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‘देवो हिंसा हिंसा न भवतिः’

-न्यूजक्लिक,

दो महीने के बाद देश के मध्यम वर्ग व मुख्यधारा की मीडिया को कानून, संविधान, हिंसा, नैतिकता जैसी तमाम बातें एकाएक याद आ गईं जब 26 जनवरी को आईटीओ और लालकिला पर कुछ किसानों ने उपद्रव कर दिया। देश का मध्यम वर्ग इस बात से बहुत आहत हो गया है कि किसानों ने लाल किले पर तिरंगा की जगह खालिस्तानी झंडा फहरा दिया (जो तथ्यात्मक रूप से झूठ और गलत हैं)। हजारों किसान पिछले दो महीने से दिल्ली के बॉर्डर सिंघु, गाजीपुर टिकरी पर तीनों कृषि कानून को निरस्त किए जाने की मांग को लेकर धरना पर बैठे हुए हैं। सरकार अपनी बात पर पूरी तरह अड़ी हुई है कि हम कृषि कानूनों को किसी भी हाल में निरस्त नहीं करेगें। सरकार के इस अड़ियल रवैये के बाद भी किसान नेता उनसे 11 दौर की वार्ता कर चुके हैं। फिर भी, किसानों को अब भी लगता है कि बातचीत से इन कानूनों को वापस करवाया जा सकता है, इसलिए वे अपने घर-परिवार को छोड़कर, इतना कष्ट सहकर सड़कों पर टिके हुए हैं।

उदारीकरण के बाद मीडिया व मध्यम वर्ग की सोच व विचार पर गौर करें तो हम पाते हैं कि मीडिया व मध्यमवर्ग, खासकर शहरी मध्यमवर्ग पूरी तरह श्रम व श्रमिक विरोधी हो गया है। उनमें ऑफिस में काम करने या समय बिताने के अलावा वे किसी और काम को काम नहीं मानने की प्रवृति बढ़ी है। वे शायद यह भी मानने लगे हैं कि जो ऑफिस में काम नहीं करते, उसे काम नहीं माना जा सकता है। वह मध्यमवर्ग यह मानने को तैयार नहीं है कि जो किसान दो महीने से अपना सारा काम छोड़कर आंदोलन कर रहे हैं, उसी मध्यमवर्गीय आकलन से ही उन किसानों का कितना नुकसान हुआ है? 

किसानों के खिलाफ माहौल बनाने में कॉरपोरेट मीडिया खासकर टेलीविजन की भूमिका सबसे खतरनाक रही है। पिछले दो महीने के धरने के बाद किसानों की समस्याओं के बारे में किसी भी टी वी चैनलों पर नहीं के बराबर चर्चा हुई है और अगर कभी-कभार टीवी स्टूडियों में चर्चा हुई भी है तो बात किसानों और उनकी समस्याओं पर नहीं होती है बल्कि इस पर होती है कि उसमें भाग लेने वाले किसान खालिस्तानी हैं या देशद्रोही हैं! सवाल उठता है कि किसानों के प्रति इस तरह के नफरत उनमें कौन भरता है?

ऐसा नैरेटिव गढ़ा गया है कि शहरी मध्यमवर्ग को राज, सरकार व ताकतवर की हिंसा जायज लगने लगी है और आम लोगों की जेनूइन मांगें भी गैरवाजिब और कानून विरोधी लगने लगा है। इसके कई उदाहरण सामने हैं। जब ताकतवरों ने हिंसा के तमाम रास्ते अख्तियार किए तब देश के मध्यमवर्ग को कोई  परेशानी नहीं हुई बल्कि उसके समर्थन में भी वे उतरे। इसका सबसे सटीक नजारा बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के दौरान दिखाई दिया था। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर बाबरी मस्जिद की सुरक्षा करने की गांरटी दी थी, लेकिन उनकी पार्टी भारतीय जनता पार्टी पूरे देश में अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के लिए लोगों को जुटाने में लगी थी। बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के ठीक एक दिन पहले 5 दिसबंर को बीजेपी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ में देर शाम एक सभा को संबोधित करते हुए कह रहे थे-“वहां नुकीले पत्थर निकले हैं, उन पर तो कोई नहीं बैठ सकता तो जमीन को समतल करना पड़ेगा, बैठने लायक करना पड़ेगा।” जबकि भाजपा के दूसरे सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी बाबरी मस्जिद को तोड़े जाने के दिन अयोध्या में मौजूद थे। उनके साथ चबूतरा पर भाजपा के तीसरे नंबर के बड़े नेता मुरली मनोहर जोशी के साथ-साथ उमा भारती भी मौजूद थी।

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