Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]interview/मथुरा-रेप-केस-के-बाद-बलात्कार-संबंधी-कानूनों-को-मजबूत-किया-गया--5781.html"/> साक्षात्कार | "मथुरा रेप केस के बाद बलात्कार संबंधी कानूनों को मजबूत किया गया." | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

"मथुरा रेप केस के बाद बलात्कार संबंधी कानूनों को मजबूत किया गया."

प्रकाशन और कई किस्म के सामाजिक हस्तक्षेप के जरिए भारतीय स्त्री विमर्श को एक नई दिशा देने वाली उर्वशी बुटालिया को आज भारतीय नारीवाद की एक पुरजोर आवाज के तौर पर पहचाना जाता है. भारतीय महिला आंदोलनों के बिखराव और उनकी वर्तमान दिशा पर प्रियंका दुबे ने उर्वशी के साथ विस्तार से बातचीत की

आप पिछले 45 वर्षों से भारतीय स्त्री विमर्श का हिस्सा रही हैं. इस दौरान हुए बदलावों को आपने करीब से देखा है. आप जब पीछे मुड़कर देखती हैं तो भारतीय स्त्री की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में आपको कितना बदलाव महसूस होता है?


कानून के स्तर पर सबसे बड़े बदलाव आए हैं. मथुरा रेप केस के बाद बलात्कार संबंधी कानूनों को स्त्री के पक्ष में मजबूत किया गया. साथ ही तलाक, यौन उत्पीड़न और पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी से संबंधित नए कानूनों और संशोधनों ने भी महिलाओं की स्थिति को मजबूत किया है. 1975 तक भारत में महिलाओं की स्थिति से जुड़ा पहला बड़ा शोध भी हो चुका था. ‘स्टेटस ऑफ विमन इन इंडिया: टूवर्ड्स इक्वालिटी' नामक इस रिपोर्ट के आने के बाद से ही महिलाओं से संबंधित कई बड़े नीतिगत बदलावों की शुरुआत भी हो गई. फिर जब 1991 की जनगणना में पहली बार महिलाओं के गिरते लिंगानुपात की बात मुखरता से सामने आई तो कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए भी नई नीतियां बनाई गईं. कुल मिलाकर कानून और नीतियों के स्तर पर तो धीरे-धीरे जागरूकता फैल रही है. हालांकि यह प्रक्रिया बहुत धीमी है. अच्छी बात यह है कि महिलाओं के अस्तित्व से जुड़ी समस्या को सबने स्वीकारना शुरू कर दिया है. यह स्वीकार किया जाने लगा है कि लड़कियों को जन्म से पहले मार देना, बलात्कार करना, दहेज के लिए जला देना या फिर उन्हें शिक्षा से दूर रखना एक समस्या है. लेकिन दूसरी तरफ दिक्कतें भी बढ़ीं. जैसे नीतियों के क्रियान्वयन के लिए जब भी सरकारी कर्मचारी ग्रामीण इलाकों में जाते तो स्त्रियों से संबंधित सारे सवालों के जवाब उनके घरवाले देते. बलात्कार, सती, दहेज हत्या, कन्या भ्रूण हत्या, छेड़छाड़ और कार्यस्थल पर उत्पीड़न की घटनाएं भी तेजी से बढ़ने लगीं. सबसे बड़ा बदलाव यह है कि मीडिया और सूचना तंत्र की वजह से महिलाओं की स्थिति अपनी पूरी जटिलता में हमारे सामने आ रही है. इस लिहाज से देखें तो हालात पिछले 40 सालों में कहीं ज्यादा बदतर हुए हैं, और कई मायनों में बेहतर भी. जैसे हमारे जमाने में सेल्स गर्ल होना बहुत बुरा माना जाता था लेकिन आज होटल इंडस्ट्री से लेकर सिक्योरिटी इंडस्ट्री तक में औरतें दरबान से लेकर मैनेजर तक सारी भूमिकाएं निभा रही हैं. यह बहुत विरोधाभासी है लेकिन भारत की दूसरी तस्वीरों की तरह यहां महिलाओं की दशा भी इन दो चरम स्थितियों के बीच झूल रही है.

