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जलवायु परिवर्तन: संकट को नकारने की गुंजाइश खत्म

-डाउन टू अर्थ,

अब किसी “शायद” की गुंजाइश नहीं बची है। जलवायु परिवर्तन का खतरा वास्तविक है और इसके खतरे आसन्न तो हैं ही, भविष्य भी भयावह है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट का यह संदेश हमारे आसपास हो रहे बदलावों की पुष्टि करता है। अत्यधिक गर्मी के कारण जंगल की आग से लेकर अत्यधिक बारिश की घटनाओं के कारण आती विनाशकारी बाढ़ और समुद्र एवं भूमि की सतह के बीच बदलते तापमान के कारण उष्णकटिबंधीय चक्रवातों तक के ये संकट अब भविष्य के न होकर हमारे वर्तमान में आ चुके हैं और हमें बहुत चिंतित होने की आवश्यकता है। यह रिपोर्ट उन वैज्ञानिकों के माध्यम से आई है जो सामान्य रूप से पारंपरिक और अनुसरणवादी रहे हैं और इसलिए हमें खतरे को समझकर वास्तविक एवं सार्थक कारवाई करनी होगी।

इस रिपोर्ट के कुछ पहलू काफी महत्वपूर्ण हैं। पहला, अब यह स्पष्ट है कि 2040 तक पृथ्वी के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है। इसका मतलब यह हुआ कि अगले दो दशकों में हम खतरे के निशान को पार कर जाएंगे। 1880 के दशक (औद्योगिक क्रांति के समय) से केवल 1.09 डिग्री सेल्सियस की तापमान वृद्धि के फलस्वरूप बड़े पैमाने पर तबाही हो रही है और हमें इस विज्ञान की चेतावनी को सुनना ही पड़ेगा। दूसरा, आईपीसीसी के वैज्ञानिक अब हमें स्पष्ट रूप से यह बताने में संकोच नहीं कर रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन मानवीय गतिविधियों के कारण होता है। यही नहीं, उन्होंने कुछ चरम मौसमी घटनाओं को जलवायु परिवर्तन से जोड़ा है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि अब तक हम दुनिया में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को इस तरह की घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति के संदर्भ में ही समझ पाए हैं। लेकिन अब, हम कनाडा में अत्यधिक गर्मी की घटना या ग्रीस में जंगल की आग या जर्मनी की बाढ़ में जलवायु परिवर्तन की भूमिका को अधिक निश्चितता के साथ जानते हैं। अब अगर-मगर की बात नहीं रही।

सवाल यह है कि क्या हम इस पर ध्यान दे रहे हैं? क्या आवश्यक पैमाने और गति पर कार्रवाई की जा रही है? ऐसा अभी भी नहीं हो रहा है। और यहीं पर आईपीसीसी रिपोर्ट की तीसरी बड़ी विशेषता को समझना चाहिए। विज्ञान हमें चेता रहा है कि आने वाले वर्षों में पृथ्वी के “सिंक” अथवा प्राकृतिक सफाई प्रणालियां जैसे महासागरों, जंगलों और मिट्टी की सापेक्ष दक्षता में कमी आएगी क्योंकि उत्सर्जन में वृद्धि जारी रहेगी। वर्तमान में महासागर, भूमि और वन मिलकर हमारे द्वारा वायुमंडल में छोड़े जाने वाले उत्सर्जन का लगभग 50 प्रतिशत अवशोषित करते हैं। दूसरे शब्दों में, इन सिंक के बिना, हम पहले ही 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की सीमा को पार कर चुके होते। लेकिन यह रिपोर्ट हमें यह भी बताती है कि हम भविष्य में इसी दर से उत्सर्जन को साफ करने के लिए सिंक पर निर्भर नहीं रह सकते। इसका मतलब है कि देशों की “नेट जीरो” योजनाओं पर फिर से विचार करना होगा। नेट-जीरो योजना के तहत, अमेरिका (2050 तक) और चीन (2060 तक) जैसे देशों ने घोषणा की है कि उनका उत्सर्जन उस स्तर से नीचे रहेगा, जो उनकी स्थलीय सिंक या कार्बन कैप्चर तकनीक साफ करने में सक्षम होगी। अब अगर हम आईपीसीसी की मानें तो ये सिंक अपने चरम बिंदु पर पहुंच गए हैं। देशों को कार्बन डाईऑक्साइड को अलग करने और अधिक पेड़ लगाने के लिए और भी अधिक मेहनत करनी होगी।

इसलिए, वैश्विक वैज्ञानिकों की यह रिपोर्ट एक वेक-अप कॉल की तरह होनी चाहिए। अब हम काम न करने के नए बहाने ढूंढने में और समय नहीं व्यर्थ कर सकते और 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन के खोखले वादे भी इसमें शामिल हैं। आज समय आ गया है कि हम गंभीर हों और जमीनी स्तर पर सार्थक कार्रवाई शुरू करें। अच्छी खबर यह है कि वर्तमान जीवाश्म ईंधन से चलने वाली औद्योगिक प्रणाली को बाधित करने के लिए प्रौद्योगिकियां उपलब्ध हैं। हमें इन तकनीकों का इंतजार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके बजाय हमें निर्णायक कदम उठाने होंगे। समस्या यह है कि आज भी धरातल पर कार्रवाई बहुत कम और बहुत देर से होती है। वास्तव में, ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन बढ़ेगा क्योंकि कोविड-19 महामारी की चपेट में आई अर्थव्यवस्थाएं वापस सामान्य होने के लिए दोगुनी मेहनत करेंगी। हर देश रिकवरी के लिए बेताब है। इसका मतलब है कि मौजूदा अर्थव्यवस्था के साथ कुछ भी किया जा सकता है। कोयला, गैस और तेल का उपयोग करके विकास को जितनी जल्दी हो सके तेज करने के लिए वह सब किया जाएगा।

विज्ञान भी इस मामले में बहुत स्पष्ट है। हमें 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 2010 के स्तर से 45-50 प्रतिशत कम करने और 2050 तक नेट-जीरो तक पहुंचने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में, हमें परिवर्तनकारी कार्रवाई की आवश्यकता है। 2030 तक सारी कारों को इलेक्ट्रिक वाहनों में बदल देना या कोयले का इस्तेमाल रोककर प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल करना आदि ये सब छोटे-मोटे उपाय हैं। हमें सख्त और कठोर कार्रवाई की आवश्यकता है।

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