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उत्तराखंड की बांध परियोजनाएं-किसको क्या मिला?

नये राज्यों के गठन के पीछे एक तर्क उनके आर्थिक विकास का दिया जाता है। छत्तीसगढ़ और झारखंड के साथ-साथ उत्तराखंड का गठन नये राज्य के रुप में हुआ तो जातीय पहचान के साथ-साथ इन राज्यों के आर्थिक विकास का भी तर्क दिया गया था। उत्तराखंड को अस्तित्व में आये अब तकरीबन नौ साल पूरे हो रहे हैं। चिपको आंदोलन समेत कई जनआंदोलनों की जन्मभूमि रहे उत्तराखंड में फिलहाल बांध परियाजनाओं का जोर है।  टिहरी बांध के निर्माण से पैदा होने वाले विशाल डूब-क्षेत्र के कारण चर्चा में रहे उत्तराखंड का ९० फीसदी से ज्यादा हिस्सा उच्च पर्वतीय इलाकों वाला है और इसके आधे से अधिक भूभाग पर सघन वन आबाद हैं। सरकार इस भरपूर प्राकृतिक संपदा का दोहन करना चाहती है मगर उत्तराखंड के जनपक्षी नागरिक संगठनों का तर्क है कि सरकार की विकास-परियोजनाओं से इस प्रदेश में बड़े पैमाने पर विस्थापन हो रहा है और पुनर्वास का सवाल नौकरशाही के गलियारों में खोकर रह गया है।
 
 यहां हम उत्तराखण्ड के माटू जनसंगठन की तरफ से जारी एक चिठ्ठी मूल रुप में प्रकाशित कर रहे हैं ।    
 
उत्तराखण्ड के अधिकांश गाड़-गधेरों पर छोटे-बड़े बाँध बनाने की तैयारी है। देशी-विदेशी कम्पनियों को परियोजनायें लगाने का न्यौता दिया जा रहा है। निजी कम्पनियों के आने से लोगों का सरकार पर दबाव कम हो जाता है, लेकिन कम्पनी का लोगों पर दबाव बढ़ जाता है। दूसरी तरफ कम्पनी के पक्ष में स्थानीय प्रशासन और सत्ता भी खड़ी हो जाती है। साम, दाम, दंड, भेद, झूठे आँकड़े व अधूरी, भ्रामक जानकारी वाली पर्यावरण प्रभाव आँकलन रिपोर्ट- कंपनियों की परियोजनाओं के साथ ऐसा ही होता है।

राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में, जहाँ लगभग 7 प्रतिशत भूमि ही खेती के लिए बची है। उसमें भी जंगल की जमीन के साथ खेती की बेशकीमती जमीन आपात्कालीन धारायें लगा कर इन परियोजनाओं के लिये अधिग्रहीत की जा रही है। टिहरी बाँध के बाद तमाम दूसरे छोटे-बड़े बाँधों से विस्थापित होने वालों को जमीन के बदले जमीन देने का प्रश्न ही सरकारों ने नकार दिया है। दूसरी तरफ विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के लिए 100-100 हैक्टेयर जमीनें विशेष छूट  पर उपलब्ध करायी जा रही हैं। खेती की जमीन और सिकुड़ते जंगलों पर दबाव बढ़ रहा है। औद्योगिक शिक्षा संस्थानों की कमी के चलते आम उत्तराखण्डी के पास इन क्षेत्रों में रोजगार के अवसर वैसे ही बहुत कम है, परिणामस्वरूप अकुशल मजदूरी या पलायन ही परियोजना प्रभावितों के हिस्से में आता है। परियोजना वाले कहते हैं कि वह लोगों को नौकरियाँ देंगे। गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी! कितनी नौकरियाँ मिलीं ? पर्यटन के नाम पर पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील बुग्यालों को स्कीइंग क्षेत्र में तब्दील किया जा रहा है। विकास के नाम पर उपजाऊ जमीन को सीमेंट-कंक्रीट के जंगलों में तब्दील किया । सड़कों का चौड़ीकरण का मामला सीधे बाँध परियोजनाओं और पर्यटन से जुड़ा है। इससे भी जंगलों एवं कृ’षि भूमि का विनाश हुआ है। हजारों-लाखों पेड़ों का कटना पर्यावरण की अपूरणीय क्षति है।

पचास-साठ मीटर ऊँचे बाँधों को भी छोटे बाँधों की श्रेणी में रखकर सभी नदी-नालों को सुरंगों में डाला जा रहा है। ‘बडे़ बाँधों के अन्तर्राष्ट्रीय आयोग’  और  ‘वि बैं बाँध आयोग’ की परिभाषा के अनुसार 15 मीटर से ऊँचे बाँध बडे बाँधों में आते हैं। टिहरी बाँध से उपजी समस्याओं पर माननीय मुख्यमंत्री का कथन था कि टिहरी बाँध के विस्थापन को देखते हुए अब उत्तराखण्ड में बडे़ बाँध नहीं बनेंगे। किन्तु हाल ही में राज्य सरकार द्वारा टिहरी जल-विद्युत निगम से टौंस नदी पर 236 मीटर ऊँचा बाँध बनाने का समझौता किया गया है। यह किस श्रेणी में आता है ? 280 मीटर का पंचेवर बाँध किस श्रेणी में आयेगा ?

