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ना ना करो बहाना करो- प्रभाष जोशी

फरियादी भी थे, और मुंसिफ भी था-फरियाद हुई मगर फैसला नहीं हुआ। कारण, मुंसिफ बीच बहस से उठकर चला गया। कुछ ऐसा ही नजारा पेश आया जयपुर स्थित स्थानीय विश्वविद्यालय के मानविकी विभाग के सभागार में। मौका था मजदूर किसान शक्ति संगठन और साथी संगठन द्वारा आयोजित जन-सुनवाई का और शिकायतें थीं राजस्थान के सूचना आयुक्त के कार्यालय से। सूचना आयुक्त एम डी कौरानी आये और सैकड़ों फरियादियों से भरी उस जनसुनवाई से चंद मिनटों में व्यस्तता की बात कहकर चले गए।

बहरहाल राजस्थान के सूचना आयोग की व्यस्तता कितनी है, इसका अंदाजा होता है सूचना के अधिकार को ताकतवर बनाने के लिए सूचना अधिकार मंच(राजस्थान) द्वारा जारी सुझावपत्र से। ६० सुझावों वाली इस सूचि में  सूचना आयोग में अपील करने वाले लोगों की तरफ से कहा गया है कि सूचना आयोग को १० से ६ बजे तक काम करना चाहिए। अभी तो १२-३ बजे तक ही बैठने का रिवाज है और इसमें भोजन का अवकाश भी शामिल है।आश्चर्य नहीं राज्य के सूचना आयोग के पास सालों से शिकायतों का अंबार लगा है मगर उनपर सुनवाई दिन भरे चले ढाई कोस की गति से हो रही है। मिसाल के लिए साल २००७-०८ में राज्य के सूचना आयोग के पास सूचना देने में देरी, गलत सूचना देने या फिर सूचना देने से इनकार करने के मामलों से संबंधित ४१८ शिकायतें आयीं। इसमें महज १९४ शिकायतों यानी ४९ फीसदी का ही निपटारा हो सका और शेष २५२ फरियादी अपनी बारी आने का इंतजार करते रहे ।

बात सिर्फ किसी एक साल की नहीं है। सूचना का अधिकार के लिए आवाज उठाने वाले राज्यों में अग्रणी रहे राज्य राजस्थान में सूचना आयोग कार्यालय को काम करते हुए तीन साल से ज्यादा बीत चुके हैं। सूचना का अधिकार मंच द्वारा आयोग की कार्यप्रणाली पर अपीलार्थियों  के साथ किए गए एक सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक आयोग के पास साल २००६-०७ में ८६ परिवाद आये थे जिसमें महज ४८ का निपटारा हुआ और इस साल जनवरी से जुलाई के बीच आयोग में ४३८ परिवाद दर्ज हुए हैं मगर निपटारा हुआ है महज ५८ फीसदी का।
 
परिवादों पर फैसले को रोककर रखने या उनके दर्ज नहीं करने के लिए आयोग ने पिछले तीन सालों में नौकरशाही के वही पुराने नुस्खे आजमाये हैं जिनको बेअसर करने के लिए सूचना का अधिकार कानून अमल में लाया गया था। सूचना का अधिकार मंच के सर्वे रिपोर्ट के अनुसार सूचना आयोग में परिवाद लेकर जाने वाले ६१ फीसदी अपीलार्थियों का मानते हैं कि सुनवाई की तारीख को परेशान करने के लिए बार-बार है टाला जाता है और आधे से आधे अपीलार्थी मानते हैं कि तिथि का बदलाव लोक सूचना अधिकारी की सुविधा के अनुसार किया जाता है। आयोग में अपील करने वाले ४८ फीसदी लोगों का कहना है कि आयोग उनकी बातों को सुनने के लिए पर्याप्त समय नहीं देता जिससे उन्हें आयोग में अपील की सुनवाई हो जाने के बावजूद या तो सूचना मिलती ही नहीं या फिर आधी-अधूरी मिलती है।

