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यूपी-बिहार में दलित-राजनीति की दुर्गति!

-न्यूजक्लिक,

उत्तर प्रदेश में राज्यसभा की दस सीटों के लिए 9 नवम्बर को होने वाले चुनावों के समीकरण में अचानक एक दिलचस्प मोड़ नहीं आता तो भी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की भाजपा से बढ़ती नजदीकियां अब किसी से छिपी नहीं हैं! राष्ट्रीय राजनीति के बड़े सवालों की बात तो दूर रही, यूपी या देश के दूसरे हिस्सों में हाल के दिनों में दलित या व्यापक बहुजन समाज के उत्पीड़न की घटनाओं पर भी मायावती जी या उनकी पार्टी की तरफ से अब कोई ठोस प्रतिक्रिया या पहल नहीं होती। वैसे भी यूपी की राजनीति में बसपा और भाजपा के रिश्ते कोई नये नहीं हैं। बसपा संस्थापक कांशीराम के जीवन काल में ही बसपा और भाजपा के बीच सत्ता के लिए समझौता हुआ था। मई,1995 में मायावती जी भाजपा के समर्थन से ही यूपी की मुख्यमंत्री बनी थीं। तबसे भाजपा के साथ बसपा के बनते-बिगड़ते रिश्तों का दिलचस्प इतिहास है।

इधर, यूपी और बिहार के ताजा घटनाक्रम उस इतिहास में नया आयाम जोड़ते नजर आ रहे हैं। बिहार के चुनाव में मायावती जी की बसपा की भूमिका पर स्वयं दलित समाज में सवाल उठाये जा रहे हैं। पर ‘हिन्दुत्व’ की आक्रामक शक्तियों से दलित-राजनीति के रिश्ते सिर्फ बसपा तक आज सीमित नहीं रह गये हैं। महाराष्ट्र के कथित अम्बेडकरवादी रामदास अठावले की रिपब्लिकन पार्टी और दिवंगत राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी पहले से ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अगुवाई वाले एनडीए-2 का हिस्सा हैं।

बीते साढ़े छह साल में प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने दलित-उत्पीड़ित समाजों के अधिकारों पर जितने भी हमले किये या उन अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं, दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों या अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के विरूद्ध जितनी भी निरंकुश कार्रवाई की, ये सारे दलित नेता या इनके दल उन शासकीय कार्रवाइयों पर या तो खामोश रहे या सरकार का समर्थन करते रहे। मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे राम विलास पासवान के निधन के बाद पार्टी की कमान उनके पुत्र चिराग पासवान संभाल रहे हैं। उन्होंने सार्वजनिक मंच से ऐलान कर रखा है कि वह प्रधानमंत्री मोदी के ‘हनुमान’ हैं। सार्वजनिक तौर पर भाजपा या सरकार के किसी शीर्ष नेता के प्रति ऐसी भक्ति तो उनके दिवंगत पिता ने भी नहीं दिखाई! लेकिन चिराग पासवान बिहार का चुनाव भाजपा की अगुवाई वाले राजनीतिक गठबंधन-एनडीए से अलग होकर लड़ रहे हैं। एनडीए से अलग मंच के बावजूद उन्हें भाजपा के सहयोगी के तौर पर ही देखा जा रहा है। बिहार में यह बात अब किसी से छुपी नहीं है कि चिराग की पार्टी के कई उम्मीदवारों का चयन भी भाजपा की सहमति से ही हुआ है।

चिराग खुलेआम ऐलान कर रहे हैं कि उनका मकसद नीतीश कुमार के उम्मीदवारों को हराना और बिहार में भाजपा की अगुवाई में एनडीए की सरकार बनाना है। यानी ‘एनडीए-माइनस नीतीश कुमार!’  बिहार की राजनीति में रामविलास पासवान और नीतीश कुमार के रिश्ते लंबे समय तक कटु रहे। अंत तक दोनों नेताओं के सियासी रिश्ते सुधरे नहीं। पासवान और उऩके समर्थकों का मानना रहा है कि सिर्फ नीतीश के चलते रामविलास बिहार के मुख्यमंत्री नहीं बन सके। ऐसे में पासवान के ‘उत्तराधिकारी’ के तौर पर चिराग अब नीतीश से अपने पिता की उपेक्षा का बदला लेने पर आमादा हैं। इस तरह उनकी पार्टी-एलजेपी, भाजपा-जद(यू) सत्ताधारी गठबंधन का बिहार में भले हिस्सा नहीं है पर भाजपा से उनका केंद्रीय राजनीति में  गठबंधन कायम है। बिहार स्तर पर भी भाजपा से उनके रिश्ते बेहद मधुर हैं। चुनावी माहौल में भाजपा के किसी भी नेता ने अब तक उनके अलग होकर चुनाव लड़ने को औपचारिक तौर पर खारिज नहीं किया। यह सब पर्दे के पीछे की कहानी नहीं है। भाजपा के कई नेताओं ने तो उनकी सार्वजनिक मंचों से तारीफ की है।

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