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भारत में रोजगारहीन आर्थिक वृद्धि - आईएलओ की नई रिपोर्ट

जिस भारतीय अर्थव्यवस्था के बूते दक्षिण एशिया में साल 2010 तक आर्थिक-वृद्धि की रफ्तार 9 फीसदी से ज्यादा की रही और अब यानी साल 2011-12 में 7 फीसदी पर जा पहुंची है, उसके बारे में सबसे ज्यादा गौर करने लायक तथ्य क्या है ? अंतर्राष्ट्रीय श्रम-संगठन की नई रिपोर्ट ग्लोबल एम्पलॉयमेंट ट्रेन्डस् का कहना है कि बढ़ोत्तरी का यह कमाल श्रम की उत्पादकता में बढ़वार का नतीजा था ना कि रोजगार के विस्तार का परिणाम।

इस सहस्राब्दि के अंत तक यानी जब भारत को भुगतान-असंतुलन ने घेरा उससे ठीक एक साल पहले और उदारीकरण की शुरुआत के वक्त “ रोजगार और श्रम की उत्पादकता दोनों समान गति से बढ़े”।. बहरहाल बीते दशक मे, जब वैश्विक और घरेलू मोर्चे पर आर्थिक स्थितियां बेहतर हुईं तो आर्थिक वृद्धि-दर ने श्रम की उत्पादकता में बढवार से गति पकड़ी।

साल 2007 और 2011 के बीच, श्रम की उत्पादकता में औसतन 6.4 फीसदी की बढ़त हुई लेकिन रोजगार में विस्तार मात्र 1.0 फीसदी का हुआ। भारत में यह स्थिति सबसे ज्यादा जाहिर हुई जहां कुल रोजगार में पाँच साल की अवधि(साल 2009-10 तक) में विस्तार महज 0.1 फीसदी का रहा। ( साल 2004-05 में 457.9 मिलियन लोग रोजगार में थे तो साल 2009-10 में 458.4 मिलियन) जबकि इसी अवधि में श्रम की उत्पादकता 34 फीसदी से भी ज्यादा बढ़ी।

यह तथ्य भी गौरतलब है कि इस अवधि में दक्षिण एशिया में महिला श्रमशक्ति की प्रतिभागिता कम हुई है। रिपोर्ट के अनुसार “ यह स्थिति सबसे ज्यादा भारत में मुखर है जहां महिला श्रमशक्ति(ग्रामीण) की भागीदारी दर साल 2004-05 में 49.4 थी जो साल 2009-10 में घटकर 37.8 फीसदी हो गई जबकि शहरी महिलाओं के लिए यही आंकड़ा साल 2004-05 के  24.4 फीसदी से घटकर साल 2009-10 में 19.4 फीसदी पर आ गया। महिला श्रमशक्ति की भागीदारी में कमी की आंशिक व्याख्या इस तथ्य से हो सकती है कि इसी अवधि में शिक्षा में महिलाओं का नामांकन हर आयु-वर्ग में बढ़ा है। ”

अंतर्राष्ट्रीय श्रम-संगठन की रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया के श्रम-बाजार के सामने दोहरी चुनौती है। उसे श्रम की उत्पादकता को बढाये रखना है ताकि आमदनी बढ़े और गरीबी में कमी आये, साथ ही काम करने की उम्र-सीमा में आ पहुंची और सालाना 2 फीसदी के दर से बढ़ने वाली आबादी के लिए नए रोजगारों का सृजन भी करना है। दक्षिण एशिया की तकरीबन 60 फीसदी आबादी 30 साल या इससे कम उम्र की है और सरकारों को आयु-सीमा के लिहाज से आबादी के इस बंटवारे का लाभ उठाना होगा। श्रम-बाजार की संभावनाओं का दोहन ठीक से ना हुआ तो संघर्ष और असुरक्षा का वातावरण पनपेगा।

दक्षिण एशिया के संदर्भ में ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य यहां श्रम की कम उत्पादकता और कम भुगतान वाले कामों की मौजूदगी है। यह समस्या विशेषकर कृषि-क्षेत्र तथा शहरी असंगठित क्षेत्र में ज्यादा है।

