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‘सरकारें चाहती हैं कि संसाधनों पर जनता का कोई नियंत्रण न रहे’- मेधा पाटकर

सरदार सरोवर बांध का डूब क्षेत्र 214 किलोमीटर का है. इस परियोजना से लाखों लोग प्रभावित हो रहे हैं. इससे विस्थापित होने वालों में 50 प्रतिशत आदिवासी और 20 प्रतिशत से ज्यादा लोग गरीब और वंचित समुदायों के हैं. नर्मदा बचाओ आंदोलन की शुरुआत जनशक्ति के आधार पर हुई है. अब तक जो हासिल हुआ वह लंबे मैदानी संघर्ष और कानूनी लड़ाइयों की वजह से संभव हुआ है. इस आंदोलन ने व्यापक रूप से यह सवाल उठाया कि कैसे लोगों के नजरिये से विकास का नियोजन होना चाहिए. गुजरात और मध्य प्रदेश में अब तक लगभग 11 हजार प्रभावित परिवारों को जमीन के बदले जमीन मिली है. मध्य प्रदेश में जो 88 बसाहटें निकाली गई हैं, वह आंदोलन की वजह से ही संभव हो सका है. सरकार को वयस्क बेटों को भी जमीन देनी पड़ी. इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने 5 एकड़ जमीन अलग से मंजूर की है. परियोजना की खामियों की वजह से विश्व बैंक ने भी इसे जारी किया गया ऋण वापस ले लिया.

तीनों राज्यों (मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र) को अपनी पुनर्वास नीतियों में नए प्रावधान लाने पड़े. महाराष्ट्र में कोर्ट ने यह तक कहा कि विकासशील पुनर्वास होना चाहिए और विस्थापितों को भी विकास में हिस्सा मिलना चाहिए. मुझे याद है कि जब प्रशासन के साथ पहली मीटिंग हुई थी तब तीनों राज्यों के अधिकारी और हमारे 300 लोग थे. अधिकारियों का कहना था कि परियोजना से क्या लाभ-हानि और पर्यावरण को कैसा नुकसान हो रहा है, इससे आपको क्या लेना-देना? आप तो विस्थापित लोगों को अपनी बात करने दीजिए. वर्ष 2000 में नर्मदा के मामले में कोर्ट का फैसला आया कि पुनर्वास नीति छोटी रकम आधारित नहीं हो सकती. इसे देश में सबसे ज्यादा उपयोग किए जाने के फैसले के रूप में माना जाता है. इस दौरान नर्मदा बचाओ आंदोलन के जो अनुभव रहे हैं उससे दूसरे आंदोलनों और संगठनों को भी सीख मिली है.

पुनर्वास कार्यों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार

पुनर्वास और निर्माण कार्यों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार देखने को मिल रहा है. हमारी नजर में ऐसे अनगिनत मामले हैं जिसमें अपात्रों को पैसा लेकर सुपात्र बना दिया गया है. घर-प्लॉट वितरण में बहुत धांधली हो रही है. यहां तक कि कई अधिकारियों के परिवारवालों व रिश्तेदारों को भी प्लॉट मिला है. ऐसे अधिकारी भी हैं जो तीस सालों से वहीं पोस्टेड हैं.

2002 से ही हम इन सब मामलों की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई है. योजना ही ऐसी बनाई गई है कि दलालों के बिना काम नहीं होता. निर्माण कार्यों में हुए भ्रष्टाचार की जांच आईआईटी मुंबई और मैनिट भोपाल ने की है, जिसकी रिपोर्ट अभी सावर्जनिक नहीं की गई, हालांकि इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को उजागर किया गया है.

जो व्यापमं में है वही इस परियोजना में भी

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह तो बातचीत के ही पक्ष में ही नहीं हैं. दिल्ली में 26 दिन के उपवास के बाद जब हम मुख्यमंत्री के सामने भ्रष्टाचार के मुद्दे रखने के लिए भोपाल में रुके तो वे हमसे नहीं मिले. मध्य प्रदेश में इस परियोजना से 193 गांव प्रभावित हैं. हर गांव में 800 से 1000 परिवार हैं. पीड़ितों के पक्ष में कई सारे कानून और फैसले होने के बावजूद उन्हें अमल में नहीं लाया गया. उल्टा मध्य प्रदेश सरकार ने यह भूमिका अपना ली कि लोग गुजरात चले जाएं क्योंकि ट्रिब्यूनल ने यह फैसला दिया था कि अगर लोग गुजरात जाएंगे तो उन्हें जमीन दी जाएगी. बाद में ट्रिब्यूनल ने कहा कि पीड़ितों को जमीन उनके ही राज्य में देनी है. इसके बाद जहां महाराष्ट्र ने 11 बसाहटें बसाई और 3.5 हजार परिवारों को जमीन दी गई, वहीं मध्य प्रदेश सरकार ने मात्र 30 परिवारों को ही जमीन दी.