सर्वे रिपोर्ट के अनुसार सूचना आयोग मामले के निपटारे में देरी तो करता ही है लोक सूचना अधिकारी को जानकारी देने में देरी करने या भ्रामक सूचना देने पर चेतावनी की नोटिस जारी करने में भी लापरवाही बरतता है। सर्वे में शामिल कुल १७७ लोगों में ३३ फीसदी का कहना है कि आयोग ने सूचना देने में लापरवाही कर रहे सूचना अधिकारी को नोटिस नहीं दिया। यही नहीं आयोग सूचना छुपाने के दोषी सूचना अधिकारियों पर जुर्माना करने में भी कोताही बरतता है। सर्वे के मुताबिक कुल ८९ फीसदी अपीलार्थियों ने कहा कि दोषी अधिकारी पर जुर्माना नहीं लगाया गया।

सूचना के अधिकार को कानून की शक्ल देने में अग्रणी रहे राज्य राजस्थान में सूचना आयोग की ऐसी दशा क्यों हैं? क्या जन-जागरण के अभियान में कहीं कोई चूक है। सूचना के अधिकार अभियान से जुड़े एक कार्यकर्ता कमल टाक ने इससे इनकार करते हुए कहा-"लोग पहले से ज्यादा जागरुक हैं। इसका प्रमाण है आयोग में अपीलों की संख्या लगातार बढ़ रही संख्या।" तो क्या सूचना आयोग का कार्यालय अपने काम में कोताही कर रहा है ? मजदूर किसान शक्ति संगठन से जुड़े एक वरिष्ठ कार्यकर्ता निखिल डे का कहना है- "आयोग अपनी दंडित करने की शक्ति को प्रभावकारी तरीके से अमल में नहीं ला रहा। इससे लोग हतोत्साहित हो रहे हैं।" ऐसे में सवाल उठता है, क्या सूचना का अधिकार आयोग और उससे जुडा़ पूरा अमला बाकी नौकरशाहियों की ही तरह सूचना छुपाने के एक तंत्र में तब्दील हो रहा है? जवाब मिला जनसुनवाई में मौजूद दैनिक जनसत्ता के पूर्व-संपादक प्रभाष जोशी से- "ये(सूचना आयोग) वही लोग हैं जिन्होंने सूचना का अधिकार अधिनियम का पुरजोर विरोध किया था। इनका मंत्र है-ना ना करो, बहाना करो।"

सूचना का अधिकार मंच, राजस्थान द्वारा कराये गए सर्वे की प्रमुख बातें-

अध्ययन का उद्देश्य- यह जानना कि राजस्थान के सूचना आयोग की कार्यप्रणाली क्या रही, आयोग को प्राप्त अपीलों की स्थिति क्या थी और अपीलार्थियों को कितना लाभ मिला।
अध्ययन की कार्यप्रणाली-द्वितीय अपील लेकर आयोग पहुंचे ७०० लोगों को  कुछ सवाल भेजे गए। २०० लोगों ने इसके उत्तर दिए। कुल १७७ अपीलार्थियों के जवाब के आधार पर निष्कर्ष निकाला गया।

अध्ययन के निष्कर्ष-

आयोग ने पिछले तीन वर्षों में कभी भी ५८ फीसदी से ज्यादा शिकायतों का निपटारा नहीं किया।
६१ फीसदी अपीलार्थी मानते हैं कि सुनवाई की तिथि बार-बार टाली जाती है और उन्हें परेशानी होती है। ५० फीसदी का कहना था कि सुनवाई के लिए दो दफे जाना पड़ा, १८ फीसदी ने कहा कि २-४ बार बुलवाया गया जबकि १८ फीसदी को ४ से अधिक दफे आयोग के च्क्कर काटने पड़े।
५१ फीसदी अपीलार्थियों का कहना था कि सुनवाई की तारीख सूचना अधिकारी की सुविधा देखकर बदली जाती है।
६८ फीसदी अपीलार्थियों का कहना था कि भ्रामक सूचना देने के बावजूद आयोग ने लोक सूचना अधिकारी को क्लीन चिट दे दी।
४८ फीसदी अपीलार्थियों का कहना था कि आयोग ने उन्हें बात कहने का समय नहीं दिया।
५० फीसदी का कहना था कि द्वितीय अपील के बावजूद उन्हें सूचना नहीं मिली जबकि ३० फीसदी ने कहा कि सूचना अधूरी थी।
६३ फीसदी अपीलार्थियों ने कहा कि आयोग ने सूचना अधिकारी को कार्य में लापरवाही बरतने पर नोटिस नहीं दिया।
८९ फीसदी अपीलार्थियों का कहना था कि दोषी सूचना अधिकारी पर आयोग ने जुर्माना नहीं लगाया।