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26-27 नवंबर को किसानों-मज़दूरों का मोर्चा देश को बचाने की लड़ाई है

-न्यूजक्लिक, 

यह एक संयोग मात्र नहीं है, वरन जनांदोलनों के बीच बढ़ती एकता का नमूना है कि 26-27 नवंबर को देश के सारे किसान और मज़दूर संगठनों ने मोदी सरकार के खिलाफ हल्ला बोला है, मज़दूरों की आल इंडिया जनरल स्ट्राइक और किसानों का दिल्ली चलो एक ही दिन!

मज़दूरों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान करने वाले Joint Platform of Central Trade Unions and Sectoral Federations & Associations ने अपने मांग पत्र में केंद्र सरकार के किसान  विरोधी काले कानूनों की वापसी की मांग भी शामिल किया है और कहा है कि " 26 नवंबर की आम हड़ताल और चक्का जाम सरकार के खिलाफ अवज्ञा और असहयोग (defiance and non-cooperation ) की दिशा में नई ऊंचाई की ओर बढ़ते जनता के संघर्ष के अगले चरण का आगाज है ।"

उधर देश के सारे किसान संगठन अब एक साझा मंच AIKSCC (All India Kisan Sangharsh Coordination Committee ) के झंडे तले आ चुके हैं और आर-पार के मूड में हैं। आंदोलन का केंद्र जरूर हमारे सबसे बड़े अनाज-उत्पादक राज्य पंजाब-हरियाणा बने हुए हैं, पर अलग-अलग स्तर पर हलचल देश के तमाम राज्यों में है।

किसानों और मज़दूरों की इस उभरती एकता के तार एक ही उद्गम से जुड़े हुए हैं। मोदी सरकार ने कोरोना काल की असाधारण आपदा को अवसर में बदलते हुए पिछले कार्यकाल से लंबित पड़े कथित आर्थिक सुधारों को एक झटके में कानूनी जामा पहना दिया है।

दरअसल, पिछले कार्यकाल में ऐसा न कर पाने के कारण वे अपने धुर समर्थक कारपोरेट घरानों तथा नव-उदारवादी अर्थशास्त्रियों की आलोचना के भी पात्र बन हुए थे, जिनकी यह शिकायत थी कि मोदी जी bold ढंग से आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ा पा रहे। अब मोदी जी ने एक झटके में सारी शिकायतें दूर कर दीं हैं।

सरकार के नीति-नियामकों की समझ रही होगी कि महामारी के चलते इन कदमों के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन नहीं हो पायेगा। पर यहाँ वे चूक कर गए।

दरअसल, इन कथित कृषि तथा श्रम सुधारों ने किसानों तथा मज़दूरों के अस्तित्व को ही दांव पर लगा दिया है। श्रम-कानूनों में बदलाव ने तो मज़दूरों का लड़ने का अधिकार भी एक तरह छीन लिया है। इसलिए उनके सामने फौरी तौर पर ही लड़ाई में उतरने के अलावा अब कोई रास्ता नहीं बचा है अपनी अस्तित्व-रक्षा का।

पर किसानों तथा मज़दूर वर्ग के आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उनका मुद्दा महज उनके तबकायी हित नहीं हैं वरन हमारे राष्ट्रीय जीवन के  व्यापक महत्व के सवाल हैं।

सरकार जो बड़े बदलाव कर रही है, उनका हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर, सारी जनता के जीवन पर दूरगामी असर पड़ने वाला है। श्रमिकों के चार्टर का एक प्रमुख बिंदु पब्लिक सेक्टर के निजीकरण का, उसे औने-पौने दाम में कारपोरेट के हाथों सौंपे जाने तथा इनमें FDI की मुख़ालफत है।

रेलवे, डिफेंस, कोयला, बैंकिंग, BSNL, वित्तीय क्षेत्र आदि में यह अभियान धड़ल्ले से जारी है।

सबसे ताजा उदाहरण पेट्रोलियम सेक्टर की नामी कम्पनी BPCL का है, जो पिछले 5 साल से सालाना 8 से 10 हजार करोड़ लाभांश कमा रही है, वर्ष 2018-19 में इसने 7132 करोड़ मुनाफा कमाया। उसे बेचा जा रहा है और लगभग 9 लाख करोड़ की अनुमानित worth की इस कम्पनी के सौदे में 4.46 लाख करोड़ राष्ट्रीय सम्पत्ति के नुकसान का अनुमान है। विराट राष्ट्रीय सम्पदा के कारपोरेट के हाथों हस्तांतरण के साथ ही देश की राष्ट्रीय Energy Security के लिए  भी इसके गम्भीर निहितार्थ हैं।

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