ऐसा लगता है कि मध्य प्रदेश सरकार भ्रष्टाचारियों को समर्थन दे रही है, क्योंकि जो एफआईआर दाखिल है उस पर भी कार्रवाई नहीं की जा रही है, जो व्यापमं घोटाले में हुआ कुछ ऐसा ही वही नर्मदा पुनर्वास योजना में भी हो रहा है. सरदार सरोवर बांध के लिए भू-अर्जित जमीनों पर नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण द्वारा गुजरात की हकदारी है. इसके बावजूद भी मध्य प्रदेश के खनिज विभाग की ओर से उन जमीनों को रेत खनन के लिए लीज पर दे दिया गया था. हम मामले को उच्च न्यायालय ले गए, कोर्ट ने इसे अधिकारों का दुरुपयोग माना. खनन पर स्टे भी मिल गया लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ. फिर जब हमने अवमानना का केस दर्ज किया तब जाकर खनन रुका है. इस मामले में न्यायालय ने शासन से साफ शब्दों कहा है, ‘सरदार सरोवर के लिए इतने सारे लोगों को विस्थापित करने के बाद, बांध को भी खत्म करेंगे क्या?' और स्पष्ट कहा, ‘शासन या तो बांध बनाए या रेत खनन करे, दोनों संभव नहीं'.

जनशक्ति पर हावी राज्य

सरकारें चाहती हैं कि संसाधनों पर स्थानीय निकायों और जनता का कोई नियंत्रण न रहे. यह जनतंत्र और संविधान के खिलाफ है. तभी तो कई कानूनी नीतियां और ट्रिब्यूनल के फैसले हैं, जो कहते हैं कि जब तक पुनर्वास न हो जाए किसी भी स्थिति में लोगों की संपत्ति डुबोई नहीं जा सकती है. इसके बावजूद इन पर अमल नहीं किया जा रहा. उल्टा इसमें अड़ंगा डाला जाता है. नर्मदा के मामले में विभिन्न आयोगों और अधिकारियों ने जांच में कभी भी पूरा सहयोग नहीं दिया. मोदी सरकार ने आते ही पहला निर्णय बांध की ऊंचाई बढ़ाने को लेकर दिया है. अभी भूमि अधिग्रहण कानून आ गया है. इन सब को देखकर लग रहा है कि जनशक्ति पर राज्य हावी हो गया है. इधर जो सबसे बड़ी चुनौती आई है वह यह है कि सरकार का ही कॉरपोरेटीकरण हो गया है.

जन आंदोलनों की अलग राजनीति

हम दलीय राजनीति को अछूत नहीं मानते हैं. जन आंदोलनों की राजनीति के आयाम ही अलग होते हैं. इनके मार्ग साधन और पद्धति दूसरे होते हैं. अब तो चुनावी प्रक्रिया का भी कॉरपोरेटीकरण हो गया है, फिर भी चुनावी राजनीति में अगर सुधार होते हैं तो दलीय राजनीति में आया जा सकता है, लेकिन अभी ऐसा होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है. इतने सालों से जो देखा है और अभी के जो अनुभव रहे हैं उससे हमारी समझ बनी है कि दलीय राजनीति से अलग रहना चाहिए. हमारा काम विकेंद्रीकृत है. कोई भी कार्यकर्ता समूह अपने हिसाब से निर्णय ले सकता है. हमने सरदार सरोवर के क्षेत्र में यही तय किया है कि नर्मदा बचाओ आंदोलन किसी पार्टी का हिस्सा नहीं है.

