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कितना भूखा है मध्यप्रदेश: शिरीष खरे

झाबुआ, मध्यप्रदेश: कुपोषण ने दो दर्जन से ज्यादा बच्चों को निगला है- यह हाल आदिवासी जिले झाबुआ का है, जहां मेघनगर ब्लाक के अगासिया और मदारानी गांवों में बच्चों की मौत का सिलसिला है कि टूटता ही नहीं। फिलहाल पूरा मध्यप्रदेश ही इतना भूखा है कि यहां न जाने क्यों भूख का नामोनिशान है कि मिटता ही नहीं ?केवल अक्टूबर में ही झाबुआ के इन 2 गांवों से 25 बच्चों की मौत दर्ज होना- यह तो मौत के ताण्डव की एक झलक भर है। एक तरफ पास के ही खण्डवा में आंतकवादी बतलायी गई वारदात के तुरंत बाद से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अपने साहस का परिचय पेश कर रहे हैं और दूसरी तरफ महीनों से कुपोषण नाम का जो आंतक झाबुआ के कई दुबले, पतले, रक्तहीन शरीर वाले बच्चों को मलेरिया जैसी बीमारियों की चपेट में आते ही 4 रोज के भीतर खा रहा है, उसके खिलाफ ठोस कार्रवाई की बात तो दूर जबावदारी लेने का साहस तक कोई नहीं करता है। मालूम नहीं यह बात भोपाल तक पहुंची है या नहीं कि कुपोषण के गले उतर चुके ऐसे बच्चों में से ज्यादातर 0-6 साल के हैं। पता किया है तो पता चला है कि यह बच्चे तो क्या इनके नाम तक स्थानीय आंगनबाड़ी केन्द्रों में कभी नहीं पहुंचे हैं। आखिर किससे पूछे कि जिले के 75 % पोषण केन्द्रों में ताले लटके हैं तो क्यों ?

इसके पहले महिला बाल विकास विभाग की रिपोर्ट भी कह चुकी है कि झाबुआ जिले में 36 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। फिर भी प्रशासन कुपोषण से बच्चों की मौतों को रोकने की बजाय जवाबदारी से बचने के रास्ते तलाश रहा है। फिलहाल 25 बच्चों की मौत को लेकर कहा जा रहा है कि इन्हें मलेरिया जैसी बीमारियां तो थीं ही, इनमें रक्त की भारी कमी भी थी। पूरे इलाके में कुपोषण के खतरनाक स्तर को देखते हुए कुपोषण को बच्चों की मौत का मुख्य कारण बतलाया जा रहा है। जैसे कि मेघनगर के ब्लाक मेडीकल आफीसर विक्रम वर्मा भी कहते हैं कि- ‘‘हमने अभी तक 14 बच्चों की मौत के कारणों को ढ़ूढ़ा है, प्राथमिक तौर पर देखने के बाद तो यही लगता है कि उन्हें कुपोषण, एनीमिया और मलेरिया ने बुरी तरह जकड़ लिया था।’’ यह और बात है कि स्वास्थ्य विभाग के ज्वाइंट डायरेक्टर केके विजयवर्गीय कुछ और कहते हैं- ‘‘अक्टूबर में वहां सिर्फ चारेक मौतें हुई हैं। मैंने पर्यवेक्षक और एएनएम के खिलाफ कार्रवाई का आदेश दिया है, इसके अलावा ब्लाक मेडीकल आफीसर को रिपोर्ट में देरी किये जाने पर कारण बताओ नोटिस भी भेजा दिया है।’’ ज्वाइंट डायरेक्टर कुपोषण को बच्चों की मौत का कारण नहीं मानते हैं। उनके हिसाब से- ‘‘हालांकि अभी तक कोई कारण स्पष्ट नहीं हो पाया है, फिर भी एक बात तो पक्की है कि कुपोषण नहीं ही है। शायद उन्हें मौसमी बुखार था।‘‘

इस तरह जहां स्वास्थ्य विभाग की गंभीरता स्पष्ट होती है वहीं समाज कल्याण के लिए बनी योजनाएं का असर भी साफ समझ आता है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि अगासिया के जिन 4 बच्चों की मौत को मौत मान लिया गया है, उनके घरवाले रोजीरोटी के लिए अपने घरों से पलायन करते हैं। कहने को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना 5 साल पहले आई है मगर इनके हाथों में जाब-कार्ड आजतक नहीं आए हैं।

