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‘वे इतिहास को वल्गराइज कर रहे हैं’

मध्यकालीन भारत पर दुनिया के सबसे बड़े विशेषज्ञों में गिने जाने वाले इरफान हबीब आजकल भारत के जन इतिहास शृंखला पर काम कर रहे हैं. इसके तहत दो दर्जन से अधिक किताबें आ गई हैं. हिन्दी पत्रिका तहलका के रेयाज उल हक के साथ बातचीत में वे बता रहे हैं कि किस तरह इतिहासकारों के लिए वर्तमान में हो रहे बदलाव इतिहास को लेकर उनके नजरिए को भी बदल देते हैं

क्रिस हरमेन का '’विश्व का जन इतिहास’ और हावर्ड जिन का ’'अमेरिका का जन इतिहास’  काफी चर्चित रहे हैं. भारत के इतिहास के बारे में यह विचार कैसे आया?

दस साल हुए, जब यह खयाल पैदा हुआ कि भारत का जन इतिहास लिखा जाना चाहिए. तब भाजपा मनमाने तरीके से इतिहास को तोड़-मरोड़ रही थी. उन दिनों हमने इसपर काम शुरू किया. हमें मध्य प्रदेश पाठ्य पुस्तक निगम ने इसके लिए अनुदान दिया था. शुरू में इसे मूलत: शिक्षकों के पढ़ने के लिए तैयार करना था. हम इसके जरिए एक नैरेटिव देना चाहते हैं. इसमें हम उन चीजों को भी रख रहे हैं जिनसे असहमति है. इसका आम तौर से ख्याल रखा जाता है कि एक समग्र दृश्य उभरे.

एक आम पाठक के लिए जन इतिहास और आम इतिहास में क्या फर्क होता है?

जन इतिहास में हम सभी पहलुओं को लेने की कोशिश करते हैं. भारत में राज्य काफी महत्वपूर्ण हुआ करता था. यह सिर्फ शासक वर्ग का संरक्षक ही नहीं था बल्कि वह उसकी विचारधारा का भी संरक्षक था. जाति यही विचारधारा है. जाति इसीलिए तो चल रही है कि उत्पीड़ितों ने भी उत्पीड़कों की विचारधारा को अपना लिया- उनकी बातें मान लीं. इस तरह विचारधारा भी महत्वपूर्ण होती है. हमारे यहां औरतों की जिंदगी के बारे में कम सूचना है. हालांकि उनके बारे में हम बहुत कम बातें जानते हैं, पर इसकी तुलना में भी उनपर कम लिखा गया. हमारी पुरानी संस्कृति में बहुत सारी खराबियां भी थीं. जन इतिहास इनपर विशेष नजर डालने की कोशिश है. भारत का इतिहास लिखना आसान है. थोड़ी मेहनत करनी होती है- और वह तो कहीं भी करनी होती है. मध्यकालीन भारत के लिए ऐतिहासिक स्रोत काफी मिलते हैं. प्राचीन भारत के लिए शिलालेख मिलते हैं, जिनकी डेटिंग बेहतर होती है. इतिहास के मामले में भारत बहुत समृद्ध रहा है. लेकिन यहां बहुत-से शर्मिंदगी भरे रिवाज भी रहे हैं जैसे दास प्रथा आदि. इस श्ृंखला में इन सब पर विस्तार से विचार किया जा रहा है.

भारत का जन इतिहास क्या देश के बारे में नजरिए में कोई बदलाव लाने जा रहा है?

इतिहास लेखन का मकसद नई खोज करना नहीं है. बहुत सारी चीजों पर अकसर लोगों की नजर नहीं जाती. जैसे तकनीक का मामला है. मध्यकालीन समाज में हमारे देश में कैसी तकनीक थी. तब खेती कैसे होती थी, क्या उपकरण इस्तेमाल होते थे. इन पहलुओं पर नहीं लिखा गया है अब तक. इसी तरह बौद्ध-जैन परंपराओं पर इतिहास में उतना ध्यान नहीं दिया गया. गुलाम कैसे रहते थे, इसके बारे में भी इतिहास में नहीं लिखा गया. जन इतिहास इन सबको समेट रहा है.