भारतीय महिला आंदोलनों की सबसे कड़ी आलोचना उनके दिशाहीन रवैये को लेकर होती है. आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय भागीदारी से शुरू हुआ महिला आंदोलनों का यह सिलसिला आगे चलकर खेतिहर और आदिवासी आंदोलनों से भी जुड़ा. फिर 70 के दशक में यह दहेज प्रथा और बलात्कार के विरोध की ओर मुड़ गया. 80 के दशक में इसने रूप कंवर और शाह बानो मामलों में सती और तलाक से जुड़ी नई बहस भी देखी. आज यह 'पिंक चड्डी' ‘स्लट वॉक' जैसे हथियारों का इस्तेमाल कर रहा है. आप महिला आंदोलन के इस टेढ़े-मेढ़े इतिहास को कैसे देखती हैं?


भारतीय समाज की बुनावट अपने-आप में इतनी विविध है कि यहां पूरे देश में कोई एक समग्र आंदोलन हो ही नहीं सकता. इसलिए मुझे लगता है कि भारतीय महिला आंदोलनों को दिशाहीन कहने के बजाय हमें यह समझना चाहिए कि यहां महिला आंदोलन अलग-अलग दिशाओं में काम कर रहा है. हमारा एक स्पष्ट इतिहास है और इन आंदोलनों में जो भी बिखराव है वो हमारे देश की भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता का नतीजा है. हालांकि मथुरा रेप केस (करीब चार दशक पहले महाराष्ट्र के चंद्रपुर में पुलिस स्टेशन के भीतर मथुरा नाम की एक लड़की के साथ दो पुलिसकर्मियों द्वारा कथित बलात्कार का केस) जैसे कुछ मामलों ने पूरे देश पर असर डाला था. मैंने ऐसे कई मामले देखे हैं जहां इतने बिखराव के बाद भी बड़े मुद्दों पर पूरे देश की महिलाएं एक साथ हो गईं. ऐसा समाज जो धर्म, जाति और वर्ग के नाम पर इतना बंटा हुआ है वहां पर एक देशव्यापी महिला आंदोलन का होना किसी चमत्कार से कम नहीं है. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये आंदोलन महिलाओं को ऊपर उठाने में काफी हद तक कामयाब रहे हैं, हर तरह के शोषण और विपरीत माहौल के बाद भी. यह आज की सच्चाई है कि लड़कियां घरों से बाहर निकल रही हैं और दुनिया का सामना कर रही हैं. इसका सबसे बड़ा सबूत है खाप पंचायतों द्वारा महिलाओं और लड़कियों का आए दिन हो रहा विरोध. यह इसीलिए हो रहा है क्योंकि चीजें बदल रही हैं. लड़कियां चाहे वे ऑटो चला रही हों या मॉल की पार्किंग में गार्ड के तौर पर आपकी गाड़ी चेक कर रही हों या पंच बनकर गांव चला रही हों, तथ्य यही है कि वे आगे बढ़कर ताकत को हैंडल करना सीख रही हैं और आगे बढ़कर जिम्मेदारी उठा रही हैं. एक बात और, इस देश का महिला आंदोलन हमेशा से सबसे ज्यादा सुधारवादी और बदलाव का स्वागत करने वाला रहा है. बाहर से देखने पर लग सकता है कि हम बिखरे हुए हैं लेकिन भीतर से हमने खुद को लचीला और बदलाव के लिए तैयार रखा है. शाह बानो मामले से लेकर हिंदू उग्रवाद के उदय तक हमने पाया कि इस देश के भीतर बदलाव लाने के लिए इसकी सच्चाइयों को स्वीकारना ही होगा.

