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‘90 फीसदी महिलाएं अपनी गुलामी का जश्न मनाती हैं’

स्त्री मुक्ति और आदिवासी संघर्ष का जिक्र करें तो रमणिका गुप्ता का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है. अपने लंबे संघर्षमय जीवन के विभिन्न पड़ावों एवं एक लेखिका-सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में दोहरे जीवन की चुनौतियों के बारे में उनकी पूजा सिंह से बातचीत.

आप सक्रिय राजनीति में रहीं. तीन दशक पहले चुनाव भी जीतीं. आज देश के कई बड़े राज्यों में महिला मुख्यमंत्री हैं. केंद्र में भी सबसे प्रभावी एक महिला हैं. लेकिन समाज और राजनीति के निचले पायदानों पर महिलाओं की हालत वहीं की वहीं है.


कुछ लोग, कुछ समूह तो आगे बढ़े लेकिन समाज एक साथ आगे नहीं बढ़ा है. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं, मायावती मुख्यमंत्री बन गईं, मैं विधायक बनी लेकिन यह सिर्फ ‘मैं' ही बनी. यह एक बड़ा सवाल है. समाज अभी तक संविधान को स्वीकार नहीं कर पाया है. वो अभी भी मन ही मन इसका विरोध करता है. जो मानते भी हैं वे केवल डर की वजह से. दलितों और आदिवासियों की समस्याओं के मूल में यही है. ध्यान रखिए कि समाज को केवल सत्ता नहीं बदल सकती, समाज को खुद बदलना होगा. सत्ता के बदलाव का असर आप अफगानिस्तान में देख सकते हैं. रूस के जाने के बाद वहां का समाज तालिबान हो गया. रूस इतने साल समाजवादी रहा लेकिन बाद में पूंजीवादी हो गया. समाज को बदलने के लिए समाज के भीतर से ही आवाजें आनी चाहिए. हिंदुस्तान में नहीं उठी हैं. डॉ. आंबेडकर ने आवाज उठाई तो आज दलितों की स्थिति कुछ ठीक है. स्त्रियों की बात करें तो जिन्हें आप तथाकथित निम्न वर्ग कहते हैं वे मध्य वर्ग की स्त्रियों से ज्यादा आजाद हैं. वे दूसरी शादी कर सकती हैं, प्रेम विवाह कर सकती हैं. उनके यहां भ्रूण हत्या नहीं होती है. आदिवासी स्त्री कमाती है लेकिन जैसे ही उसके पास पैसा आ जाता है वह अपने आप को मध्य वर्ग में ढाल लेती है.

तो क्या मध्य वर्ग की सोच समस्या की जड़ में है?


देखिए, जो दुनिया का मध्यवर्ग है खासकर हिंदुस्तान का मध्य वर्ग, ये बफर है. बदलाव और यथास्थिति के बीच का है. जब भी लोग बदलाव के लिए उठते हैं और ऊपर के वर्ग को नष्ट करना चाहते हैं तो ये बफर बनकर खड़ा हो जाता है. लेकिन नेतृत्व भी इसी वर्ग में होता है. सर्वहारा नेतृत्व नहीं करता है. उसके पास समय ही नहीं है कि वह नेता बने. वह आपकी फौज जरूर बन सकता है.

मध्यवर्गीय स्त्रियों और निम्नवर्गीय स्त्रियों में क्या भेद देखती हैं?