इतिहास का अर्थशास्त्र, साहित्य, संस्कृति जैसे दूसरे अनुशासनों के साथ संवाद लगातार बढ़ रहा है. इससे इतिहास लेखन  कितना समृद्ध हो रहा है?

अर्थशास्त्र पर कौटिल्य की एक किताब है. अब उस किताब को समझने के कई तरीके हो सकते हैं. हम उसे अपने तरीके से समझते हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि हमारा नजरिया ही सही है. गुंजाइश तो रही है हमेशा नए विचारों की. ऐसे नए पहलू हमेशा सामने आते रहेंगे जिनपर नजर नहीं डाली गई और जिनपर काम होना है.

भारत में पूंजीवादी विकास की बहस अब भी जारी है. मध्यकाल पर और पूंजीवाद में संक्रमण पर आपका भी अध्ययन रहा है. देश में पूंजीवाद का विकास क्यों नहीं हो पाया? इसमें बाधक ताकतें कौन-सी रहीं?

पूंजीवाद का विकास तो पश्चिम यूरोप के कुछ देशों में ही हुआ. चीन, रूस, अफ्रीका और यूरोप के भी बहुत सारे देशों में पूंजीवाद का विकास नहीं हो पाया. हम यह नहीं कह सकते कि इसके लिए सिर्फ भारत ही दोषी है कि यहां पूंजीवाद का विकास नहीं हो पाया. पश्चिम यूरोप में पूंजीवाद के विकास में अनेक बातों का योगदान था. वहां तकनीक का विकास हुआ, विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति हुई. उपनिवेशवाद के कारण उन देशों को फायदा पहुंचा- इन सब बातों से वहां पूंजीवाद का विकास हो सका. अब हर मुल्क में तो वैज्ञानिक क्रांति नहीं होती. हर मुल्क में कॉपरनिकस पैदा नहीं होता. हां, लेकिन ऐसे तत्व भारत में मौजूद थे, जो देश को पूंजीवाद के विकास की तरफ ले जा सकते थे. मध्यकाल के दौरान यहां व्यापार था, लेन-देन था, बैंकिंग व्यवस्था थी, जिसे हुंडी कहते थे, बीमा की व्यवस्था मौजूद थी. लेकिन इनसे व्यापारिक पूंजीवाद ही आ सकता है. इसमें अगर श्रम की बचत करने की व्यवस्था बनती तो पूंजीवाद विकसित हो सकता था. इसके लिए विज्ञान और विचारों में विकास की जरूरत थी- जो यहां नहीं थे. तकनीक की तरफ भी ध्यान देना चाहिए था. अकबर हालांकि नई खोजों में रुचि दिखाता था. उसने उन दिनों वाटर पूलिंग जैसी तकनीक अपनाई थी. शिप कैनाल तकनीक का विकास उसने किया. दरअसल, जहाज बनाने के बाद उसे नदी के जरिए समुद्र में ले जाने में दिक्कत आती थी. लाहौर में जहाज के लिए लकड़ी अच्छी मिलती थी. लेकिन वहां से उसे समुद्र में ले जाना मुश्किल था. तो अकबर ने कहा कि जहाज को जमीन पर मत बनाओ. उसने शिप कैनाल विधि का विकास किया. यह 1592 की बात है. यूरोप में भी इसका इस्तेमाल सौ साल बाद हुआ. पानी ठंडा करने की विधि भी भारत में ही थी, यूरोप में नहीं. पर जो तकनीकी विकास इसके साथ होना चाहिए था वह यूरोप में हुआ और उसका कोई मुकाबला नहीं है.

एक इतिहासकार का काम अतीत को देखना होता है. लेकिन क्या वह भविष्य को भी देख सकता है?

