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Resource centre on India's rural distress
 
 

अब भी दुरुस्त नहीं विश्व की आर्थिक दशा - यूएन रिपोर्ट

अगर आप यह सोचते हैं कि महामंदी का कहर अब उतार पर है और अर्थजगत की सेहत के लिहाज से सबसे बुरा वक्त बीच चुका है तो यह रिपोर्ट खास आपके ही लिए है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा हाल ही में जारी वर्ल्ड इकॉनॉमिक सिचुएशन एंड प्रास्पेक्टस्-२०१० (डब्ल्यू ई एस पी) नामक रिपोर्ट में आशंका जतायी गई है कि विकासशील देशों में आर्थिक वृद्धि की सालाना रफ्तार मंदी से पहले के वक्त से कहीं कम यानी ७ फीसदी से से नीचे रहेगी।रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि चीन और भारत की अर्थव्यवस्था अपनी अपेक्षा और संभावना के अनुरुप प्रदर्शन नहीं कर पाएगी।
 
डब्ल्यूईएसपी के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के हिसाब से सालाना मुद्रास्फीति साल २००९-१० में १० फीसदी से ऊपर रही है।रिपोर्ट का आकलन है कि मंदी की स्थितियों की गंभीरता में कमी आने के बावजूद विकासशील देशों में ४ करोड़ ७० लाख से लेकर ८ करोड़ ४० लाख की तादाद में नए लोग या तो गरीबी के दुष्चक्र में फंसे हैं या फिर इनके लिए गरीबी की स्थितियों से उबर पाना फिलहाल संभव नहीं है।
   
सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों को पूरा करने के प्रयास  भी अपने लक्ष्य से चूकते नजर आ रहे हैं। ऐसा खासकर उन देशों में हो रहा है जहां आबादी का एक बड़ा हिस्सा कम आमदनी पर गुजर बसर करता है। आर्थिक संकट से उबरने के लक्षण भले नजर आ रहे हों लेकिन कई देशों में अब भी ज्यादातर आबादी घटती आमदनी, बढ़ती बेरोजगारी और सामाजिक सेवाओं की किल्लत से परेशान है क्योंकि सरकारी खर्चा इस मद में नहीं बढ़ रहा। सामाजिक सेवाओं में खर्च के ना बढ़ पाने और सामाजिक सुरक्षा तंत्र के कमजोर होने के कारण मानव-विकास को विकासशील देशों में गहरा धक्का लगने की आशंका है।
 
रिपोर्ट में कहा गया है कि पूर्वी और दक्षिण एशिया में ७० फीसदी श्रमशक्ति पर किसी ना किसी तरह से बेरोजगारी का साया मंडरा रहा है और आंकड़ों की माने तो यह सारा कुछ मंदी के प्रभावों की परिणति है। जहां तक विकासशील देशों का सवाल है कामगारों में गरीब लोगों की संख्या साल २००९ में बढ़कर ६४ फीसदी तक जा पहुंची है जबकि साल २००७ में यह तादाद  महज ५९ फीसदी थी। मंदी के उभार के दौर में निर्यातउन्मुख क्षेत्रों से जिन कामों का खात्मा हो गया था वे फिर से अर्थव्यवस्था में अपनी जगह धीरे धीरे ही बना पाएंगे जबकि मंदी के दौर में जो कामगार काम की कमी के कारण असंगठित क्षेत्र में जाने के लिए बाध्य हुए थे उन्हें अपनी बदली हुई स्थिति में लंबी अवधि तक रहना पड़ेगा।  
 
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