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साठ साल लग सकते हैं आरटीआई की अर्जी के जवाब में-- नई रिपोर्ट

अगर आरटीआई की आपकी अर्जी मध्यप्रदेश सूचना आयोग में लंबित है तो फिर आपका धीरज पहाड़ जैसा होना चाहिए ! मामलों के निस्तारण की मौजूदा दर के हिसाब से प्रदेश के आयोग को आपकी अर्जी का निबटारा करने में साठ साल लग जाएंगे।



और, अगर आपकी अर्जी विचार के लिए पश्चिम बंगाल के सूचना आयोग के लिए पड़ी है तो फिर आयोग की कछुआ चाल को देखते हुए कहा जा सकता है कि उसके निपटारे में कम से कम 17 साल लगेंगे।हाल में प्रकाशित पीपल'स आरटीआई असेसमेंट 2011-13 नामक शोध-अध्ययन में इन तथ्यों का खुलासा किया गया है। ( देखें नीचे दी गई लिंक)

 

आरटीआई असेसमेंट एंड एडवोकेसी ग्रुप सहित जमीनी स्तर पर कार्यरत अनेक नागरिक संगठनों की भागीदारी से तैयार इस आकलन में कहा गया है कि प्रथम अपील की अर्जी अगर केंद्र सरकार या दिल्ली सरकार से संबंधित ना हुई तो फिर महज 4 प्रतिशत मामलों में ही ऐसी संभावना बनती है कि मांगी गई सूचना का जवाब अर्जीदार को मिल जाय!

 

आरटीआई की अर्जियों के निपटारे में विलंब का एक बड़ा कारण कुछेक आयोगों में सूचना आयुक्तों की संख्या में कमी को बताया गया है। यह भी कहा गया है कि अनेक सूचना आयोग पर्याप्त मदद के अभाव में कारगर तरीके से काम नहीं कर पा रहे।

 

रिपोर्ट के अनुसार द्वितीय अपील के निस्तारण के बारे में कानूनी तौर पर अवधि तय नहीं की गई। इस वजह से "सूचना आयुक्त अपील के निस्तारण में हो रही देरी को लेकर विशेष चिन्तित नहीं होते और आवेदक मामले को अदालत में भी नहीं ले जा पाता।"

 

लेकिन अर्जियों के निपटारे में देरी की वजह सिर्फ सूचना आयोग तक सीमित नहीं है। इसकी शुरुआत एकदम निचले स्तर पर होती है। रिपोर्ट के तथ्यों के अनुसार, लगभग 45% जन सूचना अधिकारियों(पीआईओ) को सूचना के अधिकार अधिनियम के बारे में किसी भी किस्म का प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है और अनेक जन सूचना अधिकारी स्वयं इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि "प्रशिक्षण की कमी उनके उत्तरदायित्व निर्वाह के क्रम में बहुत बड़ी बाधा है।" रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रथम अपीलीय प्राधिकारी के तौर पर काम करने वाले बहुत से अधिकारी अथवा ऐसे अधिकारी जिनका काम जन सूचना अधिकारी को जानकारी प्रदान करना है, सूचना के अधिकार अधिनियम के बारे में विशेष रुप से प्रशिक्षित नहीं हैं।

 

रिपोर्ट में आरटीआई से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण निष्कर्ष दिए गए हैं और वांछित सुधारों की सिफारिश की गई है। रिपोर्ट के कुछ निष्कर्ष नीचे लिखे जा रहे हैं-


-- सूचना के अधिकार के बारे में लोगों में जागरुकता की कमी है। ग्रामीण इलाकों में 36 प्रतिशत और शहरी इलाकों में केवल 38 प्रतिशत चर्चा-समूहों में ऐसे भागीदार पाये गये जिन्हें आईटीआई की जानकारी थी। नुक्कड़-साक्षात्कार के माध्यम से की गई बातचीत में दिल्ली तथा राज्य की राजधानियों के 61 प्रतिशत लोगों ने कहा कि हां, हमने आरटीआई के बारे में सुना है।

 

-- आरटीआई की प्रक्रिया में आवेदक के तौर पर महिलाओं की भागीदारी बहुत कम (राष्ट्रीय औसत 8 प्रतिशत) है। असम और राजस्थान में आवेदक के तौर पर महिलाओं की भागीदारी महज 4 प्रतिशत जबकि बिहार में मात्र 1 प्रतिशत है।



--सूचना के अधिकार के तहत अर्जी डालने वालों में मात्र 14 प्रतिशत आवेदक ग्रामीण इलाकों के हैं, हालांकि देश की 70 फीसदी आबादी ग्रामीण है।

 

-- ग्रामीण इलाकों में फोकस डिस्कसन ग्रुप के 80% प्रतिशत और शहरी इलाकों में 95 प्रतिशत भागीदारों ने कहा कि वे अपनी शिकायतों को दूर करने के लिए आरटीआई की सहारा लेना चाहते हैं।



-- केंद्र सरकार या फिर दिल्ली सरकार को छोड़कर देखें तो आरटीआई के अंतर्गत पहली अपील के तौर पर प्रस्तुत अर्जियों के बारे में कहा जा सकता है कि उनके बारे में सूचना मिलने की संभावना मात्र 4 प्रतिशत है।