देश में लाखों की संख्या में जो महिलाएं खेतों में खटती हैं वे हमसे ज्यादा स्वतंत्र हैं. मध्य वर्ग की स्त्री को क्या चाहिए वर्जनाओं से मुक्ति, काम करने की छूट, स्वावलंबी बनने की छूट. निम्न वर्ग की स्त्रियां पहले से ही स्वावलंबी हैं. कई बार वो पति से ज्यादा कमाती हैं. बच्चों को पालती हैं. उनको छूट है शादी करने की, छोड़ने की और दूसरा मर्द करने की. पर उनके यहां दबाव दूसरी तरह के हैं. वहां दबंग हावी हैं. उच्च वर्ग की बात करें तो यहां की महिला या तो बिजनेस वीमेन है या फिर वे ड्राइंग रूम डॉटर्स हैं. वो उसी में खुश हैं. हमारी 90 फीसदी औरतें अपनी गुलामी का जश्न मनाती हैं. वो सुहाग, पति परमेश्वर जैसी बातों में रहती हैं. निम्न वर्ग में बलात्कार होता है तो जुल्म होता है और हमारे यहां बलात्कार होता है तो इज्जत लुटती है. इज्जत का सिंड्रोम शुचिता, कुंवारीं लड़की, इसका सिंड्रोम औरत को गुलाम बनाए रखता है. परिवार ने महिलाओं को पुरुष के नजरिये से सोचने वाला बना दिया है. कामकाजी महिला अपने पति से मार खाती है, डॉक्टर महिला मजार-मंदिर पर जाकर लड़के की मांग करती है. परिवार के टूटने से ही स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार होगा. वह स्वतंत्र बनेगी, बाहर निकलेगी, काम करेगी तब कहीं जाकर वह अपनी इज्जत करना सीखेगी. जब वह अपनी इज्जत करेगी तभी दूसरे भी उसका सम्मान करेंगे.

क्या लेखन में स्वानुभूति जरूरी है. यानी दलितों, आदिवासियों, महिलाओं पर वे खुद ही बेहतर लिख सकते हैं.


बिल्कुल. स्वानुभूति एकदम जरूरी है. हम तो सहानुभूति का भी आदर करते हैं लेकिन स्वानुभूति ज्यादा प्रामाणिक होती है. जब हमने मैला उठाया नहीं तो उस चीज को कैसे महसूस कर सकते हैं. ऐसे में हम उस आदमी और मल दोनों से ही घृणा करते हैं. उससे वह मैला ढोने वाला आदमी गुस्सा होगा. वो हममें कभी नहीं हो सकता. हम उस चीज को उस दलित की तरह महसूस नहीं कर सकते.

ऐसे तो प्रेमचंद्र समेत तमाम रचनाकारों को खारिज करना पड़ेगा क्योंकि वे दलित नहीं थे.


प्रेमचंद ने जो भी लिखा है वह बतौर समाजवादी लेखक लिखा है. उन्होंने दलित साहित्य नहीं लिखा है. यह बात बहुत भ्रमित करती है. उनका लेखन प्रगतिशील कहा जा सकता है. तब दलित चिंतन नहीं आया था. वो गांधी के समर्थक थे आंबेडकर के नहीं. आंबेडकर के दलित चिंतन में कुछ और है. हम देवता नहीं मानते, हम भगवान नहीं मानते. दलित चिंतन यही है. भगवान को नहीं मानना, मूर्ति को फेंकना लेकिन यह प्रेमचंद ने नहीं कहा. अंतरजातीय विवाह करो यह प्रेमचंद ने कहा क्योंकि वह प्रगतिशील थे. आपस में भाई बनकर रहो, मजदूर की बात की. उनके पात्र दलित हैं लेखन नहीं.

अपने लेखन के बारे में आप क्या कहेंगी?


अपने लेखन के बारे में मैं कह सकती हूं कि वह दलित, आदिवासी सहानुभूति वाला या ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता का लेखन है जो उनके बीच में रहा है. मैं उनके बीच में रही हूं, उनके दुख को बहुत करीब से महसूस किया है. समाज ने मुझे बहुत कुछ कहा. कहा कि मैं भ्रष्ट हो चुकी हूं. गालियां दीं लेकिन वे लोग मुझे मानते हैं. जब लोग डीकास्ट हो जाएंगे तो दलित साहित्य नहीं रह जाएगा फिर केवल मानवीय साहित्य का ही अस्तित्व रहेगा.

