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Resource centre on India's rural distress
 
 

एमएसपी बढ़े तो किसान की आमदनी भी बढ़े, कोई जरुरी तो नहीं !

समर्थन मूल्य के बढ़ने पर क्या इस बात की गारंटी हो जाती है कि किसान को ऊपज का लाभकर मूल्य ही जायेगा ? और, क्या न्यूनतम समर्थन मूल्य के बढ़वार का खाद्य-वस्तुओं की महंगाई से कोई सीधा रिश्ता है, जैसा कि अर्थशास्त्रियों का एक तबका अक्सर तर्क देता है ?

 

अगर आप सोच रहे हैं कि हां, ऐसा हो सकता है तो फिर नीचे लिखे तथ्यों को गौर से पढ़िये- हो सकता है, आपको झटका लगे !

 

ऊपर के सवाल का जवाब जानने के लिए इन्क्लूसिव मीडिया फॉर चेंज की चौदह फसलों के समर्थन मूल्य के इजाफे को उनके थोक मूल्य सूचकांक की बढ़ोत्तरी बरक्स रखकर कुछ गुणा भाग करने की कोशिश की. खरीफ की इन फसलों के नाम हैं : धान, ज्वार, बाजरा, रागी, मकई, अरहर, मूंग, उड़द, कपास, मूंगफली, सोयाबीन, सफेद तिल और कराली यानि रामतिल.

 

जो जवाब निकलकर सामने आया- उससे शायद आपको हैरानी हो. तीन साल की अवधि (2016-17 से 2018-19) में इन खऱीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की औसत सालाना वृद्धि-दर थोक मूल्य सूचकांक(डब्ल्यूपीआई) की औसत वार्षिक वृद्धि दर से ज्यादा रही है.

 

(आप हमारी वेबसाइट के अंग्रेजी संस्करण पर पोस्ट किए गए एक चार्ट के सहारे खुद इसकी परीक्षा कर सकते हैं)

 

जैसा कि तालिका-1 से जाहिर होता है, विश्लेषण के लिए चुने गये सभी चौदह फसलों के लिए ऊपर का निष्कर्ष समान रुप से लागू होता है. मिसाल के लिए, रागी को ही लें. साल 2016-17 से 2018-19 के बीच रागी के न्यूनतम समर्थन मूल्य में औसत सालाना वृद्धि दर 22.39 प्रतिशत रही. लेकिन इन तीन सालों में रागी की मुद्रास्फीति में थोक मूल्य सूचकांक के एतबार से औसत सालाना बढवार 10.52 प्रतिशत की रही.

 

विश्लेषण से पता चलता है कि तीन सालों (2016-17 से 2018-19) में ज्यादातर खरीफ फसलों के मामले में थोक मूल्य सूचकांक की औसत सालाना वृद्धि दर ऋणात्मक रही है. मिसाल के लिए मक्का(-0.23 फीसद), अरहर(-15.12 फीसद), मूंग(-10.61 प्रतिशत), उड़द(-12.92), मूंगफली(-3.09 प्रतिशत), सोयाबीन(-0.03 प्रतिशत), सूरजमुखी बीज(-1.63 प्रतिशत) तथा रामतिल(12.81 प्रतिशत).

 

चूंकि ऊपर गिनाये गये कुल 13 फसलों (धान को शामिल नहीं किया गया है) का हिस्सा सरकारी खरीद में बहुत कम होता है सो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पिछले तीन सालों में इन फसलों की पैदावार की महंगाई दर (डब्ल्यूपीआई पर आधारित) न्यूनतम समर्थन मूल्य के इजाफे पर खास असर नहीं हुआ है.

 

इन्क्लूसिव मीडिया फॉर चेंज टीम का यह विश्लेषण इस मान्यता पर आधारित है कि ज्यादातर किसान खरीफ फसलों की थोक बिक्री सीधे मंडी में करते हैं. इस बिक्री से किसानों को क्या मूल्य हासिल होता है इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है, सो इन्क्लूसिव मीडिया ने डब्ल्यूपीआई (आधार 2011-12=100) को अपने विश्लेषण में बुनियादी बनाया है. मुमकिन है, थोक मूल्य का कुछ हिस्सा ही किसानों को हासिल होता हो, जैसा कि कुछ अर्थशास्त्रियों ने कहा भी है.

 

खुदरा वस्तुओं की महंगाई

 

किसान फसलों के उत्पादक ही नहीं बल्कि उपभोक्ता भी होते हैं. अगर आप इन्क्लूसिव मीडिया फॉर चेंज के अंग्रेजी संस्करण के न्यूज एलर्ट की तालिका-1 पर गौर करें तो पता चलेगा अन्यान्य(मिसलेनियस) वर्ग में दर्ज वस्तुओं का उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की वृद्धि दर उपभोक्ता खाद्य-वस्तु मूल्य सूचकांक(सीएफपीआई) की वृद्धि दर से ज्यादा है.

 

तालिका के ‘अन्यान्य' वर्ग में घरेलू सेवा और सामान को भी रखा गया है जिसमें स्वास्थ्य, परिवहन तथा संचार, मनोरंजन, शिक्षा तथा निजी देखभाल आदि शामिल है.अन्यान्य वर्ग में शामिल ज्यादातर सेवाओं (जैसे कि शिक्षा और चिकित्सा) की महंगाई दर(उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के एतबार से) निजीकरण के कारण ग्रामीण इलाकों में अपेक्षाकृत ज्यादा है. सो, फसल का लाभकर मूल्य देने के लिए बाकी उपायों के साथ यह भी जरुरी है कि शिक्षा-चिकित्सा सरीखी सेवाओं की बढ़ती लागत का भी ध्यान रखा जाय.