नहीं. इतिहासकार भविष्य को नहीं देख सकता. बल्कि कभी-कभी तो इसका उल्टा होता है. जैसे-जैसे इतिहास का तजरबा बढ़ता जाता है, इतिहासकार इसे दूसरी तरह से देखने लगता है. जैसे फ्रांस की क्रांति हुई. वहां किसानों ने 33 प्रतिशत जमींदारों की जमीनें छीन लीं. इसपर 19वीं सदी में बहस चलती रही कि यह बहुत बड़ी कार्रवाई थी. हालांकि तब भी 66 प्रतिशत जमींदार बच रहे थे. लेकिन जब रूस में अक्तूबर क्रांति हुई तो वहां सभी जमींदरों की जमीनें छीन ली गईं. इसके आगे देखें तो फ्रांस की क्रांति में 33 प्रतिशत जमींदारों को खत्म करने की घटना कितनी छोटी थी. लेकिन इतिहासकार उसके आगे नहीं देख पाए. वे ये संभावनाएं नहीं देख पाए कि सौ प्रतिशत जमींदारी खत्म की जा सकती है. जैसे-जैसे मानव का विकास होता है तो इतिहास का भी विकास होता है. जैसे अब इतिहास में महिलाओं के आंदोलन या उनपर हुए जुल्मों को देखना शुरू किया गया है. जाति के नजरिए से भी इतिहास को देखा जाने लगा है. पहले मुसलिम दुनिया को पिछड़ा माना जाता था, लेकिन इतिहास के विकास के साथ यह सिद्ध होता जा रहा है कि मुसलिम दुनिया भी पीछे नहीं थी. मैंने 'द एग्रेरियन सिस्टम ऑफ मुगल इंडिया’ में महिलाओं के बारे में नहीं लिखा है. लेकिन अब अगर वह किताब लिखूंगा तो यह मुमकिन नहीं कि उनके श्रम और उनकी गतिविधियों के बारे न लिखूं. महिलाएं तब भी मेहनत करती थीं, लेकिन आज की तरह ही उनकी मेहनत का भुगतान तब भी नहीं होता था. उनकी आय मर्दों में शामिल हो जाती थी. ये हालात आज भी हैं. यह ठीक है कि मुझे इन सबके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, लेकिन मुझे इनपर कहना चाहिए था. जन इतिहास में इन सब पर विस्तार से लिखा जा रहा है. ये सारी बातें और तथ्य वर्तमान के आंदोलनों से उभरकर सामने आ रहे हैं. इस तरह हम यह भी देख रहे हैं कि इतिहास पर वर्तमान का बहुत असर होता है.

आपने हाशिए के समुदायों के इतिहासकारों (सबऑल्टर्न इतिहासकारों) को  ‘त्रासदियों के प्रसन्न इतिहासकार’  (हैपी हिस्टोरियन)  कहा है. सबऑल्टर्न इतिहासकारों के काम करने का तरीका क्या है? वे इतिहास पर किस तरह का प्रभाव डाल रहे हैं?

वे मुझे कभी प्रभावित नहीं कर पाए. सबऑल्टर्न इतिहासकारों के यहां वर्ग नहीं हैं, औपनिवेशिक शासक, भारतीय शासक वर्ग और उत्पीड़ित किसान-मजदूर नहीं हैं. उनके यहां सिर्फ औपनिवेशिक अभिजात (एलीट) हैं, जिनके खिलाफ भारतीय अभिजात खड़े हैं.
जब हम इतिहास और समाज को इस तरह देखने लगते हैं तो जनता का पूरा उत्पीड़न गायब हो जाता है, उद्योगों की बरबादी और उनकी संभावनाओं को जिस तरह तबाह किया गया वह गायब हो जाता है. बस बचते हैं तो अंग्रेेज- जो अत्याचार कर रहे हैं और गरीब किसान और जमींदार जो अंग्रेजों के जुल्म के मारे हुए हैं. लेकिन इसमें उस गरीब किसान और जमींदार के बीच के अंतर्विरोध को नहीं देखा जाता. इसीलिए मैं कहता हूं कि वे (सबऑल्टर्न इतिहासकार) इतिहास को वल्गराइज कर रहे.