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भारत में बेतहाशा फैलती जा रही है ग़रीबी!

-न्यूजक्लिक,

मीडिया के प्रचार के दम पर चल रही मोदी सरकार ने बड़े लंबे समय से गरीबी के आंकड़े जारी नहीं किए हैं। इस पर मीडिया वाले कभी सवाल भी खड़ा नहीं करते हैं। अगर सवाल खड़ा करते तो जिस तरह से चौक चौराहों पर 135 करोड़ वाले देश में ओलंपिक में गिरकर 5 मेडल न मिल पाने पर चर्चा हो रही है ठीक उसी तरह गरीबी पर भी चर्चा होती। अगर ऐसी चर्चाएं होती तो इसका भी हल साफ-साफ दिखाई देता कि कैसे भारत में ओलंपिक में ज्यादा से ज्यादा मेडल मिले।

कंज्यूमर एक्सपेंडिचर सर्वे यानी लोगों के खर्च करने की प्रवृत्ति के आधार पर गणना करके गरीबी के आंकड़े जारी किए जाते हैं। नेशनल स्टैटिसटिकल ऑर्गेनाइजेशन हर पांच साल के बाद कंज्यूमर एक्सपेंडिचर सर्वे के आंकड़े जारी करता है, जिसके तहत मिले आंकड़ों का अध्ययन कर गरीबी के आंकड़े भी जारी किए जाते हैं।

साल 2017-18 अखबारों में कंजूमर एक्सपेंडिचर सर्वे के कुछ आंकड़े लीक हुए। लीक हुए आंकड़े सरकार के सामने चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे कि सरकार लोक कल्याण नहीं कर रही है। इसलिए सरकार ने इसे जारी करने से मना कर दिया। यानी सरकार ने उस सोर्स को ही दबा दिया जिनसे गरीबी के आंकड़ों का आकलन किया जाता है।

लेकिन, अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा और  जजाती केसरी परिदा ने ठोस अनुमान लगाया है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि किसी समय अंतराल में गरीबी घटने के बजाय बढ़ी है, गरीब लोगों की संख्या भारत की कुल आबादी में घटने की बजाय बढ़ी है। यह अनुमान किसी अटकल पच्चीसी के आधार पर नहीं है, बल्कि भारत सरकार के सर्वे से मिले ठोस आंकड़ों का अध्ययन करके जारी किए गए हैं।

अब तक कंजूमर एक्सपेंडिचर सर्वे का इस्तेमाल कर गरीबी की गणना की जाती रही है। अभी साल 2019-20 का पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे जारी हुआ है। यानी कोरोना से पहले भारत के कामगारों की स्थिति पर भारत सरकार की वार्षिक रिपोर्ट। इस रिपोर्ट के पेज 6 पर कंजूमर एक्सपेंडिचर सर्वे की शैली में ही कुछ आंकड़े जारी हुए हैं। यह इतनी विस्तृत तो नहीं जितनी कंजूमर एक्सपेंडिचर सर्वे के आंकड़े होते हैं फिर भी भारत में गरीबी का ठोस अनुमान लगाने के लिए पर्याप्त है। इस सर्वे में लोगों से यह सवाल पूछा गया है कि वह स्वास्थ्य, शिक्षा, कपड़ा, जूता, चप्पल, भोजन जैसे जीवन की जरूरी चीजों पर कितना खर्च करते हैं। इन्हीं आंकड़ों को आधार बनाकर कंजूमर एक्सपेंडिचर सर्वे को आधार बनाकर गरीबी के आंकड़े जारी करने वाली पुरानी शैली के तहत ही अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा और जनजाति केसरी परीदा ने भारत में गरीबी पर रिपोर्ट प्रकाशित की है।

साल 201-12 में तेंदुलकर कमेटी ने ग्रामीण इलाकों में ₹816 प्रति महीने और शहरी इलाके में ₹1000 प्रति महीने से नीचे की कमाई करने वाले लोगों को गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की श्रेणी में रखा था। यह निर्धारण विश्व बैंक के जरिए बनाए गए अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा के फार्मूले के आधार पर हुआ था। इस समय अगर इस फार्मूले में महंगाई की दर भी समायोजित कर दी जाए तो ग्रामीण इलाकों में ₹1217 प्रति महीना से कम की कमाई करने वाले और शहरी इलाके में ₹1467 रुपए प्रति महीने से कम की कमाई करने वाले गरीबी रेखा से नीचे घोषित किए जाएंगे।

गरीबी रेखा के इस पैमाने के आधार पर अर्थशास्त्रियों की रिपोर्ट यह बताती है कि भारत के ग्रामीण इलाके में तकरीबन 25.7 फ़ीसदी आबादी साल 2012 में गरीबी रेखा से नीचे थी। यह साल 2020 में बढ़कर 30 फ़ीसदी हो चुकी है। शहरी इलाके में तकरीबन 13 फ़ीसदी आबादी साल 2012 में गरीबी रेखा से नीचे थी अब यह बढ़कर 15 फ़ीसदी तक पहुंच चुकी है। भारत की कुल आबादी में साल 2012 में तकरीबन 21 फ़ीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी अब यह बढ़कर तकरीबन 26 फ़ीसदी के आसपास पहुंच चुकी है।

साल 2012 में अगर ग्रामीण इलाकों में गरीबों की संख्या तकरीबन 21.5 करोड़ थी तो साल 2019-20 में यह संख्या 27 करोड़ के पास पहुंच गई है। यही हाल शहरी इलाकों का भी है। अगर साल 2012 में शहरी इलाके में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या तकरीबन 5.3 करोड़ थी तो अब यह पहुंचकर 7.3 करोड़ हो गई है।

इस तरह से जब से भारत में गरीबी रेखा का आकलन किया जा रहा है तब से लेकर अब तक पहली बार ऐसा हो रहा है कि 2012 से लेकर 2020 तक गरीबी रेखा से नीचे खिसके लोगों में तकरीबन 7 करोड़ का इजाफा हुआ है। साल 2012 में तकरीबन 26 करोड़ आबादी अगर गरीबी रेखा से नीचे थी तो साल 2020 से पहले 34 करोड़ आबादी गरीबी रेखा से नीचे पहुंच गई। कहने का मतलब यह है कि आंकड़े साफ साफ इशारा कर रहे हैं कि भारत में तकरीबन 34 करोड़ आबादी ऐसी है जो महीने में तकरीबन ₹1500 से कम की कमाई पर अपना जीवन गुजर बसर करती है। अगर हर दिन के हिसाब से जुड़े तो तकरीबन 34 करोड़ लोग हर दिन अपनी जिंदगी जीने के लिए मात्र ₹50 की कमाई कर पाते हैं। (यह इससे भी कम हो सकता है क्योंकि शहरी इलाके में गरीबी का निर्धारण 1467 रुपए प्रति महीने से कम की कमाई पर होता है) इतनी कम आमदनी पर जीने के लिए मजबूर लोग कितनी तरह की परेशानियां रोज सहते होंगे और कितनी तरह की परेशानियां रोज पैदा करते होंगे। इसके बारे में अगर आप सोच कर देखेंगे तो शायद जिंदगी का पूरा नजरिया बदल जाए।

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