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कभी न भूलें: कोविड-19 से बचे एक पीड़ित की अपील

-न्यूजक्लिक,

नोबेल पुरस्कार विजेता और होलोकॉस्ट(हिटलर के नरसंहार) में बच गये एली विज़ेल ने कहा था,'तटस्थता पीड़ित को नहीं,बल्कि उत्पीड़क को मदद पहुंचाती है। मौन उत्पीड़ित को नहीं,बल्कि ज़ुल्म करने वालों को ही हमेशा प्रोत्साहित करता है।' इसी रौशनी में कोविड-19 के प्रकोप से बच गयी तान्या अग्रवाल हाल के इतिहास में किसी सरकार की सबसे बुरी व्यवस्थागत नाकामियों और ज़िम्मेदारियों की अनदेखी को कभी नहीं भूलने के सिलसिले में लिखती हैं। तान्या ने अस्पताल में ऑक्सीजन सपोर्ट के सहारे कोविड-19 से लड़ाई लड़ी। उनके पति भी अस्पताल में भर्ती थे और सौभाग्य से वे ठीक हो गये।मगर,कई भारतीय बच्चे उनके बच्चे जितना भाग्यशाली नहीं थे।

'तो,क्या हम ऐसे ही जीते थे ? लेकिन,हम तो आम ज़िंदगी की तरह जीवन जी रहे थे।हर कोई वही सब कर रहा है,जैसे कि ज़्यादातर समय कोई कर रहा होता है। जो कुछ हो रहा है,वह पहले की तरह ही हो रहा है। यह भी अब हमेशा की तरह ही तो है।

हम हमेशा की तरह अनदेखी करते हुए ही तो जी रहे थे। मगर,अनदेखी करना,अज्ञानता के बराबर नहीं होता,आपको इस पर ध्यान देना होगा।

कुछ भी तुरंत नहीं बदलता: यह जानने से पहले ही धीरे-धीरे गर्म होने वाले बाथटब में आपको मौत के घाट उतार दिया जायेगा।'-मार्गरेट एटवुड

एटवुड अपने द हैंडमेड्स टेल नामक इस उपन्यास में उस गिलियड के अधिनायकवादी व्यवस्था के बारे में लिखती हैं,जो अपने ख़ुद के अलावा सभी धर्मों को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर देता है,अमेरिकी संविधान को निलंबित कर देता है और अभिव्यक्ति,प्रेस और एक साथ कहीं एकट्ठा होने की स्वतंत्रता सहित तमाम अधिकारों को ख़त्म कर देता है। इसकी जगह लिंगगत जैसी व्यक्तिगत विशेषताओं के आधार पर सामाजिक वर्गों का एक पदानुक्रम बनाया जाता है।

स्टेडियमों को जेलों और प्राणदंड दिये जाने वाले मैदानों में बदल दिया जाता है। एक पवित्र शैक्षणिक संस्थान उत्पीड़कों के गुप्त अड्डे में तब्दील हो जाता है,जिसकी दीवारों पर "अपराधियों" को फ़ासी देकर चिपका दिया जाता है। महिलायें पुरुष स्वामियों की दया के हवाले कर दी जाती हैं और उन्हें प्यार करने, पढ़ने, लिखने या ज़ायदाद रखने का कोई अधिकार नहीं होता है।

क्या यही अति नहीं दिखायी देती ?  

एटवुड ने “द हैंडमेड्स टेल” को एक काल्पनिक कहानी माना था और इसे आमतौर पर इसे एक मनहूस रचना के की क़तार में रखा जाता है। हालांकि,भारत में पिछले कुछ सालों पर नज़र डालें,तो ऐसा लगता है कि नागरिक “यात्री अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करें” जैसे हालात में हैं। ख़ासकर नोवल कोरोनावायरस महामारी की दूसरी लहर के बाद तो हमें किसी दिन यह भी पता चल सकता है कि हमारे पास अब वोट देने या देश छोड़ने का भी अधिकार नहीं रहा। यह अब किसी जोखिम से कहीं ज़्यादा मुमकिन हो जाने जैसी हालत है। हम धीरे-धीरे गर्म होने वाले बाथटब में हैं।

दूसरी लहर

हाल ही में प्रधानमंत्री को दूसरी लहर पर जीत का श्रेय दिया गया था। उन्होंने अपनी सरकार के टीकाकरण कार्यक्रम के कुप्रबंधन से लोगों का ध्यान हटाने के लिए एक और एकतरफ़ा राग अलापा। उद्धारकर्ता जैसे दिखावे से मूर्ख मत बनिए। प्रधानमंत्री का वह एकरफ़ा संवाद तब सामने आया था,जब दूसरी लहर पहले से ही अपने उतार पर थी,चूंकि टीके की आपूर्ति कम होने की आशंका है,और तीसरी लहर के आने में इसलिए अभी कुछ समय और लगेगा,क्योंकि हम में से कई लोग प्राकृतिक संक्रमण के शिकार हुए हैं और इसलिए हमारे शरीर में वायरस के ख़िलाफ़ एंटीबॉडी विकसित हो चुकी है।

जब केन्द्र सरकार के सामने निराशाजनक प्रदर्शन के बाद मुश्किलें पैदा हो गयी,तो नेतृत्व ने उसी संविधान की तरफ़ फिर से रुख़ किया,जिसकी अनदेखी उन्होंने अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अनगिनत बार की है,मगर,इस बार यह रुख इसलिए किया गया है,ताकि यह दावा किया जा सके कि स्वास्थ्य सेवा तो राज्य का विषय है।

राज्यों को जिस समय वैक्सीन की दरकार थी,उस समय वैक्सीन निर्माताओं ने वैक्सीन नहीं दिया। दूसरी लहर के दरम्यान ज़्यादातर समय तक नेतृत्व ग़ायब रहा,सिर्फ़ सोशल मीडिया को सेंसर करने, रुक-रुक कर एकतरफ़ा संवाद करने और रोने के लिए नेतृत्व सामने आता रहा।

दूसरी लहर के दरम्यान नेतृत्व आंख मुंदे रहा और आपको अच्छी तरह मालूम है कि नागरिक निजी तौर पर उन-उन कामों को अंजाम देते रहे,जिन्हें अंजाम देना निर्वाचित सरकारों की ज़िम्मेदारी थी। मेरे ख़ुद के परिवार और मैं सहित कई लोग उन लोगों के सहारे ज़िंदा रहे,जो निर्वाचित सरकारों का हिस्सा नहीं थे।

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