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80 प्रतिशत महिलाएं नहीं जानतीं क्या है माहवारी- रजनीश आनंद

औरत जात के शरीर से खून जाता है, सो मेरे शरीर से भी जाता है. ई काहे होता है. ऊ हम नहीं जानते. यह कहना है लगभग 35 वर्षीय सुशीला देवी का. सुशीला चाईबासा जिले के बंदगांव प्रखंड, मेरोमगुटू पंचायत के कटवा गांव की रहने वाली हैं.

माहवारी को लेकर इस पंचायत में किस कदर ज्ञान का अभाव है, इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सौ महिलाओं में से एक ने भी इस बात का जवाब नहीं दिया कि आखिर माहवारी है क्या और यह क्यों होती है.

बंदगांव प्रखंड में 209 गांव हैं, जिनमें 13 पंचायते हैं. बंदगांव प्रखंड रांची जिले से 62 किलोमीटर और चाईबासा से 70 किलोमीटर दूर स्थित है. पूरी तरह से माओवाद प्रभावित यह प्रखंड विकास से कोसों दूर है. जीवन की बुनियादी सुविधाएं भी लोगों को बमुश्किल मयस्सर हो पा रही हैं.

बंदगांव चेकनाका के बाद तीन से पांच किलोमीटर की परिधि में बसे गांव मेरोमगुटू, कटवा, कोंडाकेल, ईटी और सिटीबुरू की महिलाओं से बातचीत के बात यह ज्ञात हुआ कि उन्हें अपने शरीर में हो रही इस क्रिया का कोई ज्ञान नहीं है. किशोरियों से लेकर वृद्धाओं तक सब के ज्ञान का स्तर माहवारी को लेकर एकसमान है.

गांव में बहुसंख्यक लोग आदिवासी हैं, इस समाज में माहवारी को लेकर कई तरह की भ्रांतियां फैली हुईं हैं. कटवा गांव की एक वृद्धा रानी मुंडरी (80 वर्ष) का कहना है कि माहवारी के आने से महिलाएं अछूत हो जाती हैं. इसलिए शुद्ध होने तक उसे अलग-थलग कर दिया जाता है. उदाहरण स्वरूप वह पूजा-पाठ से दूर रहती है. भंडारगृह जहां धान सहित अन्य अनाज का भंडारण किया जाता है, वहां नहीं जाती हैं. इन भ्रांतियों के पीछे तर्क यह है कि अगर उनके शरीर का संपर्क अनाज से हो गया तो वह अशुद्ध हो जायेगा.

नंदी मुंडरी (40 वर्ष) का कहना है कि माहवारी की चर्चा किसी से नहीं करनी चाहिए. इससे नजर लग जाती है. उसने बताया कि एक बार किसी दूसरी महिला ने उसका कपड़ा (माहवारी के दौरान इस्तेमाल किया जाने वाला) देख लिया था, उसके बाद डेढ़ वर्ष तक उसके शरीर से खून लगातार आता रहा. अब काफी सुधार हुआ है. लेकिन अभी भी महीने में दो बार माहवारी होती है.

माहवारी को लेकर महिलाओं के बीच इतनी भ्रांतियां हैं कि रानी हंसापूर्ति बताती हैं कि वे माहवारी के दौरान इस्तेमाल किये जाने वाले कपड़े को छुपाकर धोती हैं, ताकि कोई देखे नहीं. देख लेने से गर्भपात की आशंका बढ़ जाती है. शर्म और डर से वे कपड़े को घर के अंदर ही सुखाती हैं. कपड़े पर सूरज की रोशनी नहीं पड़ने से उनमें संक्रमण की आशंका अत्यधिक रहती है.

आजकल महिलाएं कपड़ा धोने के लिए साबुन वगैरह इस्तेमाल कर लेती हैं, अन्यथा पहले पानी से धोकर उसे राख के साथ गर्म पानी में उबालती थीं. पूरे देश में महिलाओं को स्वास्थ्य संबंधित जानकारी देने के लिए स्वास्थ्य सहिया (आशा) को नियुक्त किया गया है. लेकिन यहां की स्वास्थ्य सहिया उसरुसिला बोदरा कहती हैं कि हमारे गांव क्या पूरे प्रखंड के किसी भी गांव की महिला को नहीं मालूम कि माहवारी क्या है और क्यों होती है.

सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि किसी भी महिला ने इस बात को स्वीकार नहीं किया कि माहवारी के शुरुआती दिनों में उन्हें इस संबंध में किसी तरह की कोई जानकारी मां-नानी या दादी से मिली. उन्हें पैड तक इस्तेमाल करने का तरीका घर में नहीं बताया गया. सहेलियों और खुद के निर्णय से महिलाओं ने खून रोकने के लिए कपड़े का सहारा लिया. आज भी इस प्रखंड की 80 प्रतिशत महिलाएं माहवारी के दौरान फटे-पुराने और गंदे कपड़े का प्रयोग करती हैं. सरकारी दर पर मिलने वाले पैड की न तो इन्हें जानकारी है और न ही सहिया को वितरण के लिए पैड मुहैया कराया जाता है.

गांव की महिलाएं माहवारी के संबंध में बात करने से काफी हिचकती हैं. शर्म उनके आड़े आ जाता है. समाज में व्याप्त भ्रांतियों के कारण महिलाएं कई तरह की बीमारियों की गिरफ्त में हैं.जिनमें जननांग में खुजली, सफेद पानी आना, महीने में दो बार माहवारी होना, सिर चक्कराना इत्यादि शामिल है.

(यह आलेख आइएमचेंज, इंक्लूसिव मीडिया यूएनडीपी फेलोशिप के तहत प्रकाशित है)