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विशेष: जब भगत सिंह ने किया किसानों को संगठित करने का प्रयास

-न्यूजक्लिक,

भगत सिंह के बारे में आमतौर पर यह कहा जाता है कि वे थे तो समाजवादी विचारों के लेकिन उन्होंने कभी किसानों-मजदूरों को संगठित करने का प्रयास नहीं किया। प्रोफेसर बिपन चन्द्र और एस. इरफ़ान हबीब ने इसे भगत सिंह और साथियों की एक बड़ी कमी बताया है। लेकिन जब मैं अपनी पीएचडी थीसिस लिखने के लिए शोध कर रहा था तो कुछ ऐसे चौंकाने वाले तथ्य सामने आये जिनका जिक्र कभी इतिहासकारों ने नहीं किया। ये तथ्य हैं भगत सिंह और किसान नेता मदारी पासी के बीच हुई मुलाकातों के बारे में जिसके ऊपर उनके साथियों शिव वर्मा और जयदेव कपूर ने नयी दिल्ली स्थित तीनमूर्ती भवन में दिए अपने साक्षात्कारों में काफी विस्तार से बताया है।

अवध के किसानों की दुर्दशा   

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अवध में तालुकेदारी व्यवस्था व्याप्त थी। तालुकेदार पुराने सामंती परिवारों के सदस्य थे जिन्हें नवाबों के ज़माने में कई-कई गावों से राज्य के लिए कर वसूलने का अधिकार मिला था। 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने इस अतिसंपन्न वर्ग से समझौता कर लिया और ये लोग मनमाने ढंग से किसानों से लगान वसूलने लगे। तालुकेदार या बड़े ज़मींदार ज़मीन पर खुद खेती न करके उसे किसानों को बटाई पर दे देते थे पर ज़मीन पर मालिकाना हक उनका अपना ही रहता था। ज़मीन के बदले वे किसानो से बहुत ऊंचा कर वसूलते थे जिससे अँगरेज़ सरकार के खजाने में भूराजस्व जमा किया जाता था। भूमि-कर के अलावा ये लोग किसानों से जोर-जबरदस्ती हरी, बेगारी (बिना मूल्य दिए श्रम कराना), नज़राना, मुर्दाफरोशी, लड़ाई-चंदा, घोड़ावन और चारावन आदि जैसे मनमाने टैक्स भी वसूलते थे जिससे किसान काफी परेशान रहते थे। किसान खेती करने के लिए खेतिहर मजदूरों का सहारा लेते थे जो अक्सर दलित जातियों से होते थे। वे भी ‘ऊंची’ जात वाले ज़मींदारों और उनके कारिंदों से त्रस्त थे।

प्रथम विश्वयुद्ध के उपरान्त भारत के किसानों की हालत बहुत खराब हो गई। सूखा पड़ने के कारण उनकी फसलें बर्बाद हो गयीं, युद्ध के कारण अनाज और तेल की कमी हो गई और महंगाई बहुत बढ़ गई थी। और तो और स्पेनिश फ्लू की महामारी ने हालात बद से बदतर कर दिए थे। ऐसी विकट परिस्थितियों में ज़मींदारों को कर दे पाना असंभव था लेकिन शोषक वर्ग कहाँ मानने वाला था? उसने किसानों को उनकी ज़मीनों से बेदखल करके उन्हें नीलाम करना शुरू कर दिया। ऐसे में सन् 1920 में बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में अवध के किसानों ने ज़मींदारों के अत्याचार के खिलाफ आन्दोलन छेड़ दिया। उन्होंने मांग की कि उनसे केवल वाजिब कर ही वसूला जाए और अतिरिक्त कर मनमाने ढंग से उनपर न थोपे जाएँ। इसी दौरान गांधीजी का असहयोग आन्दोलन भी शुरू हो गया लेकिन कांग्रेस ने खुलकर किसान आन्दोलन को समर्थन नहीं दिया क्योंकि वह देसी ज़मींदारों को नाराज़ नहीं करना चाहती थी। अँगरेज़ सरकार ने बाबा रामचंद्र को गिरफ्तार कर लिया और उनके आन्दोलन को निर्दयतापूर्वक कुचल दिया।