 

-- सूचना के अधिकार के तहत लगायी गई अर्जियों में 70 प्रतिशत संख्या ऐसी अर्जियों की होती है जिनमें मांगी गई सूचना संस्थान को स्वयं ही सार्वजनिक करनी चाहिए यानी ऐसी सूचनाएं नागरिक के बगैर मांगे उसे हासिल होनी चाहिए।



-- लगभग 45% जन सूचना अधिकारियों(पीआईओ) को सूचना के अधिकार अधिनियम के बारे में किसी भी किस्म का प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है। जन सूचना अधिकारियों ने साक्षात्कार में स्वीकार किया कि प्रशिक्षण की कमी उनके उत्तरदायित्व निर्वाह के क्रम में बहुत बड़ी बाधा है।



-- प्रथम अपीलीय प्राधिकारी के तौर पर काम करने वाले बहुत से अधिकारी अथवा ऐसे अधिकारी जिनका काम जन सूचना अधिकारी को जानकारी प्रदान करना है, सूचना के अधिकार अधिनियम के बारे में विशेष रुप से प्रशिक्षित नहीं हैं।

 

-- लंबित मामलों और उनके निस्तारण की मौजूदा दर को देखते हुए कहा जा सकता है कि अगर मध्यप्रदेश सूचना आयोग नें कोई अपील डाली जाती है तो आयोग उसपर साठ साल बाद ही विचार कर सकेगा जबकि पश्चिम बंगाल के सूचना आयोग के लिए यह अवधि 17 साल की होगी।

 

-- विलंब का एक बड़ा कारण कुछेक आयोगों में आयुक्तों की संख्या में कमी है जबकि अनेक सूचना आयोग पर्याप्त मदद के अभाव में कारगर तरीके से काम नहीं कर पा रहे। एक बात यह भी है कि द्वितीय अपील के निस्तारण के बारे में कानूनी तौर पर अवधि तय नहीं की गई। इस वजह से सूचना आयुक्त अपील के निस्तारण में हो रही देरी को लेकर विशेष चिन्तित नहीं होते और आवेदक मामले को अदालत में भी नहीं ले जा पाता।

 

-- सूचना आयुक्तों के आदेश का संबंधित अधिकारी अकसर पालन नहीं करते। यहां तक कि उन पर जुर्माना लगाया जाय तो वह रकम भी कभी-कभार ही वसूल होती है। कई सूचना आयोग ऐसे हैं जहां यह देखने के लिए कि उनके आदेश का पालन हुआ या नहीं, कोई सुचारु कार्यप्रणाली विकसित नहीं हुई है।

 

-- कई सूचना आयोग स्वयं ही आरटीआई अधिनियम के सेक्शन 4 का अनुपालन नहीं करते। ज्यादा सूचना आयोगों के वेबसाइट अद्यतन नहीं है, वहां मौजूद सूचनाएं अपनी प्रकृति में अपर्याप्त हैं, जरुरी सूचनाओं का वेबसाइट पर अभाव है।

 

-- हर राज्य और केंद्रशासित प्रदेश(कुल 34), सभी उच्च न्यायलय(कुल 23) तथा प्रांतीय असेंबली(कुल 29), केंद्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट तथा संसद को अपना-अपना कानून बनाने का अधिकार है। इससे देश में कुल नियमों के कुल 90 प्रकार बनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त मौजूदा 28 सूचना आयोग अपनी क्रियाविधि के अनुसार भारत में आरटीआई से संबंधित 118 प्रकार के नियम बना सकते हैं ! ऐसे में आवेदक को सबसे पहले तो अपनी अर्जी डालने के लिए प्रासंगिक नियम की जानकारी करने में ही बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है। अर्जी के लिए लगने वाले शुल्क के भुगतान का तरीका, पहचान पत्र संबंधी नियम आदि हर प्रदेश में अलग-अलग हैं। इन वजहों से आवेदक के लिए नियमों का पालन कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।

 

इस कथा के विस्तार के लिए निम्नलिखित लिंक देखे जा सकते हैं--

People's Monitoring of the RTI Regime in India 2011-13 (published in October 2014), prepared by RTI Assessment and Advocacy Group (RaaG) and Samya -Centre for Equity Studies (CES) (please click here to download)

 

Information Commissions and the Use of RTI Laws in India 2014 (Rapid Study 2.0), CHRI (published in July 2014) (please click here to download) 

 

The Use of Right to Information Laws in India-A Rapid Study Based on the Annual Reports of Information Commissions (2011-12), CHRI, (published in 2013) (please click here to access) 

 

Census 2011 provisional data on literacy (Please click here to access)

 

Make RTI process easy, a tool to bring transparency: Activists, The Economic Times, 12 October, 2014 (please click here to access) 

 

(इस पोस्ट में इस्तेमाल की गई तस्वीर के लिए हम http://usimages.punjabkesari.in/admincontrol/all_multimedia/2014_1image_14_57_199706000vp_cic131009copy-ll.jpg के आभारी हैं)