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‘हिंसा-अहिंसा की बहस अब बेमानी हो गई है’

अपनी नई डॉक्युमेंटरी फिल्म में फिल्मकार संजय काक भारत के भीतरी राज्यों छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पंजाब के सफर पर ले चलते हैं, जहां क्रांति का सपना पल रहा है. अंग्रेजी में ‘रेड ऐंट ड्रीम’ और हिंदी में ‘माटी के लाल’ नाम से बनी यह फिल्म उन संघर्षों को पेश करती है जिनसे भारत में क्रांति की संभावनाएं जुड़ी हुई हैं. इसमें बस्तर में भारतीय राज्य के विरुद्ध संघर्षरत हथियारबंद आदिवासी, उड़ीसा में विस्थापन के खिलाफ संघर्षरत आदिवासी और पंजाब के मजदूर व किसान भी शामिल हैं. फिल्म के बारे में संजय काक से रेयाज उल हक की बातचीत.
 
2007 में जब हम आपकी फिल्म  ‘जश्ने आजादी’  पर बात कर रहे थे, तो आप बार-बार कह रहे थे कि जो कश्मीर में 60 बरसों से होता आ रहा है वह मध्य भारत में दोहराए जाने की तैयारी चल रही है. तब सलवा जुडूम की भयावहता खुल कर सामने नहीं आई थी और ऑपरेशन ग्रीन हंट दूर था. अगली ही फिल्म में आपकी बातों की पुष्टि हो गई. तो आखिर यह फिल्म आपके मन में कब से बन रही थी?

 सन 1999-2001 में जब मैं नर्मदा घाटी में फिल्म बना रहा था, तब बहुत साफ संकेत मिल रहे थे. खासकर 2001 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देखें तो बहुत साफ संकेत मिल रहे थे कि हमारा जो सिस्टम है वो गियर बदलने वाला है. यह बदलाव सिर्फ नर्मदा बचाओ आंदोलन को कुचलने के लिए ही नहीं था. 2001 में उदारीकरण के दस साल हो चुके थे. तो इस सिस्टम को अगर कुछ नतीजे दिखाने हैं तो उसे कुछ नई तरकीबें अपनानी होंगी. नर्मदा घाटी में जिस तरह का जनांदोलन था, उसको काबू करने में उस तरह का हथियारबंद अभियान उसे नहीं छेड़ना पड़ा. लेकिन अगले कुछ वर्षों में जब हम कश्मीर में जश्ने आजादी बनाने लगे तो हमने देखा कि तैयारी कितनी विशाल और भयावह है. हमने देखा कि कश्मीर में जो हो रहा है, उसकी ट्रेनिंग नागालैंड और मणिपुर में हो रही है. हमने देखा कि सरकारी मशीनरी कश्मीर में किस तरह लोगों को रौंद रही है. देखिए, जब एक बार मशीन तैयार हो जाती है तो वह कहीं न कहीं काम में आनी ही है. छह साल पहले जब हमारी बात हुई थी, तभी हम समझ चुके थे कि यह मशीन कितनी विशाल और खतरनाक है और इसका इस्तेमाल हर जगह होगा. हालांकि तब फिल्म दिमाग में नहीं थी, लेकिन इस मशीन के बारे में एक समझ बन चुकी थी.