वर्तमान स्त्री विमर्श में दो अहम धाराएं उभर कर आ रही हैं. एक तरफ ‘पिंक चड्डी' और ‘स्लट वॉक' जैसी मुहिमें हैं जिन्होंने स्त्री देह के व्यावसायीकरण से संबंधित बहस शुरू कर दी है, एक वर्ग कह रहा है कि महिला बाजार के जाल में फंस रही है. दूसरी ओर परंपरावादी-शुद्धतावादी बहस है जो महिलाओं के इस प्रतिरोध के विरोध में दिनों-दिन और कट्टरपंथी हुई जा रही है. बलात्कार, सम्मान के नाम पर हत्याएं बढ़ी हैं. इन जटिलताओं को कैसे समझा जा सकता है?
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन लगभग हर समाज ने अपनी सामाजिक संरचना के हिसाब से महिलाओं के खिलाफ हिंसा के अलग-अलग तरीके ढूंढ़ लिए हैं, और साथ ही उस हिंसा को उचित ठहराने के तर्क भी. खाप, जातिगत संघर्षों में होने वाली हत्याओं, बढ़ते बलात्कार और सड़कों पर आए दिन होने वाली हिंसा को भी ऐसी ही सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है. इतने सालों में मैंने देखा है कि हमारे समाज में एक तरह की सामंतवादी और मर्दवादी सोच गहरे तक बैठी हुई है. यहां नेताओं, पुलिस मुखियाओं से लेकर मुख्य न्यायाधीशों तक सभी ने महिलाओं के बारे में खेदजनक टिप्पणियां की हैं, तो हम एक आम नागरिक से क्या उम्मीद कर सकते हैं? रही बात स्त्री शरीर के व्यावसायीकरण की तो मुझे लगता है कि इसका फैसला हमें स्त्रियों पर ही छोड़ देना चाहिए. जब हम लोग कॉलेज में थे तब हमने वहां होने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताओं का पुरजोर विरोध किया, लेकिन बाद में हमारा सामना ऐसी महिलाओं से हुआ जिन्होंने कहा कि हम कौन होते हैं उनके लिए फैसला लेने वाले. जब हमने दोबारा सोचा तब हमें अहसास हुआ कि दूसरों के बारे में कोई फैसला हम नहीं कर सकते. हो सकता है कोई गलती कर रहा हो, लेकिन गलती करके सीख लेने का हक हर महिला को है. जब वे अपने मन के कपड़े पहने तो आप उन्हें नसीहत दें और जब वे सती होने जाएं तो कहें कि उनको अपनी मर्जी थी. अपने रास्ते खुद ढूंढ़ने का मौका उन्हें दिया जाना चाहिए.

अंबाला से शुरू हुआ आपका सफर दिल्ली में ‘जुबान' की स्थापना तक आ पहुंचा है. महिला आंदोलनों की तरफ आपका झुकाव कैसे हुआ? कैसी रही यह यात्रा?


मैं मूलतः पंजाबी हूं. विभाजन के बाद हमारा परिवार पाकिस्तान से आकर शिमला में बस गया था. वहां से चंडीगढ़ होते हुए हम दिल्ली आ गए. मेरे पिता तब ‘द ट्रिब्यून' में काम करते थे और मां स्कूल में पढ़ाती थीं. हम चार भाई-बहन थे. हमारा संयुक्त परिवार था. माता-पिता की कमाई कम पड़ जाती थी. लेकिन मेरी मां बेटियों के लिए बहुत लड़ती थीं. उनका कहना था कि लड़कियों को भी बराबर की शिक्षा और अच्छा भोजन मिलना चाहिए. सबसे पहला प्रभाव शायद मां का ही था. फिर जब मैं कॉलेज में आई तो वहां भी बच्चे छात्र राजनीति से जुड़े हुए थे. वहां हॉस्टलों में लड़कियों के लिए बेहतर सुविधाओं की मांग और बसों में महिला सीटें सुरक्षित करने के आंदोलन से मेरा सफर शुरू हुआ. उसी वक्त मथुरा रेप केस सामने आया और हम लोग पूरी तरह आंदोलन में उतर गए. साथ में मैंने एक प्रकाशन में काम शुरू कर दिया. कुछ दिनों बाद मुझे उस संस्थान की तरफ से ऑक्सफोर्ड भेजा गया. वहां काम करने के दौरान मेरे दिमाग में बात आई कि हमारे यहां महिलाओं का साहित्य लिखने या छापने वाले प्रकाशन नहीं हैं जबकि हम देश का आधा हिस्सा हैं. तब हमने ‘काली फॉर वीमेन' शुरू करने का निश्चय किया. लेकिन इसके नाम की वजह से कई लोग इसको धार्मिक प्रतीकों से जोड़कर देखते. फिर 19 साल बाद हमने जुबान की स्थापना की.

आप पिछले 3 दशक से महिला प्रधान प्रकाशन में सक्रिय हैं. इस दौरान इस क्षेत्र में और खुद में क्या बदलाव महसूस करती हैं?


शुरू-शुरू में लोग हम पर हंसते थे. लेकिन बाद में जब हमने साबित कर दिया तब लोगों को लगा कि ये औरतें ठीक-ठाक काम कर रही हैं. धीरे-धीरे यह बात भी स्थापित हुई कि स्त्री लेखन का बाजार बहुत बड़ा है. आज देखिए, हर प्रकाशन संस्थान लेखिकाओं और महिलाओं के मुद्दों को तरजीह दे रहा है. मेरे लिए तो यह बहुत संतोष देने वाली प्रक्रिया रही. मैं बोर नहीं होती हूं. आज भी हर नई किताब को लेकर वैसे ही उत्साहित हो जाती हूं जैसे पहली किताब को लेकर थी!