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बड़ी पड़ताल: उत्तराखंड में रिवर्स माइग्रेशन, कितना टिकाऊ?

-डाउन टू अर्थ,

उत्तराखंड के प्रमुख पर्वतीय शहर पौड़ी से लगभग 15 किलोमीटर दूर गांव कठूड़ की स्यारियों (गदेरे यानी बरसाती नदी से लगते खेत) में विकास रावत और आलोक चारू अपने साथियों के साथ खेत में लगी सब्जियां तोड़ रहे हैं। कुछ ही देर में आसपास के गांव के लोग ये सब्जियां खरीदने आने वाले हैं। ये लोग पेशे से सब्जी किसान नहीं हैं। विकास कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए शुरू हुए लॉकडाउन से पहले जनपद के ही कस्बे घुड़दड़ी में होटल चलाते थे, लेकिन लॉकडाउन के चलते काम बंद हो गया तो वह अपने गांव लौट आए। उनकी तरह आलोक चारू व दो अन्य युवा साथी भी गांव लौटे थे। सब ने मिलकर गांव के बंजर खेतों को आबाद करने की योजना बनाई। इसके लिए गदेरे के पास के खेतों को चुना गया। यहां उनके खेत भी थे। पास के कुछ अन्य बंजर खेतों पर बुआई के लिए उन्होंने गांव वालों को भी तैयार कर लिया और इस तरह लगभग 20 नाली (लगभग 4 बीघा यानी एक एकड़) जमीन के चारों ओर घेरबंदी करअप्रैल में खेती की शुरुआत की गई। खेतों में बींस, गोभी, टमाटर, शिमला मिर्च, बैंगन, भिंडी आदि लगाई गई। विकास और उनके साथियों की मेहनत रंग लाई और दो महीने बाद ही उन्होंने सब्जियां बेचनी शुरू कर दी। अब नालियों में दाल, कोदा, धान, राजमा भी लगाया है। शुरुआती सफलता के बाद अब ये युवा पॉलीहाउस लगाने की तैयारी में हैं।

उत्तराखंड के पौड़ी जिले के गांव कठूड़ में खेती करते युवा। फोटो: श्रीकांत चौधरी
विकास बताते हैं कि घुड़दड़ी में काम ठीकठाक चलता था, लेकिन महीने में 10-15 हजार रुपए ही बच पाते थे। लगभग इतनी ही कमाई दूसरे युवाओं की भी थी। लेकिन अब यहां आमदनी होने लगी है। अभी रोजाना 2-3 हजार रुपए की सब्जी बिक जाती है। उन्हें उम्मीद है कि साथ काम कर रहे युवा खेती से लॉकडाउन से पहले से अधिक कमा लेंगे।

विकास और उनके साथी पहाड़ में प्रचलित उस कहावत को झुठलाने का प्रयास कर रहे हैं, जो कहती है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती, बल्कि बहकर मैदान में पहुंच जाती है और वहां के काम आती है।

भुतहा गांवों का प्रदेश उत्तराखंड

आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के बाद उत्तराखंड दूसरा राज्य है, जहां से पलायन सबसे अधिक हुआ है। इस सर्वेक्षण में उन जिलों को चिन्हित किया गया था, जहां से सबसे अधिक पलायन हुआ था। इनमें उत्तर प्रदेश के 39 जिले, उत्तराखंड के नौ जिले और बिहार के आठ जिले शामिल थे। इस आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, देश में 1991-2001 के दशक में पलायन की दर 2.4 प्रतिशत थी जो 2001-11 के दशक में लगभग दोगुनी बढ़कर 4.5 प्रतिशत पर पहुंच गई। इन दो दशकों में उत्तराखंड में भी पलायन तेजी से हुआ। एक गैर लाभकारी संगठन इंटीग्रेटेड माउंटेन इनीशिएटिव (आईएमआई) की “स्टेट ऑफ द हिमालय फार्मर्स एंड फार्मिंग” रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2000 में उत्तराखंड के गठन के बाद से पर्वतीय क्षेत्रों की 35 प्रतिशत आबादी पलायन कर चुकी है। इन क्षेत्रों से औसतन प्रतिदिन 246 लोगों ने पलायन किया। उत्तराखंड के आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 में कहा गया है कि आर्थिक असमानताओं के साथ-साथ कृषि में गिरावट, गिरती ग्रामीण आय और तनावग्रस्त ग्रामीण अर्थव्यवस्था के कारण उत्तराखंड में पलायन हुआ। उत्तराखंड पहला ऐसा राज्य है, जहां पलायन को रोकने के लिए 2017 में आयोग का गठन किया गया। यह पलायन आयोग द्वारा सितंबर 2019 में जारी अपनी एक रिपोर्ट में कहता है कि वर्ष 2001 और 2011 की जनगणना के आंकड़ों की तुलना करने पर जनपद अल्मोड़ा और पौड़ी गढ़वाल में नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि दर्ज की गई। इन 10 वर्षों के दौरान 6,338 ग्राम पंचायतों से कुल 3,83,726 लोगों ने अस्थायी और 3,946 ग्राम पंचायतों से 1,18,981 लोगों ने स्थायी रूप से पलायन किया। सभी जिलों में 26 से 35 आयु वर्ग के युवाओं ने सबसे अधिक पलायन किया। इनका औसत 42.25 प्रतिशत है।

यह रिपोर्ट बताती है कि रोजगार की खोज के लिए 50.16 प्रतिशत, शिक्षा के लिए 15.21 प्रतिशत और स्वास्थ्य सेवाओं में कमी के कारण 8.83 प्रतिशत लोगों ने पलायन किया। इतना ही नहीं, 5.61 प्रतिशत लोग जंगली जानवरों से तंग आकर पलायन कर गए तो 5.44 प्रतिशत लोगों को कृषि उत्पादन में कमी के कारण घर छोड़ना पड़ा। 2011 की जनगणना से पहले उत्तराखंड में कुल 16,793 गांवों में से 1,048 गांव निर्जन पाए गए थे। लेकिन अप्रैल 2018 में जब उत्तराखंड ग्रामीण विकास एवं पलायन आयोग ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट दी तो बताया कि जनगणना के बाद राज्य में 734 अन्य गांव निर्जन हो चुके हैं, जबकि 565 गांव ऐसे पाए गए, जहां एक दशक के दौरान आबादी में 50 प्रतिशत से अधिक कमी आई थी। इन निर्जन गांवों को भुतहा गांव कहा जाता है।

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