आपने यह फैसला कब लिया कि अब यह फिल्म शुरू कर देनी है?
कभी-कभी तो ऐसा होता है कि आप फैसला कर लेते हैं कि इस चीज पर फिल्म बनाई जाएगी. जैसा कि 2003 के 15 अगस्त को मैं कश्मीर में था और लाल चौक पर घूमता हुआ चला गया. वहां मैंने देखा कि लाल चौक के सन्नाटे में झंडा फहराया जा रहा है और 300 सैनिक और नगर के पांच निवासी उसे देख रहे हैं और पूरे नगर में भारी सन्नाटा है. तो मेरे लिए वह फिल्म की शुरुआत थी कि यह इमेज जो है उस पर फिल्म बन सकती है. ‘माटी के लाल’ की शुरुआत अगरचे ऐसी नहीं हुई. बस्तर में क्या हो रहा था या उड़ीसा में क्या हो रहा था, उसे जानने के लिए पिछले चार-पांच बरसों में जब भी मौका मिला वहां जाने की कोशिश की. इसी बीच 2010 में बस्तर में 17-18 दिन रहने का मौका मिला. बस्तर में ये 17-18 दिन बिताना इस फिल्म के लिए शुरुआत थी. लेकिन तब भी मुझे लग रहा था कि यह फिल्म सिर्फ बस्तर पर न हो और न ही वाॅकिंग विथ द कॉमरेड्स का विजुअल भर हो. फिल्म तो इस किताब पर बहुत खूबसूरत बन सकती थी. लेकिन मैंने जब भी कोई फिल्म बनाई है तो पहले मैं इस पर जरूर गौर करता हूं कि मैं फिल्म के जरिए किस तरह की बहस छेड़ना या शुरू करवाना चाहता हूं. जब यह मालूम हो गया कि हमें बस्तर जाने का मौका मिल रहा है, तब फिल्म के बारे में सोचने लगे. हालांकि तब भी यह साफ नहीं था कि फिल्म क्या कह पाएगी. लेकिन इतना साफ था कि बस्तर में जो कुछ हो रहा है, उसको एक क्रांतिकारी आंदोलन समझते हुए एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना है. 2008-09 में खासकर मीडिया में इस आंदोलन का जो चित्र आ रहा था वो यह था कि यह अचानक से, अपने आप सामने आ गया है. इसका कोई इतिहास नहीं है. इसका देश की क्रांतिकारी संभावनाओं से कोई तालमेल नहीं है. यह छवि मीडिया बना रहा था. तो मुझे ऐसा लगा कि ऐसी फिल्म बनाने की जरूरत है, बस्तर में जो हो रहा है उसे एक क्रांतिकारी आंदोलन के बतौर पेश किया जाए. उसे महज एक हथियारबंद उभार के रूप में सीमित करके नहीं देखा जाए. हमने इसे भारत की क्रांतिकारी संभावनाओं का दस्तावेज बनाने की कोशिश की. फिल्म के जरिए हमने दर्शकों को उकसाने की कोशिश की. लोग बहुत सुकून महसूस करने लगते हैं हालात के साथ कि ऐसी बातें तो बस्तर में ही हो सकती हैं. कि सिर्फ उड़ीसा में ही हो सकती हैं. भला और कहां हो सकती हैं. तो हमने उन्हें बेचैन करने की कोशिश की.

हिंसा और अहिंसा संघर्ष के दौरान, प्रतिरोध के दौरान रणनितिक मुद्दे हैं और वो प्रतिरोध की जरुरत के मुताबिक अपनाए और छोड़े जाते हैं

इस फिल्म का राजनीतिक मकसद क्या है?
मैं मानता हूं कि फिल्म चाहे राजनीतिक हो या नहीं, फिल्म का अपना एक अलग असर होता है, जिसको आप पूरी तरह से नियंत्रित नहीं कर सकते. जो इमेज है, साउंड है, उसको आप बहुत बारीकी से चुन कर जोड़ सकते हैं, लेकिन जो देखने वाले हैं वो फिल्म को बहुत जल्दी उधेड़ भी सकते हैं. अपनी पिछली दो-तीन फिल्मों में, जश्ने आजादी में और इस फिल्म में कोशिश रही है कि हम एक दलील दर्शकों के सामने रखें और उनको न्योता दें कि आइए, इसको उधेड़िए. इससे फिल्म की दलील कमजोर नहीं होगी, बल्कि वह दर्शक की अपनी दलील बन जाएगी. तो इन फिल्मों के फॉर्म का सीधे-सीधे कोई मकसद नहीं है, लेकिन ऐसा नहीं है कि उसमें कोई संदेश नहीं है. उसमें एक बहुत साफ नजरिया है, बहस है, दलीलें हैं और उस दलील में एक विवेक भी होगा, जैसा कि होता है. क्योंकि मेरा ये मानना है कि अगर दलील बहुत सीधी-सीधी हो तो वह प्रोपेगेंडा हो जाएगी. लेकिन अगर आप बहुत कस कर दलील देते हैं तो दर्शक पूरी की पूरी फिल्म और आपकी दलील को खारिज भी कर सकते हैं. लेकिन एक अलग तरीका है, खासकर फिल्म के डॉक्युमेंट्री एसे फॉर्म में. इसमें आप लोगों के सामने दलील इस तरह से पेश करते हैं कि वह बहुत खुली हुई होती है. चूंकि उसका फॉर्मेट बहुत खुला हुआ है, तो लोगों के लिए उसको खारिज करना बहुत मुश्किल होता है. जश्ने आजादी की आलोचना हुई है और होनी चाहिए, लेकिन इसी फॉर्मेट की वजह से उसको कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता. तो हमारी कोशिश ऐसी ही फिल्म बनाने की है. पंजाब में हम इसकी स्क्रीनिंग के दौरान कह रहे थे कि मैं यह नहीं चाहता कि लोग कहें कि फिल्म बहुत अच्छी लगी या कि फिल्म बहुत ही खराब लगी. मेरा मकसद यह नहीं है. मैं लोगों से बहस करना चाहता हूं, लोग हमसे सवाल करें. इससे ज्यादा हम कर भी नहीं सकते.

