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सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप : 'मनरेगा को मारने की कोशिश कर रही सरकार'

क्या सरकार बजट में मनरेगा को लेकर किए गए अपने वादे से पीछे हट रही है ? ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के जमीनी क्रियान्वयन पर नजर रखने वाले नागरिक-संगठनों के कार्यकर्ताओं का आरोप है कि 'हां, सरकार मनरेगा के नियमों का खुलेआम उल्लंघन कर रही है!'

 

नई दिल्ली स्थित विमेन्स प्रेस कॉर्प में बीते 19 अप्रैल को हुई एक बैठक में मनरेगा के जमीनी क्रियान्वयन से जुड़े जाने-माने कार्यकर्ताओं ने सरकारी स्तर पर मनरेगा के नियमों से किए जा रहे "खिलवाड़" के कई उदाहरण दिए.

 

मजदूर किसान शक्ति संगठन के कार्यकर्ता निखिल डे की अगुवाई में नागरिक संगठनों से जुड़े कार्यकर्ताओं ने ध्यान दिलाया कि सरकार मनरेगा के जॉब कार्ड बिना कारण बताये रद्द कर रही है, मजदूरी का भुगतान समय पर नहीं किया जा रहा और मजदूरी के भुगतान में हुई देरी के लिए नियमानुसार मुआवजा नहीं दिया जा रहा.

 

केंद्र सरकार के स्तर पर की जा रही लापरवाही को "गरीब विरोधी" करार देते हुए प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे ने आरोप लगाया कि सरकार मनरेगा के लिए समय पर समुचित मात्रा में फंड जारी करने के अपने वादे से मुकर रही है और मनरेगा के काम के लिए निर्धारित न्यूनतम मजदूरी देने के नियम का पालन नहीं हो रहा है.

 

गौरतलब है कि इस साल अपने बजट भाषण में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने ग्रामीण विकास के लिए मनरेगा की आबंटित राशि में रिकार्ड वृद्धि की बात कहते हुए 1 करोड़ निर्धन लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने की बात कही थी.

 

बैठक में शामिल नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन विमेन के महासचिव एनी राजा ने कहा कि गारंटीशुदा सौ दिन का रोजगार देने के किसी भी नियम का केंद्र सरकार ठीक से पालन नहीं कर रही है. उन्होंने समाचारों का हवाला देते हुए कहा कि बिना कारण बताये 1 करोड़ मनरेगा जॉब कार्ड रद्द कर दिए गए हैं और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के खिलाफ मनरेगा की मजदूरी के भुगतान के लिए आधार-कार्ड की सीडिंग को अनिवार्य कर दिया गया है.

 

जेएनयू में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर जयति घोष ने ध्यान दिलाया कि मनरेगा की सरकारी वेबसाइट पर दर्ज है कि 53 फीसद से ज्यादा मनरेगा जॉबकार्ड बिना आधार-सत्यापन के हैं. उन्होंने बताया कि मनरेगा में मजदूरी के भुगतान में होने वाली देरी के लिए सरकार ने अभी तक अधिकतम आठ पैसे प्रतिदिन के हिसाब से हर्जाना दिया है.

 

झारखंड में मनरेगा के जमीनी क्रियान्वयन और मजदूरी के भुगतान के हालात पर स्वतंत्र शोध कर रही सामाजिक कार्यकर्ता अंकिता अग्रवाल ने ध्यान दिलाया कि केंद्र सरकार मजदूरी के भुगतान में होने वाली देरी के एवज में दिए जाने वाले हर्जाने की जवाबदेही से बचने के लिए मैनेजमेंट इन्फारमेशन सिस्टम की जटिलताओं का सहारा ले रही है.

 

सरकार पर मनरेगा को प्रशासनिक युक्तियों के जरिए मारने का आरोप लगाते हुए बैठक में सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सवाल किया कि अगर 1 करोड़ जॉबकार्ड फर्जी हैं तो सरकार इन जॉबकार्डस् पर हुए मजदूरी भुगतान की वसूली के लिए किसी व्यक्ति पर मुकदमा क्यों नहीं चलाती.

