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2020 में हम भारतीयों को 1920 के इटली को जानने की जरूरत क्यों है?

-सत्याग्रह,

मैं जीवनियां खूब पढ़ता हूं. इनमें बहुत सी विदेशी हस्तियों की होती हैं जो उनके देश, काल और परिस्थितियों के बारे में बताती हैं. हाल ही में मैंने कनाडाई विद्वान फाबियो फर्नांडो रिजी की किताब ‘बेनेडेट्टो क्रोसे एंड इटैलियन फासिज्म’ खत्म की है. इस किताब में एक महान दार्शनिक की जीवनी के सहारे उस दौर की एक बड़ी सच्चाई बताई गई है.

रिजी की किताब पढ़ने के बाद मुझे 1920 के इटली और 2020 के भारत में असाधारण समानताएं दिखीं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह बेनीतो मुसोलिनी की भी एक छवि गढ़ी गई थी. यह छवि उन लेखकों और प्रचारवादियों ने गढ़ी थी जो डूचे (मुसोलिनी के लिए लोकप्रिय संबोधन) की ‘विलक्षण प्रतिभा’ की प्रशंसा में गीत गाने को आतुर थे. फासीवाद के इस नेता को ‘दैवीय मनुष्य’, ‘आस्था का मूर्त रूप’ और ऐसा इंसान कहा जाने लगा था जिस पर ईश्वर का वरदहस्त है. इस तरह डूचे का मिथक बना - एक ऐसा मुखिया जो कभी गलत नहीं होता, एक ऐसा नेता जो वहां पर फैसला लेने की हिम्मत रखता है जहां पर दूसरे असमंजस में पड़ जाते हैं.

दिसंबर 1925 में इटली की सरकार ने एक कानून बनाया. इसमें प्रेस और उसकी आजादी पर काफी पाबंदियां लगाई गई थीं. इसका नतीजा यह हुआ कि कुछ ही महीनों के भीतर एक-एक करके देश के सबसे अहम अखबारों में से ज्यादातर फासीवादियों के हाथों में आ गए. मालिकों को आर्थिक या राजनीतिक दबाव के चलते अखबार बेचना पड़ा. उदारवादी संपादकों को इस्तीफा देना पड़ा और उनकी जगह ऐसे लोगों ने ले ली जो सत्ता प्रतिष्ठान के लिए ज्यादा मुफीद थे.

उसी साल यानी 1925 में बेनेडेट्टो क्रोसे ने सत्ताधारी पार्टी और मुसोलिनी की विचारधारा की विशेषताओं के बारे में कहा कि यह कई चीजों का अजीब मेल है. उनके शब्दों में इसमें ‘सत्ता के प्रति समर्पण का आग्रह था और आम लोगों के पूर्वाग्रहों का समर्थन भी. इसमें कानूनों का सम्मान करने की बात कही जाती थी और कानूनों का उल्लंघन भी दिखता था. इस विचारधारा में अत्याधुनिक सिद्धांतों के साथ सड़ांध मारते पुराने विचारों का कूड़ा भी था और संस्कृति के प्रति घृणा के साथ एक नई संस्कृति विकसित करने की बांझ कोशिशें भी थीं.’

इस तरह देखें तो 1920 के दशक के इतालवी राष्ट्र राज्य और आज की मोदी सरकार के समय में असाधारण समानताएं दिखती हैं. यह सरकार भी संविधान के बारे में सम्मान के साथ बात करती है जबकि व्यवहार में वह इसकी भावना का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करती है. यह पुरातन ज्ञान का बखान करती है और आधुनिक विज्ञान का उपहास. महान प्राचीन संस्कृति के गीत गाती है जबकि व्यवहार में बहुत हल्कापन दिखाती है.

1920 के दशक में इटली के ज्यादातर स्वतंत्रचेत्ता बुद्धिजीवियों का जबरन देशनिकाला हो गया था. लेकिन बेनेडेट्टो क्रोसे ने अपनी मातृभूमि नहीं छोड़ी और फासीवाद का बौद्धिक और नैतिक प्रतिरोध करते रहे. जैसा कि उनके जीवनीकार ने लिखा है, ‘सरकार मीडिया और शिक्षण तंत्र का इस्तेमाल करके मुसोलिनी की व्यक्ति पूजा और सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति पूर्ण समर्पण की संस्कृति को बढ़ावा दे रही थी. डूचे का समर्थन करने वाली नई पीढ़ी से कहा जा रहा था कि वह सवाल किए बिना विश्वास, आज्ञा का पालन और युद्ध करने के लिए तैयार रहे. उधर, क्रोसे इसके बजाय उदार मूल्यों, स्वतंत्रता, मनुष्य की गरिमा, हर व्यक्ति को अपने फैसले लेने की छूट और व्यक्तिगत जवाबदेही की बात कर रहे थे.’

रिजी की किताब को आगे पढ़ते हुए मेरे सामने ये पंक्तियां आईं:

‘1926 के आखिर तक उदार इटली की मृत्यु हो चुकी थी. मुसोलिनी ने अपनी ताकत और बढ़ा ली थी और ऐसे कानूनी उपाय भी कर लिए थे जिनसे उसकी तानाशाही जारी रह सके. राजनीतिक पार्टियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और प्रेस की आजादी खत्म कर दी गई थी. विपक्ष दंतविहीन बना दिया गया था और संसद शक्तिहीन. साल 1927 आते-आते कोई भी राजनीतिक कार्रवाई लगभग असंभव हो गई थी; सार्वजनिक जगहों यहां तक कि निजी चिट्ठियों में भी सरकार की आलोचना खतरे से खाली नहीं थी. सरकार की नीतियों के विरोध में विचार व्यक्त करने वाले कर्मचारियों की नौकरी जा सकती थी. गृह मंत्रालय के तहत आने वाली पुलिस की एक इकाई की ताकत तो बढ़ाई ही गई थी, एक गोपनीय और प्रभावी पुलिस संगठन की स्थापना भी कर दी गई थी. ओवरा नाम के इस रहस्यमय और डरावने संगठन का मकसद था फासीवाद के खिलाफ किसी भी संकेत और असहमति का दमन. थोड़े ही समय में इसने एक लाख से भी ज्यादा लोगों की जानकारियों से जुड़ी फाइलें इकट्ठा कर लीं जिनमें फासीवादी नेता भी शामिल थे. इसके अलावा उसने स्पेशल एजेंटों, जासूसों और मुखबिरों का एक प्रभावी जाल भी बना लिया था जिसकी पहुंच विदेशों तक थी.’

जब मैं रिजी की किताब से इन शब्दों को उतार रहा था तो उसी समय खबर आ रही थी कि गृह मंत्रालय ने वित्त आयोग से नागरिकों के ‘रियल टाइम सर्वेलेंस’ के लिए फंड बनाने के मकसद से 50 हजार करोड़ रु की मांग की है. यह ऐसे समय पर हो रहा है जब राज्य आरोप लगा रहे हैं कि केंद्र उन्हें उनका बकाया नहीं दे रहा और स्वतंत्र विचारकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर थोपे गए फर्जी मामलों के जरिये गृह मंत्रालय पहले ही खतरनाक रूप से अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर रहा है.

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