देखा जाए तो झाबुआ जिले के अगासी और मदारानी जैसे गांव तो कुपोषण नाम के नक़्शे पर छोटे-छोटे से बिन्दु भर हैं। हकीकत तो यह है कि मध्यप्रदेश के बड़े हिस्से में कुपोषण अब महामारी की तरह फैल रहा है। प्रदेश के ही एक और जिले सीधी का रुख करें तो यहां भी अगस्त से अबतक 22 बच्चों की मौतें दर्ज हुई हैं। इस बीच एशियन हयूमन राईटस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि रीवा जिले के जेबा ब्लाक में कोल आदिवासियों के 80 % से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं। सुप्रीम कोर्ट और यूनाइटेड नेशन इंटरनेशनल चिल्ड्रनर्स इमरजंसी फण्ड की रिपोर्ट के मुताबिक यहां के हालात तो उप-सहारा अफ्रीका देशों से भी खराब हैं। इसी तरह नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे-3 के मुताबिक मध्यप्रदेश में 12 लाख से ज्यादा बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित हैं। यहां 0-3 साल के 60 % बच्चे कुपोषित हैं, जबकि इसी श्रेणी के 82.6 % बच्चे रक्तहीनता के शिकार हैं। प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 1000/70 है, जबकि आदिवासी इलाकों में शिशु मृत्यु दर है 95.6/1000!!

ऐसे में सवाल उठता है कि 2015 तक शिशु मृत्यु दर में दो-तिहाई की कमी लाने वाले प्रदेश सरकार के लक्ष्य का क्या होगा ? वह भी तब जब 1.2 करोड़ बच्चों की आबादी वाले इस प्रदेश में शिशु रोग विशेषज्ञ की संख्या है केवल 117। और तो और 30 जिलों की जनता को आज भी शिशु स्वास्थ्य से जुड़ी बुनियादी सहूलियतों का इंतजार है। मगर सेंटर फार बजट गवेर्नेंस एंड अकाउंटबिलिटी के मुताबिक मध्यप्रदेश सरकार जीडीपी का केवल 0.1 % हिस्सा बच्चों के स्वास्थ्य पर खर्च करती है। इसी तरह आजीविका के लिए तैयार हुई राष्ट्रीय रोजगार गांरटी की चाल यह है कि प्रदेश सरकार बीते 4 सालों में इस योजना की पूरी राशि ही खर्च नहीं कर सकी है। इस योजना के तहत वित्तीय वर्ष 2005-06 से वित्तीय वर्ष 2008-09 के बीच कुल 9739 करोड़ 23 लाख रूपए आंवटित हुए जिसमें से खर्च हुए 8191 करोड़ 34 लाख रूपए ही। जिसमें से 3 साल तो ऐसे भी रहे कि जब वह केन्द्र सरकार के खाते की राशि तक खर्च नहीं कर सकी। सरकार कहती है कि इस योजना में 1 करोड़ 11 लाख 40 हजार जाब-कार्ड बन गए हैं मगर अबतक केवल 11 लाख लोगों को ही रोजगार मिल पाने के सवाल पर वह चुप है। जुलाई 2008 में सेंटर फार एन्वायरमेंट एण्ड फूड सेक्यूरिटी ने झाबुआ सहित प्रदेश के 5 जिलों के 125 गांवों में सर्वे किया और कहा कि सरकार के बहुत सारे दावे झूठे हैं। उसके मुताबिक यहां साल में औसतन 16 दिन ही रोजगार मिल पाता है। सीधी बात है कि सरकार की मंशा जो भी हो मगर योजनाएं शोषण या घूसखोरी पर जाकर दम तोड़ रही हैं।

कुल मिलाकर मध्यप्रदेश के अलग-अलग हिस्सों के नाम अलग-अलग हो सकते हैं मगर यहां शोषण…बेकारी…गरीबी…भूख…रोग…मौत का पहिया अपनी चाल से लगातार घूम रहा है। अंतत: इन अलग-अलग हिस्सों में स्वास्थ्य और आजीविका की ज्ञात स्थितियों को भी एक साथ जोड़कर देखें तो हमारे सामने आदिवासी आबादी पर कुपोषण के कहर की भयानक तस्वीर पेश होती है। जिसमें उसकी शक्ल भूख से होने वाली मौतों के लिए कुख्यात उड़ीसा, झारखण्ड और गुजरात की शक्लों से काफी मिलती-जुलती है।

- लेखक ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ के ‘संचार-विभाग’ से जुड़े हैं।