 

गौरतलब है कि साल 2017-18 का बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री ने मनरेगा के आबंटन में रिकार्ड वृद्धि की बात कहते हुए 48000 करोड़ रुपये देने की बात कही थी लेकिन इन्क्लूसिव मीडिया फॉर चेंज की खोजबीन में सामने आया है कि 2 अप्रैल 2017 तक मनरेगा के अंतर्गत पिछले साल के भुगतान के 9748.7 करोड़ रुपये बकाया हैं.(आंकड़े के लिए यहां क्लिक करें)

 

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की एमआईएस रिपोर्ट से पता चलता है कि 2 अप्रैल 2017 तक मनरेगा की बकाया भुगतान राशि का 49.4 फीसद हिस्सा मजदूरों से संबंधित है जबकि 48.6 फीसद हिस्सा मनरेगा के काम के लिए सामान आपूर्ति के मद में होने वाले भुगतान का है. शेष तकरीबन 2 फीसद हिस्सा प्रशासनिक कामों में होने वाले खर्च का है.

 

 मनरेगा के जमीनी क्रियान्वयन के मसलों पर शोधरत सामाजिक कार्यकर्ता अंकिता अग्रवाल ने इन्क्लूसिव मीडिया से निम्नलिखित जानकारी साझा की है-

 

--- देश भर में 2016-17 में हुए मनरेगा कामों से सम्बंधित 9,124 करोड़ रुपये का भुगतान अभी तक बकाया है. इस राशि का का 63 प्रतिशत सामग्री भुगतान का है, 35 प्रतिशत मज़दूरी का और बाकी 2 प्रतिशत प्रशासनिक खर्च का.

 

--- भुगतान न होने के मुख्य तीन कारण हैं: (1) भुगतान के लिए आवश्यक प्रकियाओं का सम्पन्न न होना, जैसे वेतनसूची व फंड ट्रांसफर ऑर्डर (FTOs) का सृजन; (2) तकनीकी कारणों से FTOs "अस्वीकार" (reject) हो जाना व (3) FTOs का पब्लिक फाइनैंस मैनेजमेंट सिस्टम (PFMS, केंद्र सरकार की एक ऑनलाईन व्यवस्था जिसके ज़रिए कई सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के तहत मिलने वाली राशियों का भुगतान होता है) द्वारा FTOs प्रोसेस न होना.

 

--- जिन मज़दूरों को काम करने के 15 दिनों के अन्दर अपनी मज़दूरी नहीं मिलती, उन्हें देरी के हर दिन, लंबित मज़दूरी के 0.05 प्रतिशत के तुच्छ दर से मुआवज़ा मिलना है. इस हिसाब से 2016-17 में देश भर में हुए कुल मज़दूरी भुगतान में विलम्ब के लिए 411.72 करोड़ रुपये का मुआवज़ा बनता है, जिसका अभी तक केवल 2.5 प्रतिशत का ही भुगतान हुआ है.

 

--- इसका मुख्य कारण है केंद्र सरकार द्वारा ज़िला स्तरीय मनरेगा कर्मी को MIS द्वारा स्वतः गणित मुआवज़े की राशि को "अस्वीकार" (reject) करने की छूट देना, जबकि मनरेगा कानून में ऐसी कोई छूट का प्रावधान नहीं है. -------- जैसा कि अपेक्षित है, इस छूट का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया जा रहा है; 2016-17 में देरी से हुए भुगतान के लिए दिए जाने वाले मुआवज़े का मात्र 4 प्रतिशत ही स्वीकार किया गया है (अनुलग्नक 2).

 

--- मुआवज़े की गणना FTO पर हस्ताक्षर होने पर समाप्त हो जाती है, जिसके कारण इस प्रक्रिया के बाद हुए विलम्ब के लिए मज़दूरों को मुआवज़ा नहीं मिलता.

 

--- 23 मार्च 2017 के बाद से 1 प्रतिशत से कम FTOs PFMS द्वारा प्रोसेस हुए हैं.

 

--- इस घोर अनीयमितता के कारण तो मंत्रालय को ही पता हैं और इसके कारण मज़दूरों को अपनी मज़दूरी मिलने में जो विलम्ब हो रहे हैं, उनको उनके लिए मुआवज़ा भी नहीं मिलेगा. साथ ही साथ, पिछले कुछ दिनों से असम, बिहार, झारखंड, केरल, महाराष्ट्र, पुडुचेरी और सिक्किम के FTOs कोई "hardware failure" के कारण सृजित नहीं हो रहे हैं.

 

(पोस्ट में इस्तेमाल तस्वीर साभार द वायर से)