- दक्षिण एशिया में ज्यादातर आबादी अपनी जीविका खेती से कमाती है। साल 2010 में रोजगार के लिहाज से खेती का हिस्सा 51.4 फीसदी था जबकि साल 1991 में यही आंकड़ा 62.2 फीसदी का था ( यानी तकरीबन 20 सालों में 10 फीसदी की कमी)।  साल 2010 में दक्षिण एशिया में रोजगार के लिहाज से उद्योगों की हिस्सेदारी 20.7 फीसदी और सेवा क्षेत्र की 27.9 फीसदी थी।

- भारत में कृषि में रोजगार का प्रतिशत साल 2000 में 59.8 फीसदी था जो साल 2010 में घटकर 51.1 प्रतिशत हो गया। बांग्लादेश में कृषि में रोजगार का प्रतिशत साल 2000 में  62.1 था जो साल 2006 में घटकर 48.1 फीसदी हो गया। इसका अर्थ है कि दक्षिण एशिया में गरीब आबादी को कृषि से अलग ज्यादा उत्पादकता वाले गैर-खेतिहर क्षेत्र में रोजगार मुहैया कराना एक बड़ी प्राथमिकता है।

- चूंकि दक्षिण एशिया में ज्यादातर लोगों को रोजगार खेती में है इसलिए इसका प्रतिबिंबन गरीबी की मौजूदगी के रुप में भी दीखता है। प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 2 डॉलर से कम की आमदनी को गरीबी की अंतर्राष्ट्रीय मानक रेखा के रुप में स्वीकार करें तो दक्षिण एशिया रोजगारशुदा गरीबों की संख्या सबसे ज्यादा ठहरती है( साल 2011 में 67.3 फीसदी)। साल 1991 में यह आंकड़ा 86.0 फीसदी का था। अगर अविकल संख्या के लिहाज से सोचें तो दक्षिण एशिया में रोजगारशुदा गरीबों की संख्या साल 1991 में 361 मिलियन थी जो साल 2011 में बढ़कर 422 मिलियन हो गई। रोजगारशुदा गरीबों की संख्या में प्रतिशत पैमाने पर आई कमी की एक व्याख्या यह हो सकती है कि बीते दशकों की तुलना में वास्तविक मजदूरी में तनिक वृद्धि हुई।मिसाल के लिए भारत में साल 2004/05 और साल 2009/10 के बीच स्त्री और पुरुष( शहरी तथ ग्रामीण दोनों ही इलाकों के) कामगारों की वास्तविक मजदूरी में बढोत्तरी हुई है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि मजदूरी में बढोतरी सिर्फ वेतनभोगियों तथा नियमित मजदूरी पाने वालों के लिहाज से ही नहीं हुई बल्कि दिहाड़ी पर काम करने वालों के लिहाज से भी हुई। फिलहाल विश्व में रोदगारशुदा जितने लोग प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 2 डॉलर से कम की आमदनी के लिहाज से गरीबी-रेखा से नीचे हैं उनमें से तकरीबन आधे लोग दक्षिण एशिया में रहते हैं। साल 2011 में इनकी संख्या 46.2 फीसदी होने का अनुमान है।

- जिनके रोजगार की स्थिति डांवाडोल है वैसे सर्वाधिक कामगार दक्षिण एशिया में रहते हैं। जिन सालों को अप्रतिम आर्थिक-वृद्धि के साल कहा जाता है, उन सालों में भी वेतनभोगी और नियमित मजदूरी पाने वालों का अनुपात इस क्षेत्र में नहीं बदला है। इस सिलसिले में लैंगिक-असमानता पर भी गौर किया जाना चाहिए। डावांडोल प्रकृति के रोजगार में पुरुषों की संख्या साल 2011 में जहां 75.5 फीसदी थी वहीं महिलाओं की 83.8 फीसदी।   