जो भोगा हुआ है उसका मुद्दा बयानी और कला जो रचना के लिए एक आवश्यक तत्व भी माना गया है. इन दोनों के द्वंद्व को अभी तक समझा नहीं जा सका है.
देखिए, एक वस्तु है और एक कला है. उनके पास वस्तु है लेकिन कला नहीं आई है. मैनेजर पांडेय अक्सर कहते हैं. रोने की कोई कला नहीं होती. तो वस्तु मन पर चोट कर जाए तो वह साहित्य नहीं है क्या. और दलित साहित्य मनोरंजन के लिए तो नहीं लिखा जाता है ना लिखा जाना चाहिए. दलित साहित्य या स्त्री साहित्य बदलाव के लिए लिखा जाता है. मानसिकता और दृष्टिकोण बदलने के लिए लिखा जाता है. मेरा मानना है कि केवल पीड़ा का वर्णन करने से दृष्टिकोण नहीं बदलेगा. पीड़ा से रोती हुई स्त्री किसी काम की नहीं. उसे बदलाव के लिए आगे आना होगा.

मौजूदा महिला लेखन को आप किस तरह देख रही हैं?


मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि आज का स्त्री लेखन मोटे तौर पर शहरी स्त्री का लेखन है. मैत्रेयी पुष्पा ने जरूर ग्रामीण स्त्री के जीवन, उसकी पीड़ा को स्वर दिया है. खास तौर पर उनकी मां के बारे में जो लिखा गया है. उनकी इदन्नमम, कस्तूरी कुंडल बसै जैसी रचनाएं इसका उदाहरण हैं. मैत्रेयी ने इसकी कीमत भी चुकाई है. हां, आत्मकथा लिखने वाली महिलाएं बहुत बेबाकी से लिख रही हैं.

आरंभिक और राजनीतिक जीवन के संघर्षों के बारे में कुछ बताइए.


संघर्ष बचपन से ही देखा है. हमारा परिवार सामंती परिवार था. मैं एक दलित बच्चे को अपने घर लाकर पढ़ाती और खिलाती. घर में यहीं से विरोध आरंभ हो गया. मैंने भी भेदभाव के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी. दूसरा विरोध मैंने परदे का किया. इसके बाद मैंने नौकरों को बराबरी का हक दिलाने के लिए संघर्ष किया. मैंने प्रेम विवाह किया. एक तो प्रेम विवाह दूसरा जाति के बाहर. इसका भारी विरोध हुआ, मेरी पिटाई तक हुई. मां बहुत सख्त थीं. मां पर बहुत गीत लिखे जाते हैं लेकिन मां वर्जनाओं का पुलिंदा है. पुरुषों ने मां के जरिए ही औरतों को गुलाम बनाया. राजनीतिक जीवन तो झारखंड में ही शुरू हुआ, 60 के दशक में. वहां मैंने समाजसेवा से शुरुआत की. फिर महिलाओं के लिए काम करना शुरू किया. सन 1967 में मैं कच्छ आंदोलन में गई. जार्ज फर्नांडीज के साथ दो बार गिरफ्तारी हुई. मार भी खाई. 1968 में सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर मांडू क्षेत्र से चुनाव लड़ी लेकिन 700 वोटों से चुनाव हार गई. हार के बाद भी मैंने अपना वादा निभाया और टाटा की वेस्ट बोकारो कोलयरी में लड़ कर मजदूरों के बच्चों के लिए हाई स्कूल का भवन बनवाया. पीने के पानी की समस्या को देखते हुए मैंने इसके लिए जबरदस्त आंदोलन छेड़ा. इसी के चलते लोग मुझे ‘पानी की रानी' भी पुकारने लगे. महिलाओं पर किए जा रहे जुल्म के खिलाफ मैंने ‘घूस नहीं अब घूंसा देंगे' का आंदोलन चलाया. मुझे पर जानलेवा हमले तक हुए. 1972-74 में मैं कांग्रेस की तरफ से बिहार विधान परिषद की सदस्य (एम.एल.सी.) रही और 1979 में लोकदल के टिकट पर विधायक बनी. मेरी वैचारिक यात्रा मार्क्सवादी पार्टी में जाकर पूरी हुई.