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Resource centre on India's rural distress
 
 

खनन और विस्थापन-दर्द की वही दास्तान हर जगह

भारत सरकार खनन-क्षेत्र की दक्षिण कोरियाई कंपनी पोस्को के उड़ीसा स्थित ५१ हजार करोड़ के इस्पात संयत्र के लिए कोई वैकल्पिक जगह आबंटित करने की जुगत में है क्योंकि सरकार को डर है कि अगर आदिवासियों को उनकी जमीन और जीविका छोड़ने के लिए जबर्दस्ती मजबूर किया गया तो परिणाम गंभीर होंगे।सरकार की योजना है कि कंपनी को उड़ीसा में ही कहीं और जमीन दे दी जाय ताकि उसे प्रान्त से बाहर नहीं जाना पड़े। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि मोटा मुनाफा देने वाले खनन-उद्योग में भ्रष्टाचार का बोलबाला है और उसे जमीन भी औने-पौने में अविचारित ढंग से दे दी जाती है जबकि यह उद्योग विस्थापितों के पुनर्वास की मांग की एक नहीं सुनता। 

बहरहाल, सरकार अभी भूमि-अधिग्रहण बिल को नये सिरे से लाने का विचार कर रही है लेकिन आदिवासियों की जीविका और रहवास से जुड़े इस प्रश्न पर उन्हें शामिल करने के तनिक भी प्रयास नहीं हुए हैं। खनिज-संसाधन से भरपूर देश के दूसरे आदिवासी जिलों की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है। उन जिलों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की माइनिंग लॉबी आदिवासी और वन्यभूमि को हासिल करने के लिए पलक पांवरे बिछाये हुए है।ऐसे इलाकों में भूमिगत माओवादी शस्त्र संघर्ष चला रहे हैं और एक तरह से देखें तो माओवादियों ने भारत सरकार के खिलाफ अघोषित युद्ध ही छेड़ रखा है।

आर्थिक रुप से टिकाऊ और सक्षम सिद्ध होने वाला पुनर्वास कर पाना अत्यंत कठिन है क्योंकि उद्योगों का प्रकृति विशिष्ट होने के कारण स्थानीय लोगों का विशिष्ट कौशल के अभाव में भागीदार बन पाना मुश्किल होता है। मिसाल के लिए दंतेवाड़ा में एस्सार ने जो संयंत्र खड़ा किया है उसे आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान के इंजीनियरों के बूते चलाया जा रहा है जबकि आसपास के ज्यादातर ग्रामीण निरक्षर हैं और या तो स्वरोजगार में लगे हैं या फिर नरेगा के अन्तर्गत काम खोजते हैं। दरअसल दो तरह की अर्थवय्वस्था एक ही इलाके में खड़ी हो गई है और दोनों में कोई तालमेल नहीं है।

खनन और विस्थापन पर केंद्रित इस बैकग्राऊंडर में निम्नलिखित तथ्य हमें आदिवासी इलाकों के व्यापक दौरे से लौटे एक वरिष्ठ संवाददाता से हासिल हुए हैं-
 
• पिछले दशक में विश्व की अर्थव्यवस्था में तेज विस्तार हुआ तो इस अर्थव्यव्स्ता की बढ़ती भूख के हिसाब से धातुओं की मांग बढ़ी और धातुओं की कीमतें आसमान चढ़ीं। देश की अर्थव्यवस्था के द्वार खुले और नियम ढीले पड़े तो खनन क्षेत्र में विदेशी पूंजी के पैर पसारने की जगह बन आई।

• याद कीजिए साल २००७ जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अब से पहले ना सुना ना देखा का मुहावरा इस्तेमाल करके धातुओं की मांग में हुई वृद्धि का स्तुतिवाचन करते हुए इस्पात उद्योग की पीठ ठोककर कह रहे थे कि १० फीसदी या उससे ज्यादा की बढ़ोत्तरी की रफ्तार साल २०२० तक बनाये रखो। उड़ीसा, झारखंड, छ्तीसगढ़ और कर्नाटक में उदारीकरण के बाद के सालों में खनन के क्षेत्र में भारी निवेश हुआ है। 
 
• याद रहे कि खनिज संसाधन से समृद्ध इलाकों में देश के सबसे बहतरीन जंगल तो हैं ही, सांस्कृतिक रुप से अत्यंत विशिष्ट कुछ जनजातियो की रहवास भी इन्हीं इलाकों में है। इनमें से अधिकतर इलाकों में मानव-विकास का सूचकांक एकदम निचले पादान पर दिखता है साथ ही इन इलाकों में वामपंथी रुझान वाला सशस्त्र गुरिल्ला संघर्ष भी चल रहा है।
 
• खनन करने वाली कंपनियों ने सरकार को बतौर रायल्टी प्रतिटन बीस से तीस रुपये थमाये  जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमतों की चढती के दौर में यही खनन-कार्य वाली कंपनियां इससे १०० गुना ज्यादा दाम वसूल रही थीं। कीमतों के इस भारी अंतर के कारण खनन बड़ा फायदेमंद धंधा बन पड़ा है। केंद्रीय सरकार ने रायल्टी की दर गिराकर रखी है और इस वजह से राज्यों से उसकी तनातनी बनी हुई है(यह तनातनी खासकर विपक्षी दल के शासन वाले राज्यों मसलन उड़ीसा और छ्त्तीसगढ़ में नजर आती है)। राज्य मांग कर रहे हैं कि उन्हें ज्यादा राजस्व हासिल होना चाहिए, साथ ही संसाधनों पर नियंत्रण भी ज्यादा दिया जाना चाहिए।
 
• खनन-उद्योग की सत्ता में पैठ ऐसी है कि पीडित समुदाय की आवाज अरण्य रुदन बनकर रह जाती है। मिसाल के लिए कर्नाटक में खनन-उद्योग से जुड़े कुछ लोग वहां की प्रान्तीय सरकार में मंत्रीपद पर हैं जबकि उड़ीसा के क्योंझर में खनन-कार्य से मोटा मुनाफा कमाने वालों में स्थानीय राजनेता भी शामिल हैं। खनन-कार्य से हो रहे मोटे मुनाफे का एक इस्तेमाल चुनाव के वक्त पार्टियों को चंदा देने में भी हुआ है।

• अर्थजगत और राजनीति के इस घालमेल में सबसे गहरी चोट सार्वजनिक महत्त्व की चीजों पर रही है। इसका एक उदाहरण है पर्यावरण का नुकसान(पानी के स्रोतों का प्रदूषण और वन-विनाश) और दूसरा उदाहरण है विस्थापितों के राहत और पुनर्वास के काम में ढिलाई। सीएसई के एक अध्ययन के मुताबिक आजाद भारत में तकरीबन पच्चीस लाख लोग सिर्फ खनन-कार्य से विस्थापित हुए हैं जबकि इनमें से महज २५ फीसदी को ही सफलतापूर्वक पुनर्वास हासिल हो पाया है। कुछ राज्यों ने पुनर्वास से संबंधित कानून बनाये हैं लेकिन ये कानून जबरिया विस्थापन के मामले में बेअसर हैं।