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पशुधन का कुपोषण से क्या रिश्ता है ?

हम जानते हैं कि कुपोषण का बोझ देश के जमीर और जेब दोनों पर भारी है।हम यह भी जानते हैं कि बाल-कुपोषण से छुटकारा पाना बड़े साहस और धैर्य की मांग करता है। लेकिन कुपोषण से छुटकारा पाने की स्थिति में जो आर्थिक फायदे होंगे- क्या हमें उन फायदों के बारे में पता है? एफएओ की एक नई रिपोर्ट के मुताबिक भारत बाल-कुपोषण को खत्म करके अपनी आय में 28 अरब अमेरिकी डॉलर का इजाफा कर सकता है।यह बड़े आर्थिक फायदे की बात है इसलिए नीचे लिखी बातों को आगे भी पढ़ना जारी रखें!

यह बात ठीक है कि भारत मवेशियों की तादाद और दूध के उत्पादन के मामले में दुनिया में शीर्ष पर है लेकिन  जन्तु-प्रोटीन मसलन दूध,अंडा या मांस का उपभोग-स्तर यहां बहुत नीचे है  (http://agropedia.iitk.ac.in/?q=content/livestock-sector-india).समाज के अपेक्षाकृत गरीब तबकों में जंतु-प्रोटीन का उपभोग-स्तर विशेष रुप से नीचे है, यही तबका कुपोषण से भी पीड़ित है।और, यह स्थिति तब है जब भारत के मवेशी-बाजार का 67 फीसदी हिस्सा छोटे,सीमांत या भूमिहीन किसानों के हाथ में है।भारत में बाल-कुपोषण की दर दुनिया के अधिकतम में से एक है,और यूनिसेफ के अनुसार दुनिया के हर तीन कुपोषित बच्चे में से एक भारत में रहता है।

एफएओ की नवीनतम रिपोर्ट वर्ल्ड लाइवस्टॉक 2011: लाइवस्टॉक इन फूड सिक्
ूरिटी
में पोषण और खाद्य-सुरक्षा के लिहाज से भारत के संदर्भ में कई महत्वपूर्ण बातें उजागर होती हैं। रिपोर्ट के तथ्यों से पता चलता है कि यदि ठीक-ठीक परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो बाल-कुपोषण को खत्म करने का फायदा(28 अरब अमेरिकी डॉलर) सेहत, पोषण और शिक्षा पर सरकार द्वारा कुल मिलाकर किए जा रहे खर्चे से कहीं ज्यादा है।

एफएओ की रिपोर्ट में उल्लेख है कि तीन अलग-अलग समाजों- पशुधन आधारित समाज, सीमांत तबके के मिश्रित किसान और शहरी समाज की खाद्य-सुरक्षा में पशुधन किस तरह योगदान करता है। रिपोर्ट में वैश्विक तस्वीर पेश करते हुए मानवीय पोषण, वैश्विक खाद्य-आपूर्ति और गरीब परिवारों की आहार सुरक्षा के लिहाज से पशुधन की भूमिका की पड़ताल की गई है।

वर्ल्ड लाइवस्टॉक 2011 नामक रिपोर्ट मानवीय पोषण के लिहाज से पशुधन के महत्व का वर्णन करता है। मांस, दूध और अंडे तथा गोबर युक्त खाद्य के उत्पादन के कारण पशुधन का विश्व खाद्य-आपूर्ति से सीधा रिश्ता है। गरीब जनों के लिए पारिवारिक और व्यक्तिगत स्तर पर भी आहार और आमदनी के लिहाज से पशुधन की एक निर्णायक भूमिका है।तंगी की हालत में माल-मवेशी आर्थिक और सामाजिक स्तर पर गरीब परिवारों के लिए बड़ा सहारा साबित होते हैं।

बहुमूल्य योगदान के बावजूद ज्यादातर देशों में गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों में पशुधन की बढ़वार पर अपेक्षाकृत कम जोर दिया गया है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि मांस, दूध और अंडे से हासिल होने वाला प्रोटीन मनुष्य की जैविक जरुरतों से मेल खाने वाले कई किस्म के एमीनो एसिड से संपन्न होता है, साथ ही इससे जैविक रुप से मौजूद सूक्ष्म पोषक तत्व मसलन आयरन, जिंक, विटामिन ए, विटामिन बी 12 और कैल्शियम की प्राप्ति होती है। बहुत से लोग इन सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी के शिकार हैं। यह तथ्य अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि तकरीबन 92 करोड़ 50 लाख लोग विश्वस्तर पर 2010 में भोजन की कमी का एक ना एक रुप में शिकार थे जबकि 2 अरब लोगों के बारे में अनुमान है कि वे कुपोषित हैं। यह बात भी सच है कि मांस और संश्लिष्ट वसा के ज्यादा इस्तेमाल से हृदय रोगों, मधुमेह और कुछ तरह के कैंसर के होने की आशंका बढ़ती है। अनुमान है कि भारत में मोटापा जनित रोगों के कारण साल 2006 में जीडीपी का 1.1 फीसदी हिस्से का घाटा हुआ।

