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पानी के प्रबंधन में बुनियादी बदलाव की दरकार, बने नेशनल वाटर कमीशन-- मिहिर शाह समिति

आजादी के बाद से अबतक बड़े और मंझोले आकार की सिंचाई परियोजनाओं में 4 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए हैं लेकिन ज्यादातर किसानों के लिए अब भी सिंचाई का पानी मुहाल है. 


सूखे की मार झेलती देश की खेती से जुड़ी इस तल्ख सचाई की तरफ ध्यान दिलाया गया है पानी का प्रबंधन सुधारने के मसले पर तैयार की गई एक रिपोर्ट में. रिपोर्ट केंद्रीय जल आयोग(सीड्ब्ल्यूसी) और केंद्रीय भूजल बोर्ड के कामकाज में बदलाव के विषय पर बनी मिहिर शाह समिति ने तैयार की है. 


रिपोर्ट के मुताबिक देश में सिंचाई की क्षमता का पर्याप्त दोहन नहीं हो रहा. फिलहाल देश सिंचाई की इतनी क्षमता अर्जित कर चुका है कि ठीक-ठीक इस्तेमाल के जरिए 113 मिलियन हैक्टेयर जमीन की सिंचाई हो सके लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा. फिलहाल सिंचाई के साधनों के जरिए केवल 89 मिलियन हैक्टेयर जमीन में ही पानी पहुंच रहा है. 

(21वीं सदी की जरुरतों के पेशेनजर देश में जल-प्रबंधन का कारगर ढांचा तैयार करने पर केंद्रित इस रिपोर्ट को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें किया जाय) 


इसकी बड़ी वजह है पानी के प्रबंधन का जमीनी सच्चाई से दूर होना. रिपोर्ट के मुताबिक बड़े बांध या नहर से नहीं बल्कि भूजल से देश में पेयजल की 80 फीसद और सिंचाई की दो तिहाई जरुरत पूरी हो रही है. भूजल का दोहन इतना तेज है कि देश के 60 फीसद जिलों में भूगर्भीय जल का स्तर नीचे चला गया है और वहां के पानी की गुणवत्ता पर गंभीर असर पड़ा है. 


सिंचाई की क्षमता और इस क्षमता के इस्तेमाल के बीच बढ़ती खाई की तरफ संकेत करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि ध्यान सिंचाई के साधनों के निर्माण से ज्यादा मौजूदा सिंचाई-ढांचे के प्रबंधन और रख-रखाव पर दिया जाना चाहिए. रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया है कि गुजरात और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में किसानों को कमान-एरिया के प्रबंधन में शामिल किया जाय. सिंचाई के प्रबंधन में किसानों के शामिल करने से रिपोर्ट के मुताबिक ‘हर खेत को पानी’ का सपना साकार किया जा सकेगा और पानी के इस्तेमाल में तकरीबन 20 फीसद की बचत होगी.

इस जरुरत के पेशेनजर रिपोर्ट का सुझाव है राज्यों को सिंचाई के उसी ढांचे पर अपना ध्यान लगाना चाहिए जिनकी साज-संभार या निर्माण तकनीकी या आर्थिक रुप से बहुत जटिल है. मिसाल के लिए, बांध और उससे लगी मुख्य नहर और इन्हें जारी रखने वाली मुख्य संरचनाओं तक राज्यों को अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए. सिंचाई का इसके बाद का तीसरे स्तर का ढांचा वाटर यूजर्स एसोसिएशन बनाकर किसानों को सौप दिया जाना चाहिए. 

रिपोर्ट में ध्यान दिलाया गया है पानी को लेकर अबतक हमारा नजरिया सरकारी खर्चे से ऊपर-ऊपर एक विशाल ढांचा खड़ा करने का रहा है. नौकरशाही के भारी ताम-झाम में तकनीक के विशेषज्ञ और इंजीनियरों को शामिल करके जरुरत की जगह पर पानी पहुंचाने की इस रीत से हटकर पानी के प्रबंधन का जन-केंद्रित नजरिया अपनाना होगा जिसमें जोर नदियों और जलागारों के नये सिरे से पुनर्जीवित करने पर हो. ऐसा करके ही देश के नागरिकों को पानी के उपयोग के मामले में आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है और सूखे से बचने के इंतजाम किए जा सकते हैं. 


