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Resource centre on India's rural distress
 
 

आदिवासियों का विश्वस्तर पर जनसंहार- यूएन रिपोर्ट


संयुक्त राष्ट्र संघ की द स्टेट ऑव द वर्ल्डस् इंडीजीनस पीपल्स नामक रिपोर्ट में कहा गया है कि मूलवंशी और आदिम जनजातियां पूरे विश्व में अपनी संपदा-संसाधन और जमीन से वंचित और विस्थापित होकर विलुप्त होने के कगार पर हैं। रिपोर्ट में भारत के एक सूबे झारखंड में चल रहे खनन कार्य के कारण विस्थापित हुए संथाल जनजाति के हजारो परिवारों का हवाला देते हुए कहा गया है कि उन्हें समुचित मुआवजा तक हासिल नहीं हो सका है।

जनवरी (2010) में जारी की गई इस रिपोर्ट में अफसोस के स्वर में कहा गया है कि मौजूदा वर्ष के अंतर्राष्ट्रीय  जैव विविधता वर्ष होने के बावजूद लघुस्तरीय खेती को संकट से उबारने के लिए कोई कदम नहीं उठाये जा रहे। मूलवासी जनसमूह व्यवसायिक और एकफसली खेती के कारण आजीविका के संकट से जूझ रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार इस प्रवृति में आर्थिक उदारीकरण के दौर में बढ़ोतरी हुई है। रिपोर्ट में आनुवांशिक रुप से परिशोधित फसलों के व्यवसायिक इस्तेमाल और विकसित देशों द्वारा अत्यंत अनुदानित व्यवसायिक फसलों की उपज से अफ्रीका, एशिया, तथा लातिनी अमेरिका के बाजारों को पाट देने की प्रवृति पर  प्रश्नचिह्न लगाए गए हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में दलितों के खिलाफ जाति आधारित भेदभाव के कारण अन्य लोगों की बनिस्पत अनुसूचित जातियों में गरीबों की तादाद ज्यादा है। भारत, इंडोनेशिया, मलेशिया और थाईलैंड  जैसे देशों में आदिवासी समूह के लोगों में झूठे आरोप मढ़कर उन्हें गिरफ्तार किया जाता है। रिपोर्ट के अनुसार साल 1980 के दशक से विदेशी निवेश बढ़ाने की गरज से खनन-नीतियों में बदलाव के कारण परंपरागत भूमि के रकबे में कमी आई है और अफ्रीका, लातिनी अमेरिका, भारत सहित कई देशों में पर्यावरण को नुकसान पहुंचा है।
 
रिपोर्ट में मूलवासी जन-समुदाय की दीन दशा पर ध्यान खींचते हुए कहा गया है कि इनकी आबादी विश्व की जनसंख्या की महज 5 फीसदी है लेकिन दुनिया के 90 करोड़ सर्वाधिक गरीब लोगों में मूलवासी लोगों की संख्या कुल एक तिहाई है। विकसित और विकासशील दोनों ही देशों में कुपोषण, गरीबी, सेहत को बनाए रखने के लिए जरुरी संसाधनों के अभाव और प्राकृतिक संसाधनों के संदूषण के कारण मूलवासी जनसमूह विश्वव्यापी स्तर पर अमानवीय दशा में रह रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार मूलवासी लोग आमदनी और आजीविका के मामले में भयंकर भेदभाव का शिकार हैं।

इस रिपोर्ट में सरवाइवल इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट प्रोग्रेस कैन किल की अंतर्ध्वनि है। प्रोग्रेस कैन किल नामक रिपोर्ट में कहा गया है कि विकास के नाम पर जिन नीतियों को तैयार किया जा रहा है इसकी मार मूलवासी लोगों पर बीमारी, आत्महत्या, नशे की लत और आयु-संभाव्यता में कमी के रुप में पड़ रही है।

•    संयुक्त राज्य अमेरिका में आम आबादी की तुलना में मूलवासी समूह के लोगों को तपेदिक होने की आशंका 600 गुना अधिक है। उनके आत्महत्या करने की आशंका भी 62 फीसदी ज्यादा है।

•    आस्ट्रेलिया में मूलवासी समुदाय का कोई बच्चा किसी अन्य समूह के बच्चे की तुलना में 20 साल पहले मर जाता है। नेपाल में अन्य समुदाय के बच्चे से मूलवासी समुदाय के बच्चे की आयु संभाव्यता का अन्तर 20 साल, ग्वाटेमाला में 13 साल और न्यूजीलैंड में 11 साल है।.

 
•    विश्वसत्र पर देखें तो मूलवासी समुदाय के कुल 50 फीसदी लोग टाईप-टू मधुमेह से पीडित हैं और इस संख्या में इजाफा होने के आसार हैं।

•    इस सदी के अंत तक दुनिया की 90 फीसदी भाषाएं विलुप्त होने के कगार पर होंगी या फिर विलुप्त हो जाएंगी।

(इस विषय पर विस्तार से जानकारी के लिए देखें निम्नलिखित लिंक)

Opinion: UN report on Indigenous Peoples- 370 million living in hell, 15 January, 2010,
http://www.digitaljournal.com/article/285772

UN report paints grim picture of conditions of world’s indigenous peoples, 14 January, 2010, http://www.un.org/apps/news/story.asp?NewsID=33484&Cr=
indigenous&Cr1
=

State of the World’s Indigenous Peoples, Department of Economic and Social Affairs, Division for Social Policy and Development,
http://www.indiaenvironmentportal.org.in/files/SOWIP_web.pdf

http://intercontinentalcry.org/un-report-paints-grim-pictu
re-of-worlds-indigenous-peoples/

Progress can Kill, Survival International,
http://www.survivalinternational.org/progresscankill

Meet against GM crops, The Hindu, 21 January, 2010,

http://www.hindu.com/2010/01/21/stories/2010012154960700.htm