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पूंजीवाद के दौर में क्यों ज़रूरी है किसान-मज़दूरों का गठबंधन

-न्यूजक्लिक,

मार्क्सवादी सिद्धांत, बदलते वक्त के साथ विकसित होता है, जैसे कि खुद पूंजीवाद विकसित होता है। इसीलिए तो मार्क्सवाद अब भी एक जीवंत सिद्धांत बना हुआ है। पूंजीवाद का अतिक्रमण संभव बनाने वाली क्रांतिकारी प्रक्रिया में किसानों की भूमिका के प्रश्न पर, मार्क्सवादी सिद्धांत में उल्लेखनीय विकास हुए हैं। मैं यहां इन्हीं पर चर्चा करने जा रहा हूं। हालांकि फ्रेडरिक एंगेल्स ‘द पीजेंट वार इन जर्मनी’ में पहले ही इस तथ्य को रेखांकित कर चुके थे कि पूंजीवाद को क्रांतिकारी तरीके से उखाड़ फेंकने के अपने संघर्ष में, मजदूर वर्ग को किसान जनता के हिस्सों तथा खेत मजदूरों के साथ गठबंधन करना होगा, इसके बाद भी लंबे अर्से तक मार्क्सवादी सिद्धांत क्रांति में किसानों की भूमिका को लेकर  अस्पष्ट बना रहा था।

वास्तव में, नदेज्दा क्रूप्सकाया का लेखन हमें बताता है कि कार्ल काउत्स्की, जो दूसरे इंटरनेशनल के मुख्य सिद्धांतकार थे और एडवर्ड बर्नस्टीन के ‘संशोधनवाद’ के खिलाफ क्रांतिकारी मार्क्सवाद के हिमायती थे, यही मानते थे कि, ‘शहरी क्रांतिकारी आंदोलन को, किसानों और जमींदारों के बीच के रिश्तों के सवाल पर तटस्थ रहना चाहिए।’ वह आगे जोड़ती  हैं, ‘काउत्स्की के इस दावे से इल्यिच परेशान तथा दु:खी थे और उन्होंने उसको यह कहकर माफ कर देने की भी कोशिश की थी कि शायद यह बात पश्चिमी यूरोप के संबंधों के लिए सही हो, लेकिन रूसी क्रांति तो किसानों के समर्थन से ही विजयी हो सकती है।’ (मेमोरीज ऑफ लेनिन, पेंथर हिस्ट्री पेपरबैक, 1970, पृ.110-111) 

लेनिन ने खुद एंगेल्स के तर्क को आगे बढ़ाया था और उस विचार को विकसित किया था जो अगली सदी के लिए, बुनियादी मार्क्सवादी रुख बनने जा रहा था। उनका तर्क इस प्रकार था। उन देशों में जो देर से पूंजीवादी व्यवस्था में आए थे, पूंजीपति वर्ग ने, जो पहले ही सर्वहारा की चुनौती का सामना कर रहा था, सामंती जमींदारों के साथ हाथ मिला लिए थे, क्योंकि उसे डर था कि सामंती संपत्ति पर कोई भी हमला पलटकर, पूंजीवादी संपत्ति पर हमले में तब्दील हो सकता है। इसलिए, सामंती संपत्ति के खिलाफ मरणांतक प्रहार करने के बजाए (जैसा प्रहार उसने इससे पहले के दौर में तब किया था, जब 1789 में फ्रांस में उसने पूंजीवादी क्रांति का नेतृत्व किया था), वह सामंती जागीरों की मिल्कियत का किसानों के बीच पुनर्वितरण करने से और सामंती प्रभुओं की सामाजिक सत्ता पर प्रहार करने से पीछे हट गया, जिसके चलते किसानों की जनतांत्रिक आकांक्षाएं अधूरी ही रह गयीं। इन आकांक्षाओं को सर्वहारा के नेतृत्व में जनतांत्रिक क्रांति के जरिए ही पूरा किया जा सकता है और इसके लिए वह किसानों को अपने सहयोगी के तौर पर साथ ले सकता है।

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