फिल्म के शुरू में ही भगत सिंह का उद्धरण आता है कि एक युद्ध चल रहा है और यह युद्ध जारी रहेगा. भगत सिंह की एक बहुत मशहूर बहस है गांधी से संघर्ष के साधनों और तौर-तरीकों को लेकर. क्या यह बहस अब प्रासंगिक रह गई है? लोगों की तरफ से हिंसा और अहिंसा को लेकर किस तरह के सवाल आए आपके सामने?
हिंसा-अहिंसा की बहस अब बेमानी हो गई है. यह हमारी फिल्म की खासियत नहीं है. मुझे लगता है कि खासकर बस्तर में जो हो रहा है, यह उसकी देन है. और कुछ पब्लिक डिस्कोर्स का भी इसमें योगदान है. कश्मीर में कभी हिंसा-अहिंसा वाली बात नहीं रही. उसके तार आतंकवाद-पाकिस्तान से जोड़ दिए गए, जिसकी वजह से कश्मीर के आंदोलन को आसानी से खारिज कर दिया जाता रहा. यह दूसरी बात है कि जब 2007 में फिल्म आई तो इलाके में पाकिस्तान का उतना दखल नहीं रहा, लेकिन फिर भी उसका संबंध जोड़ा जाता रहा.

बस्तर में सरकार और मीडिया ने बहुत कोशिश की थी ऑपरेशन ग्रीन हंट के समय इस बहस को उठाने की. चाहे हम जितनी आलोचना करते हैं सिविल सोसाइटी की, लेकिन उसका जो एक प्रतिरोध रहा ग्रीन हंट के खिलाफ, उसने अपना भी असर दिखाया. महेंद्र कर्मा की मौत के बाद सरकार और मीडिया ने हिस्टीरिया बनाने की कोशिश की लेकिन हो नहीं पाया. आप सोचिए कि तीन साल पहले अगर ये हुआ रहता तो क्या होता. लोग भी समझ रहे हैं कि यह मुद्दा हिंसा-अहिंसा का नहीं है. इसकी जो पूरी बहस है वह बहुत सालों तक गांधीवाद के बोझ के नीचे दबी हुई थी. मैंने यह फिल्म दो ऐसे जाने-माने लोगों को दिखाई जिनको गांधीवादी प्रतिरोध के प्रतीकों के बतौर देखा जा सकता है. उनमें से एक ने फिल्म देखने के बाद इस पर खुशी जाहिर की कि यह फिल्म हिंसा-अहिंसा की पूरी बहस का समापन कर देती है और अब हिंसा बनाम अहिंसा की बहस के लिए कोई जगह नहीं छोड़ती. दूसरे व्यक्ति फिल्म देख कर इस पर काफी बेचैन हुए कि इसमें हिंसा को ऐसे अकाट्य (कंपेलिंग) तरीके से दिखाया गया है. लेकिन उन्होंने इस पर मुझसे कोई बहस नहीं की. इसके अलावा भी अब तक करीब दो दर्जन जगहों पर यह फिल्म दिखाई जा चुकी है लेकिन दर्शकों की तरफ से मुझे हिंसा-अहिंसा संबंधी कोई सवाल नहीं मिला. लोग मानने लगे हैं कि हिंसा और अहिंसा संघर्ष के दौरान, प्रतिरोध के दौरान रणनीतिक मुद्दे हैं और वो प्रतिरोध की जरूरत के मुताबिक अपनाए और छोड़े जाते हैं. संघर्ष और प्रतिरोध से अलग एक बहस के रूप में इनकी कोई अहमियत नहीं होती.