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पूंजीवाद के अंतर्गत वित्तीय बाज़ारों के लिए बैंक का निजीकरण हितकर नहीं

-न्यूजक्लिक,

प्रख्यात अर्थशास्त्री, जॉन मेनार्ड केन्स के सबसे महत्वपूर्ण तर्कों में से एक यह था कि पूंजीवाद के अंतर्गत वित्तीय बाजारों का संचालन, गहराई तक त्रुटिपूर्ण होता है। इस तरह के बाजार अंतर्निहित रूप से एक ओर ‘उद्यम’ और दूसरी ओर ‘सट्टे’ में भेद कर पाने में ही असमर्थ होते हैं। याद रहे कि उद्यम वह होता है जिसमें किसी परिसंपत्ति को उसका स्वामी अपने पास इसलिए रखता है ताकि वक्त के साथ इस मिल्कियत से आने वाली कमाई की धारा से लाभान्वित हो। दूसरी ओर, सट्टा वह होता है जिसमें किसी परिसंपत्ति को इस लाभ के लिए उसका स्वामी नहीं रखता है बल्कि वह तो इस उम्मीद में परिसंपत्ति को अपने पास रखता है कि उसे कल किसी और को और ज्यादा दाम पर बेच देगा और वह खरीदने वाला इसे इसलिए खरीद रहा होगा ताकि वह उसे परसों किसी को और भी ज्यादा दाम पर बेच दे।

परिसंपत्तियों के बाजार में इन सटोरियों की मौजूदगी, किसी परिसंपत्ति की ‘असली कीमत’ यानी भविष्य में उससे मिलने वाली डिस्काउंटेड इनकम की धारा के वर्तमान मूल्य को प्रतिबिंबित होने को रोकती है। और इस विचलन का नतीजा यह होता है कि जहां तक वित्तीय बाजारों के निवेश के लिए उपलब्ध संसाधनों का यानी उस समाज के अधिकतम संभव उत्पाद (पूर्ण रोजगार पर) तथा उस उत्पाद के पैदा किए जाने की सूरत में होने वाले उपभोग, दोनों के बीच के अंतर को, खास परिसंपत्तियों की और ज्यादा मात्रा को पैदा करने में लगाने (जिसे हम निवेश कहते हैं) के लिए संजोने का सवाल है, उसकी गणनाएं हमेशा ही गलत होती रहती हैं। निवेश्य संसाधनों के विभिन्न परिसंपत्तियों के बीच वितरण के अलावा, इन वितरित होने वाले संसाधनों का योग भी अक्सर उपलब्ध निवेश्य संसाधनों की तुलना में बहुत कम रहता है और कभी-कभार उसकी तुलना में बहुत ज्यादा। बाद वाली स्थिति में मुद्रास्फीति पैदा होती है। लेकिन, पहले वाली सूरत में, जो कि कहीं ज्यादा आम-फहम है, बेरोजगारी पैदा होती है (या वह स्थिति जिसे मार्क्स ने ‘अधि-उत्पादन’ का संकट का नाम दिया था।)

इसलिए, केन्स की दलील थी निवेश्य संसाधनों को जुटाने तथा उनके वितरण को, वित्तीय बाजारों पर नहीं छोड़ा जा सकता है, क्योंकि ऐसा हुआ तो पूरी व्यवस्था पर बेरोजगारी के ऐसे ऊंचे स्तर लाद दिए जाएंगे, जो जनता को स्वीकार्य नहीं होंगे और इससे तो संंबंधित पूंजीवादी व्यवस्था का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। चूंकि वह इस व्यवस्था का अस्तित्व बचाने के लिए उत्सुक थे, उनका कहना था कि निवेश्य संसाधनों के वितरण की यह जिम्मेदारी शासन को खुद संभालनी चाहिए। राज्य द्वारा इस जिम्मेदारी के संभाले जाने को उन्होंने, ‘निवेश का सामाजिकीकरण’ का नाम दिया था। संक्षेप में यह कि पूंजीवाद को, खुद अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए निवेश का सामाजिकीकरण किए जाने की यानी ऐसी नीतियों पर चले जाने की जरूरत थी, जो हमेशा ही व्यवस्था को पूर्ण-रोजगार के करीब बनाए रखें।

लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि राज्य या शासन इस मामले में तभी हस्तक्षेप करे, जब बेरोजगारी पैदा हो जाए। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि शासन तब हस्तक्षेप करने से दूर रहे जब सट्टा बाजार उछाल पर हो, तब तो इस व्यवस्था में बेरोजगारी का स्तर वैसे भी बहुत ज्यादा होगा या शासन का हस्तक्षेप उसी स्थिति में हो जब इस तरह का उछाल बैठ जाए। इसका आशय यह था कि शासन की कहीं ज्यादा स्थायी या टिकाऊ भूमिका होनी चाहिए, ताकि मूड के ऐसे उतार-चढ़ावों के प्रभाव की काट करते हुए, पूर्ण रोजगार सुनिश्चित किया जा सके। इसका अर्थ यह है कि राज्य को, वित्तीय बाजारों को नियंत्रित करना चाहिए।

वित्तीय बाजारों पर नियंत्रण रखने का सबसे स्वत:स्पष्ट तरीका तो यही है कि वित्तीय बाजारों के प्रतिभागियों के आचरण पर अंकुश लगाए जाएं। मिसाल के तौर पर वित्तीय संस्थाओं के आचरण को नियंत्रित किया जाए कि उन्हें सट्टा करने की इजाजत है या नहीं या वे अपने फंड सटोरियों को उपलब्ध करा सकती हैं या नहीं? इसी के अनुसार, अमरीका में फ्रेंंकलिन डी रूजवेल्ट की नयी डील के दौरान, ग्लास-स्टीगल एक्ट बनाया गया था, जो वाणिज्यिक बैंकिंग तथा निवेश बैंकिंंग में अंतर करता था और जनता की जमा राशियां लेने वाले वाणिज्यिक बैंकों के, सट्टे बाजाराना गतिविधियों में शामिल होने पर रोक लगाता था। इस कानून को क्लिंटन प्रशासन ने हटा दिया था और इसी ने परिसंपत्तियों के मूल्य के बड़े बुलबुलों को बनाए रखा, जिनके सहारे अमरीकी अर्थव्यवस्था में और इसलिए विश्व अर्थव्यवस्था में भी उछाल बने रहे थे। लेकिन, उसी तर्क से मांग की उछाल थमने की स्थिति ने अमरीकी तथा विश्व अर्थव्यवस्था को बेरोजगारी के कहीं ऊंचे स्तरों पर धकेल दिया था। और यह महामारी के आने से पहले की बात है।

लेकिन, इस तरह के सट्टा बाजार-उप्रेरित उछालों के बैठने की समस्या सिर्फ यही नहीं है कि इनसे वास्तविक अर्थव्यवस्था भी बैठ जाती है। इन उछालों के बैठने की समस्या सबसे बढक़र तो यह है कि इससे वित्तीय अर्थव्यवस्था ही बैठ जाती है। मांग की उछाल थमने के बाद, ओबामा प्रशासन को वित्तीय अर्थव्यवस्था को बैठने से बचाने के लिए, 130 खरब डॉलर वित्तीय अर्थव्यवस्था में डालने पड़े थे। वास्तव में, पूंजीवाद के अंतर्गत वित्तीय बाजारों का एक खोट यह है कि इसमें न सिर्फ रोजगार की दशा मुट्ठीभर सटोरियों के रहमो-करम पर होती है बल्कि वित्तीय संस्थाओं की व्यवहार्यता भी इस तरह के विचारों पर निर्भर होती है। इसलिए, यह और भी जरूरी हो जाता है कि अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनाने वाली वित्तीय संस्थाओं को, शासन के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के जरिए, सट्टे बाजाराना गतिविधियों में शामिल होने से रोका जाए।

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