह है कि जिन रास्तों पर चलकर इन मुद्दों को बेहतर ढंग से हल किया जा सकता है उन पर चलने का मतलब है सरकार की नाराजगी मोल लेना. लेकिन हम अपने काम में कमी नहीं कर सकते.
क्या आपको जेल में नारायण सान्याल से मुलाकातों का कोई अफसोस है?
नहीं, मुझे बिल्कुल नहीं पता था कि इसका ये नतीजा होगा. मैंने सान्याल के लिए जो भी किया उस सब के लिए पुलिस और सरकार से पूर्व अनुमति ली गई थी. इसके अलावा मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते आप उस व्यक्ति की मदद करते हैं जिसे कानूनी और चिकित्सा सहायता की जरूरत है, इसमें आप सीमारेखा आखिर कहां खीचेंगे?

(यह साक्षात्कार यहां हम तहलका पत्रिका से साभार प्रस्तुत कर रहे हैं)

http://www.tehelkahindi.com/mulakaat/sakshatkar/302.html