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बहती धारा को बलपूर्वक रोका गया : वासवी

स्त्री एवं पुरुष समाज रूपी रथ के दो पहिया हैं. एक पहिया कमजोर हो जाय या टूट जाय तो रथ के आगे बढ़ने की संभावना क्षीण हो जाती है. इसके बाद भी बेटे को लेकर हमारा समाज जितना संजीदा है उतनी बेटियों को लेकर नहीं है. यही वजह है कि बेटियों में शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण एवं सुरक्षा की समस्या गंभीर बनी हुई है. बेटियों  के मामले में कल्याणकारी राज्य के भी जो कर्तव्य हैं , वह जमीन पर दिखायी नहीं देता है. झारखंड का अलग राज्य बने 13 साल पूरा होने को है. ऐसे में यहां बेटियों के लिए क्या काम हुआ. कितना विकास हुआ. इसे लेकर राज्य की दो ऐसी महिलाओं से बात की गयी जो महिलाओं की दशा एवं दिशा बदलने के लिए कार्य कर रही है. एक हैं राज्य महिला आयोग की सदस्य एवं समाजसेवी वासवी किड़ो. दूसरी झारखंडी भाषा- साहित्य संस्कृति अखड़ा की संस्थापक सदस्य एवं लेखिका वंदना टेटे. प्रस्तुत है संवाददाता उमेश यादव से बातचीत का मुख्य अंश :

झारखंड में बेटियों का कितना विकास हुआ?
सबसे पहली बात तो यह है कि 13 साल बाद भी राज्य में महिला नीति नहीं बनी. नीति के अभाव में बच्चियों के लिए कार्यक्रमों एवं योजनाओं की स्पष्टता नहीं है. राज्य में महिला नीति बने, इसके लिए राज्य महिला आयोग ने कई प्रयास किये हैं. प्रारूप तैयार कर सरकार को उपलब्ध कराया गया. लेकिन, कोई कार्रवाई नहीं हुई. राज्य सरकार ने दो-दो बार औद्योगिक नीति बनायी. लेकिन, एक बार भी महिला नीति की घोषणा नहीं की. यह बहुत बड़ी नाइंसाफी है, महिलाओं के साथ. बच्चियों के साथ. इससे बच्चियों के साथ जो न्याय होना चाहिए था, वह नहीं हो रहा है. महिलाओं को लेकर सरकारी मशीनरी का क्या नजरिया हो, अफसर कैसी योजनाएं ले, क्या बजट प्रावधान हो, इसका स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं है. सरकार ने वर्ष 2012 को बिटिया वर्ष घोषित किया. इसमें कहा गया था इस वर्ष का बजट महिलाओं का, महिलाओं के लिए और महिलाओं के द्वारा होगा. लेकिन, यह नहीं हुआ. तत्कालीन वित्त मंत्री एवं वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने  जानकारी दी थी कि सरकार के बजट में पांच हजार करोड़ का प्रावधान महिलाओं के लिए किया है.

लेकिन, बजट की पूरी राशि खर्च नहीं हुई और उपलब्धि भी आधी-अधूरी रही. बजट का लाभ सुदूर देहात में रहने वाली बच्चियों एवं महिलाओं को नहीं मिला. खास कर आदिम जनजाति की बच्चियां इससे वंचित रही. जहां तक सुरक्षा की बात है तो अब यह अब भी बड़ी समस्या बनी हुई है. गैंगरेप की घटनाएं बढ़ी है. हाल में घटित पाकुड़ की घटना एवं अन्य घटनाएं इसका उदाहरण है. राज्य सरकार ने महिलाओं के अधिकार को लेकर काम करने वाली संस्थाओं को निकम्मा बनाकर रख दिया है. राज्य महिला आयोग को ही देख लीजिए. आयोग के पास संसाधन की भारी कमी है. पाकुड़ की घटना का जायजा लेने के लिए आयोग की टीम वहां जाना चाहती थी . लेकिन, सरकार ने संसाधन उपलब्ध नहीं कराया. बच्चियों में पोषण एवं स्वास्थ्य की स्थिति भी भयावह है. 70 प्रतिशत बच्चियां कुपोषित हैं. उनमें एनिमिया है. यह बहुत बड़ा कलंक है. लेकिन, इसके खिलाफ जो अभियान चलना चाहिए, वह नहीं हो रहा है. नव युवतियों का असुरक्षित पलायन जारी है. युवतियों के पलायन को सुरक्षित बनाने के लिए राज्य महिला आयोग की ओर से केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री, राष्ट्रीय महिला आयोग, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और राज्य के मुख्यमंत्री से कई दौर की बैठकें हुई. इसमें जो निर्णय हुए  उस पर अमल नहीं हुआ.  राज्य सरकार ने कहा था कि पलायन को लेकर कानून बनायेंगे. लेकिन, यह काम भी नहीं हुआ. इस प्रकार बच्चियों के व्यक्तित्व के निर्माण, पोषण, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के लिए कोई ठोस काम नहीं हुआ है. काफी कुछ किया जाना बाकी है.

बेटियों के लिए काम नहीं हुआ,क्या वजह रही. सरकार की प्राथमिकता सूची में महिलाएं एवं बेटियां नहीं है. नेता सिर्फ लोक लुभावन नारा देकर अपना वोट बैंक बनाने का प्रयास करते हैं. इसी उद्देश्य के लिए सरकार ने वर्ष 2012 को बिटिया वर्ष घोषित कर लाभ लेने का प्रयास किया. काम नहीं किया.

दिल्ली गैंगरेप की घटना के समय जो घोषणाएं की की गयी थी, उस पर कितना अमल हुआ?
राज्य महिला आयोग ने अपना काम तो किया. लेकिन, सरकार को जो ताकत लगानी थी वह नहीं लगाया गया. खासकर पुलिस को संवेदनशील बनाने के लिए जो काम होना था, नहीं हुआ. महिला थानों के निर्माण, महिला पुलिस पदाधिकारियों की नियुक्ति और बाकी पुलिस पदाधिकारियों एवं कर्मियों को नये-नये कानूनों की जानकारी देने और संवेदनशील बनाने का काम नहीं हुआ.

पंचायतों में महिलाओं को जो आरक्षण दिया गया है, उसे किस रूप में देखती हैं?
सरकार ने 50 प्रतिशत आरक्षण दिया था. लेकिन, महिलाओं की भागीदारी बढ़कर 58 प्रतिशत हो गयी. अपनी भागीदारी बढ़ाकर महिलाओं ने अपनी क्षमता एवं योग्यता को साबित किया. लेकिन, काम करने के लिए सरकार ने अवसर उपलब्ध नहीं कराया. महिलाओं ने जो किया है खुद किया है, इसमें सरकार की भूमिका नहीं के बराबर है.

इतनी संख्या में भागीदारी का असर क्या हुआ?
जो महिलाएं  चुन कर आयी हैं वे अपने गांव, समाज एवं देश के लिए बहुत कुछ करना चाहती हैं. नियम एवं कानून और अधिकारों के हस्तांतरण के जरिये सरकार को इन प्रतिनिधियों को प्रोत्साहित चाहिए था. लेकिन, यहां उल्टा किया गया है. महिला प्रतिनिधियों को अवसर न उपलब्ध कराकर सरकार ने एक तरह से बहती धारा को बलपूर्वक रोकने का काम किया है.