हरदोई से आरम्भ हुआ ‘एका’

इन्हीं दिनों हरदोई जिले के पास एक दलित परिवार में जन्में मदारी पासी ने ‘एका आन्दोलन’ छेड़ दिया। एका का मतलब होता है एकता और मदारी ने तालुकेदारों और ज़मींदारों के खिलाफ किसानों की एकता का नारा बुलंद किया। उनकी मांगें भी बाबा रामचंद्र जैसी ही थीं लेकिन उन्होंने दो कदम आगे बढ़कर स्वदेशी, स्वराज और ब्रिटिश न्याय व्यवस्था की जगह पंचायती न्याय व्यवस्था को स्थापित करना भी अपना लक्ष्य बनाया। मदारी पासी हालांकि जाति से दलित थे लेकिन वे एक संपन्न किसान थे। फिर भी उन्होंने बड़े, मध्यम, गरीब, सीमान्त किसानों तथा खेतिहर मजदूरों, सबको संगठित किया।

प्रसिद्ध क्रांतिकारी शिव वर्मा, जिन्होंने एक स्कूली छात्र के रूप में इस आन्दोलन में हिस्सा लिया था, अपनी अप्रकाशित आत्मकथा में लिखते हैं,

“इस आन्दोलन में किसान आपसी तालमेल के लिए ‘सुपारी’ का इस्तेमाल करते थे। पासी अलग-अलग गाँवों में जनसभाओं और कथाओं का आयोजन करते थे। किसान हज़ारों की संख्या में इन सभाओं में इकट्ठा होते। पासी उनसे कहते कि ये तुम्हारी ज़मीन, तुम्हारी मेहनत है लेकिन फसलें कोई और ले जाता है। वे उन्हें लगान नहीं अदा करने की कसम खिलवाते। वे ये भी प्रतिज्ञा करवाते कि अगर एक किसान भाई की ज़मीन नीलाम हो तो कोई दूसरा किसान भाई उसे न खरीदे। हर सभा में मंच पर गीता और कुरआन दोनों रखी जाती थीं। हिन्दू और मुसलमान किसान एकजुट रहने का प्रण लेते, इसीलिए आन्दोलन का नाम ‘एका’ पड़ा। जल्द ही आन्दोलन हरदोई से सीतापुर, लखनऊ, बहराईच, बाराबंकी, उन्नाव, फतेहपुर और फर्रुखाबाद जिलों में भी फ़ैल गया।”

मदारी पासी ने ज़मींदारों और पटवारियों के सामाजिक बाहिष्कार पर भी जोर दिया। ज़मींदारों के गुंडों और पुलिस ने अपना दमनचक्र चलाया और आन्दोलनकारियों पर तरह-तरह के अत्याचार हुए। सैकड़ों किसान गिरफ्तार कर लिए गए और जल्दी-जल्दी मुक़दमे चलाकर जेलों में भेज दिए गए। उनकी संपत्ति तक जब्त कर ली गयी। प्रांतीय कांग्रेस ने आन्दोलन को ‘हिंसक’ बताते हुए उसका समर्थन करने से मना कर दिया। निराश होकर युवा शिव वर्मा कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी के पास पहुंचे जिन्होंने किसानों के प्रति अपनी पूरी सहानुभूति व्यक्त की और अपने लोकप्रिय समाचार-पत्र ‘प्रताप’ में पूरे आन्दोलन के बारे में विस्तृत जानकारी देने का वादा किया। लेकिन राजकीय दमन के सामने एका आन्दोलन टिक नहीं पाया और मदारी पासी को भूमिगत होना पड़ा। आखिरकार जून 1922 में वे गिरफ्तार कर लिए गए।

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