मिहिर शाह की अध्यक्षता वाली समिति ने केंद्रीय जल आयोग और केंद्रीय भूजल बोर्ड में बदलाव के लिए निम्नलिखित तर्क दिए हैं-- 

 
•  जमीन के ऊपर और जमीन के नीचे मौजूद पानी को लेकर नजरिया बुनियादी तौर  पर बदलने की जरुरत है. 21 वीं सदी की जरुरतों के पेशेनजर केंद्रीय जल आयोग और केंद्रीय भूजल बोर्ड में बदलाव किए जाने चाहिए.

 
• केद्रीय जल आयोग 1945 में बना और केंद्रीय भूजल बोर्ड 1971. स्थापना के बाद, बीते कई दशकों से इन संस्थाओं में कोई सुधार नहीं हुआ है.

 
• पानी के प्रबंधन की जमीनी सच्चाई, अर्थव्यवस्था और समाज की मांग तथा पानी के स्वभाव की समझ हाल के समय में बुनियादी तौर पर बदली है. 

 
• आयोग और बोर्ड दोनों का नजरिया पुराना है. पुराने वक्त में जरुरत के अनुकूल बांध बनाने और ट्यूब वेल डालने पर जोर था.

 
•  जल-प्रबंधन का काम फिलहाल हाइड्रो-जियोलॉजिस्ट और सिविल इंजीनियरों के जिम्मे है. दोनों संस्थाओं में जरुरत के अनुरुप विशेषज्ञ नहीं हैं.

 
•  नदियों के बेसिन में पानी की मौजूदगी बड़ी कम है और इस कमी को देखते हुए रणनीति बनाने की जरुरत है.

 
•  पानी के प्रबंधन की जिम्मेवारी निचले स्तर पर किसानों को दी जाने चाहिए ताकि हर खेत को पानी मुहैया हो. नेशनल प्रोजेक्ट ऑन एक्वापायर मैनेजमेंट को अमल में लाने के लिए भी विभिन्न तबकों की भागीदारी जरुरी है. इसके लिए समाज विज्ञान और प्रबंधन के क्षेत्र के विशेषज्ञों को शामिल करना जरुरी है.

 
• राष्ट्रीय लक्ष्य निर्मल धारा यानी पानी के प्रवाह को मानवीय गतिविधियों से प्रदूषित होने से बचाये रखने का है. इसके लिए ऐसी नीति बनानी होगी कि नदियों में अविरल धारा बनी रहे यानी आगे आने वाले वक्त में नदी-बेसिन में पानी कम ना पड़े, साथ ही स्वच्छ किनारा बनाने पर जोर देना होगा ताकि नदि-तट साफ, सुंदर रहें. इन जरुरतों के मद्देनजर नदी की पारिस्थिकी के जानकार विशेषज्ञों को शामिल किया जाना चाहिए. 

 
•  कई राज्यों ने कहा है कि केंद्रीय जल आयोग की ओर से प्रौद्योगिकी और आर्थिक मूल्यांकन में देर होती है और यह देरी चिन्ता का विषय है.

 
•  बीते दो दशक में ज्यादातर बड़े राज्यों ने पानी से संबंधित विशेषज्ञता अर्जित कर ली है. आईआईएच, रुड़की, सीडब्ल्यूपीआरएस पुणे, आईआईटी रुड़की, आईआईएससी आदि की विशेषज्ञता का इस्तेमाल भी राज्य सरकारें कर सकती हैं.

 
• समीक्षा और मूल्यांकन का काम मांग-आधारित होना चाहिए. इसमें केंद्र और राज्य दोनों की भागीदारी हो. 

 
• समिति का सुझाव है कि केंद्रीय जल आयोग और केंद्रीय भूजल बोर्ड को नये सिरे से गठित करते हुए उन्हें नेशनल वाटर कमीशन के रुप में एक कर देना चाहिए.
 
 
नेशनल वाटर कमीशन से संबधित रिपोर्ट की बातों को विस्तार से जानने के लिए यहां क्लिक करें.