वर्ल्ड लाइवस्टॉक 2011 में कहा गया है कि युगांडा, भारत और पेरु की तुलना पर आधारित एक अध्ययन(Maltsologu, 2007) में पाया गया कि अमीर परिवारों की तुलना में गरीब परिवार मात्रा और मूल्यवत्ता के हिसाब से जंतुजनित प्रोटीन का कहीं कम उपभोग करते हैं।ऐसे परिवार अपने खाद्य-बजट का 10 फीसदी से भी कम हिस्सा जंतु-जनित आहार की खरीद और पारिवारिक उपभोग पर खर्च करते हैं। क्रयक्षमता के लिहाज से जंतुजनित आहार का हासिल होना एक बड़ी चुनौती है।

रिपोर्ट में भारत के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख किया गया है। तेजी से बढ़ती हुई तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं चीन, ब्राजील और भारत में पॉलट्री उद्योग तीव्रता से बढ़ा है। चीन में सालाना 7 करोड़ टन अंडे का उत्पादन होता है जबकि भारत में 30 लाख टन और ब्राजील में 20 लाख टन।चीन में 1  करोड़ 50 लाख टन मांस का उत्पादन होता है जबकि ब्राजील में 90 लाख टन और भारत में 6 लाख टन का।

भारत में पशुधन के क्षेत्र में पॉलट्री सर्वाधिक तेजी से उभरता हुआ व्यवसाय है।साल 1985 में प्रति व्यक्ति जंतु-प्रोटीन उपभोग में इसका हिस्सा 22 फीसदी का था जो साल 2003 में बढ़कर 50 फीसदी हो गया। नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड(एनडीडीबी) के अनुसार साल 1991-92 में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दूध की उपलब्धता 178 ग्राम थी जो साल 2008-09 में बढ़कर 258 ग्राम हो गई ।बहरहाल, यह बात भी सच है कि भारत दूध के सर्वाधिक बड़े आयातक देशों में से एक है।

भारत में सूखे की स्थिति में पशुपालक अपना खर्च चलाने के लिए पशुओं को बेचते हैं।भारत में, महिलायें शहरों में दूझ की मांग को पूर्ति करने वाली अनेक बड़ी सहकारी संगठनों की सदस्य हैं।

 

वर्ल्ड लाइव स्टॉक 2011 के प्रमुख तथ्य-

 

पाँच साल से कम उम्र के 1 करोड़ 40 लाख बच्चे हर साल कुपोषण के कारण काल-कवलित होते हैं। इसमें 49 फीसदी मामलों में प्रोटीन-उर्जा की कमी से होने वाला कुपोषण जिम्मेदार है।

 

अनुमान है कि विश्व में 1 अरब 60 करोड़ आबादी आयरन की कमी से पीडित है। आयरन की कमी से विकासशील देशों के 40-60 फीसदी बच्चों का मानसिक विकास ठीक से नहीं हो पाता।

 

साल 1990 के एक आकलन में कहा गया कि विश्वस्तर पर कुपोषण के कारण 8 अरब 70 करोड़ अमेरिकी डॉलर का घाटा होता है।

 

साल 2003-05 की अवधि में विकासशील देशों में औसतन प्रोटीन का उपभोग प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 70 ग्राम था जबकि इसी अवधि में विकसित देशों में 102 ग्राम। साल 2005-07 की अवधि में विकासशील देशों में औसत उर्जा उपभोग 2630 किलोकैलोरी प्रतिदिन था जबकि विकसित देशों में 3420 किलोकैलोरी। रिपोर्ट के अनुसार साल 2005-07 के दौरान विकसित देशों में 5 फीसदी आबादी का उर्जा-उपभोग(कैलोरी) पर्याप्त से कम था जबकि विकासशील देशों में यही तादाद 16 फीसदी है।

 

भारत में शहरी उपभोक्ता ग्रामीण उपभोक्ताओं की तुलना में 2.8 से 4.5 गुना ज्यादा अंडे खाते हैं जबकि चीन में शहरी उपभोक्ताओं की आय ग्रामीण उपभोक्ताओं की तुलना में तीन गुनी ज्यादा है, वे ग्रामीण उपभोक्ताओं की तुलना में 4 गुना ज्यादा दूध और दोगुना ज्यादा अंडे का उपभोग करते हैं। भारत में तकरीबन 50 फीसदी दूध का उपभोग इसके उत्पादक करते हैं। बेचे गए दूध की 80 फीसदी मात्रा अनौपचारिक प्रणाली से बाजार में बिकती है। साल 2002 के एक आकलन के मुताबिक भारत के 80 फीसदी शहरों में दूध की बिक्री अनौपचारिक बाजार-प्रणाली के माध्यम से होती है।

 

अनुमान है कि 7 करोड़ 70 लाख टन वनस्पति प्रोटीन के सालाना उपभोग के बाद 5 करोड़ 80 लाख टन जंतु-प्रोटीन का उत्पादन होता है।

 

 • दक्षिण एशिया में मांस और अंडे का उपभोग में थोड़ी मगर दूध के उपभोग में ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। इसके लिए सांस्कृतिक कारक जिम्मेदार हैं( ज्यादातर हिन्दू जनता शाकाहारी है)। साथ ही, छोटे स्तर की डेयरिंग की बढ़ोतरी से दूध का मिलना सहल हो गया है।