‘आप' से जुड़ने का कोई पछतावा नहीं

आम आदमी पार्टी से जुड़ने का एक विशेष अनुभव रहा है, लेकिन इसे लेकर हमें कोई पछतावा नहीं है. हमने अपनी नैतिकता बचाकर रखी है. इस दौरान हमारे चुनाव राजनीति की व्यवस्था और प्रचार को लेकर जो भी अनुभव रहे हैं वे चुनाव पद्धति को लेकर आज तक के हमारे विश्लेषण के अनुसार ही थे. इससे यह बात पुख्ता हो गई कि चुनावी राजनीति की रणनीति बहुत अलग होती है जिसमें जन आंदोलनों के साथियों का सामंजस्य बैठा पाना मुश्किल होता है. जिस तरह से चुनाव में प्रचार और खर्चे करने पड़ते हैं, वह सब हमें नहीं आता है. हमारी पद्धति और चुनावी राजनीति की प्रक्रिया और जरूरतें अलग है. बहुत सी विसंगतियां हैं. पार्टियों के साथ जो जनशक्ति व जनसैलाब खड़े होते हैं वे टिकाऊ नहीं होते. इसे टिकाऊ बनाने के लिए राजनीतिक दलों के अंदर जो प्रकिया होनी चाहिए वह हो नहीं पाती है, क्योंकि एक चुनाव के बाद दूसरे चुनाव पर ध्यान देना होता है. पार्टी के नेतृत्व का ध्यान भी उन रणनीतियों की तरफ होता है जो सत्ता हासिल करने और उसे टिकाये रखने के काम आती है. मैं इसे पूरी तरह गलत भी नहीं मानती हूं, लेकिन कुछ बुनियादी सिद्धांत भी होने चाहिए, बस यही सब अनुभव रहे हैं. लोहिया जी कहा करते थे कि राजनीति में जेल, फावड़ा और मतदान पेटी तीनों होने चाहिए. पहले की राजनीति में यह संभव था. समाजवादी विचारधारा के कई ऐसे लोग हुए है जिन्होंने सामाजिक कार्य, संघर्ष और निर्माण को आगे बढ़ाते हुए चुनावी राजनीति में हिस्सा लिया, लेकिन वर्तमान में यह संभव नहीं है. अब राजनीति के मानक अलग हो गए हैं जो इस दौरान स्पष्ट रूप से दिखाई दिए. अगर जनशक्ति का आधार लेकर सत्ता में आए हैं तो सत्ता में आने के बाद भी उसका आधार खत्म नहीं होना चाहिए.

अभी खत्म नहीं हुआ आंदोलन

अब तक जो कुछ भी मिला है आंदोलन की वजह से मिला है, लेकिन अभी आंदोलन खत्म नहीं हो सकता, लोग लड़ रहे हैं. अभी बांध के पानी का स्तर बड़ा मुद्दा है. ‘न्यू बैक वाटर लेवल' की वजह से पानी का स्तर कम बताया जा रहा है, जो कि एक धोखा है. अचानक तीस साल बाद एक सब-कमेटी बनाई गई. उसने फील्ड पर न जाकर सारी जानकारी दस्तावेजों से ली है और ‘माडल' बदल कर ‘बैक वाटर लेवल' कम किया है. इसी के आधार पर सरकार कह रही है कि ऊंचाई बढ़ाने से एक भी इंच ज्यादा जमीन नहीं डूबेगी. लेकिन अभी सरकार ने ही जो ‘न्यू बैक वाटर लेवल' बताया था उससे भी पानी पार हो गया है. सरकार ने खुद सुप्रीम कोर्ट में जानकारी दी है कि इससे लगभग 16 हजार परिवारों को वहां से हटाया गया है. सुप्रीम कोर्ट में हमारी याचिका पर बीते एक अगस्त (शनिवार) को विशेष सुनवाई हुई है. ऐसा शायद पहली बार हुआ कि शनिवार के दिन कोर्ट खुला रखा गया. आधे दिन सुनवाई हुई मगर यह बांध की ऊंचाई पर केंद्रित नहीं रही. हमें उम्मीद थी कोर्ट से हमें राहत मिलेगी और पानी का स्तर कम किया जा सकेगा, लेकिन कानूनी प्रक्रिया में भी विरोधाभास है. केवल कोर्ट के जरिये हम लोगों को पूरा न्याय मिलेगा यह मानकर नहीं चल सकते हैं. यहां तो जीने-मरने का सवाल है. बड़वानी में सत्याग्रह शुरू हो गया है और यह संघर्ष आगे भी जारी रहेगा.

(जावेद अनीस से हुई बातचीत पर आधारित)

साभारृृ तहलका(हिन्दी)