जल-विद्युत परियोजनाओं से बाढ़ें, भूस्खलन, बंद रास्ते, सूखते जल स्रोत, कांपती धरती, कम होती खेती की जमीन, ट्रांस्मीशन लाइनों के खतरे, कम होता खेती उत्पादन और अपने ही क्षेत्र में खोती राजनैतिक “शक्ति और लाखों का विस्थापन यानी ये उपहार हमें उत्तराखण्ड में बनी अब तक की जल-विद्युत परियोजनाओं से मिले हैं और मिलेंगे। इन सबके बावजूद बिना कोई सबक सीखे बाँध पर बाँध बनाने की बदहवास दौड़ जारी है।

देहरादून-दिल्ली जैसे बड़े शहरों में हो रहे पानी व बिजली के दुरुपयोग के लिए इन बाँधों का बनना कितना आवश्यक है ? देश में नई आर्थिक नीति के तहत् 8 प्रतिशत विकास दर रखने के लिए हजारों मेगावाट बिजली की भ्रमपूर्ण माँग की आपूर्ति के लिए इन सौ से अधिक परियोजनाओं का होना कितना आवश्यक है? याद रहे कि भारत का प्रत्येक निवासी लगभग 25 हजार रुपये से ज्यादा के कर्ज से दबा हुआ है। ऐसे में विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक, जापान बैंक ऑफ इण्टरनेशनल कॉरपोरेशन, अन्र्तराष्ट्रीय वित्त संस्थान व एक्सपोर्ट क्रेडिट एजेन्सी जैसे भयानक वित्तीय संस्थाओं के कर्ज में दबता जा रहा है। उत्तराखण्डी भी उनसे अलग नहीं हैं।


सरयू लोकादेश, सौंग

(अपनी नदी को जल विद्युत परियोजना के जबड़े से बचाने के लिये 163 दिन तक आमरण अनशन करने वाले सौंग के आन्दोलनकारी ग्रामीणों ने 27 मार्च 2008 को यह लोकादेश जारी किया। )


सरयू हमारी माँ का रूप है,माँ की तरह हमारा पालन-पोषण सदियों से करती आ रही है। इसलिए हम उत्तर भारत पावर कारपोरेशन प्रा.लि. के पास सरयू को गिरवी रख अपने पालन पोषण से वंचित नहीं होना चाहते हैं .क्योंकि यह विकास के नाम से हमारा विनाश है। सरयू का जल, जंगल व जमीन हमारी जीविका है इसलिए सरकार तत्काल उत्तर भारत पावर कम्पनी के कार्य को सरयू में रोके ऐसा न होने पर जनता द्वारा रोके जाने पर जो भी हानि होगी उसकी जिम्मेदारी सरकार व कम्पनी की होगी।

सरयू हमारी सभ्यता और संस्कृति का आधार है, विकास के नाम पर इसको नष्ट करना हमारे मौलिक अधिकार का हनन है। हमने अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करते हुए ‘सरयू बचाओ हक हकूक बचाओ’ आन्दोलन आरम्भ किया है। हम अपने संवैधानिक अधिकार के लिए चलाए जा रहे आन्दोलन पर डटे रहेंगे। सरकार तत्काल विकास के नाम पर विनाश रोके। हमारा क्षेत्र भूस्खलन वाला क्षेत्र है, पहाडों की छाती पर सुरंग बनाकर भूस्खलन बढ़ाना है। हम हमेशा सरयू को अपनी गति से बहना देखना चाहते हैं जिससे हमारे समाज में नारी-नीर का सम्बन्ध अटूट बना रहे।

सरयू उत्तराखण्ड में ही नहीं वरन् पूरे देश व समाज में सृष्टि का अलंकार करती है। इसलिए बिना समाज की सहमति के किसी कम्पनी को यह नदी नहीं दी जा सकती है। इसलिए हम सरकार को यह आदेश देते हैं कि सरकार तत्काल कम्पनी के साथ हुए समझौते को रद्द करे।
 


सत्ता परिवर्तन होते हैं, पर सिर्फ दल बदलते हैं न कि नीतियाँ। इन्ही संदर्भो में माटू जनसंगठन विकास की चलती परिपाटी में सरकार से पूछता है कि 200 से ज्यादा जल-विद्युत परियोजनाओं से राज्य के विकास का सपना दिखाने वाली सरकारों ने आज तक आखिर एक आम उत्तराखण्डी को क्या दिया है ? हम जानना चाहेंगे कि कितनी बिजली का उत्पादन हुआ ? इन परियोजनाओं में कहाँ से पैसा आया ? कितना पैसा आया ? कितना कर्ज है ?  जिन क्षेत्रों मे परियोजनायें बनीं वहाँ के लोगों का क्या हुआ ? उनका जीवन स्तर कितना ऊँचा उठा ? हम इस मुद्दे पर उत्तराखण्ड में यह सवाल खड़ा करना चाहते हैं। बहस खड़ी करना चाहते हैं। सरकारो को जवाबदेह होना होगा। लोकनायक जयप्रकाश ने कहा था कि प्रत्येक पंचवर्षीय योजना के बाद यह देखना होगा कि सबसे अंतिम व्यक्ति को क्या मिला ?
-विमल भाई