विश्वस्तर पर अनिश्चितता की स्थिति से 2012 के लिए संभावनाएं धूमिल

यूरो-जोन कर्ज से ऊपजे संकट में डूबा है जबकि अमेरिका की अर्थव्यवस्था लगातार कमजोर हो रही है। इस स्थिति का हर देश पर नकारात्मक असर पड़ रहा है जिसमें दक्षिण एशिया के देश भी शामिल हैं, खासकर दक्षिण एशिया के वे देश( मालदीव,नेपाल, श्रीलंका) जो देश के बाहर से भेजी जाने वाली आमदनी और पर्यटन पर मनहस्सर हैं।

संभावना है कि अफगानिस्तान में मौजूद नाटो के सैनिकों की संख्या में कमी आये। अगर सैनिकों की संख्या में कमी से अफगानिस्तान में असुरक्षा बढ़ती है तो आर्थिक-गतिविधि और रोजगार सृजन को बाधा पहुंचेगी।

ठीक इसी तरह पाकिस्तान में भी स्थितियां जटिल हैं। वहां राजनीतिक अस्थिरता का माहौल है और अर्थतंत्र पर भी इस अस्थिरता का असर है। बाढ़ की स्थिति ने स्थिति को और गंभीर बनाया है।

घरेलू अर्थव्यवस्था का आकार बड़ा होने के कारण भारत वैश्विक मंदी की चोट को सहने में कहीं ज्यादा बेहतर स्थिति में है। लेकिन भारत मौद्रिक नियमन के बावजूद मुद्रास्फीति की विकराल समस्या से जूझ रहा है। कुल मिलाकर कहें तो विषम आर्थिक परिस्थितियों में दक्षिण एशिया में गैर-खेतिहर क्षेत्र में उत्पादक रोजगार का सृजन कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण साबित होने वाला है, साथ ही महिलाओं और युवजन के लिए श्रम-बाजार में कठिन स्थितियां बनी रहेंगी।
 
इस कथा के विस्तार के लिए निम्नलिखित लिंक खोलें-
 

Global Employment Trends 2012, ILO, http://www.ilo.org/wcmsp5/groups/public/@dgreports/@dcomm/
@publ/documents/publication/wcms_171571.pdf

 

http://www.im4change.org/law-justice/disaster-relief-30.ht
ml?pgno=2

 

The Challenge of ensuring full employment in the twenty-first century by Jayati Ghosh, Indian Journal of Labour Economics, Vol. 54, No. 1, 2011, http://www.networkideas.org/featart/oct2011/Jayati_Ghosh.pdf

 

Economic Reforms and Jobless Growth in India in the 1990s by BB Bhattacharya & S Sakthivel, http://iegindia.org/workpap/wp245.pdf

 

Impact of Trade Liberalization on Employment: The Experience of India'a Manufacturing Industries by Uma Sankaran, Vinoj Abraham and KJ Joseph, http://www.mse.ac.in/Frontier/i9%20uma.pdf

 

Is India seeing jobless growth? Money Mantra, 7 February, 2012, http://www.ndtv.com/video/player/money-mantra/money-mantra
-is-india-seeing-jobless-growth/223248

 

Indian Labour Market Report 2008, TISS, http://www.macroscan.org/anl/may09/pdf/Indian_Labour.pdf

 

Jobless growth continues in India by Ashoak Upadhyay, The Hindu Business Line, 21 February, 2012,

http://www.thehindubusinessline.com/opinion/article2916682
.ece?homepage=true

 

India’s jobless growth problem by Amitendu Palit, The Financial Express, 12 April, 2012,

http://www.financialexpress.com/news/column-indias-jobless
-growth-problem/935769/0

 

Jobless growth looms by Priya Kansara Pandya, The Business Standard, 9 April, 2012, http://www.business-standard.com/india/news/web-analysis-j
obless-growth-looms/162552/on

 

India has seen jobless growth, says top adviser, DNA, 13 November, 2011,

http://www.dnaindia.com/india/report_india-has-seen-jobles
s-growth-says-top-adviser_1611870