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कृषि कानूनों का रद्द होना तो मलाई है, लेकिन खुरचन है इस आंदोलन की दूरगामी उपलब्धि

-द प्रिंट,

‘तो, आखिर जहां से चले थे फिर से हम वहीं पहुंच गये, है ना ? आखिर हमारा हासिल क्या रहा ?’ तीन कृषि कानूनों के खात्मे पर मनाये जा रहे जश्न से कुछ-कुछ खिन्न नजर आ रहे एक युवा कार्यकर्ता ने किसी तीर की तरह सनसनाता और चुभता यह सवाल पूछा. उसका तर्क बड़ा सीधा सा था : किसान इन तीन कृषि कानूनों के आने के पहले से ही बदहाली में थे. हमने तीन कृषि कानूनों की नई आफत को किसी तरह दूर भगाया लेकिन जो मसले पहले से ही जी को हलकान कर रहे हैं, उनका क्या ? क्या हम साल भर के ऐतिहासिक संघर्ष के बाद भी इन मसलों पर एक इंच आगे बढ़े हैं? क्या हम फिर से उसी जगह नहीं आ गये जहां 4 जून 2020 को थे, जब तीन कृषि कानूनों को अध्यादेश की शक्ल में लाया गया था ? आखिर हमारा हासिल क्या रहा ?

‘आपको गांधीजी को पढ़ना चाहिए — उनके लिखे-बोले को नहीं बल्कि उनकी जिन्दगी को’—अपने नौजवान साथी को मैंने सलाह दी. शब्द की सटीक अर्थों में अगर इस देश में कोई एक आंदोलनजीवी हुआ तो वो गांधीजी ही थे. उन्होंने ना-कुछ के बीच से जनान्दोलनों को खड़ा किया, उनके मुद्दे गढ़े, नारे बनाये और जनान्दोलन किन गतिविधियों के सहारे अपने को जाहिर करें, इसका व्याकरण तैयार किया. गांधीजी ने जो जनान्दोलन चलाये उनमें से ज्यादातर अपने फौरी मकसद को हासिल ना कर सकेः असहयोग आंदोलन, सिविल नाफरमानी का आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन अपने घोषित लक्ष्य को हासिल नहीं कर सके. लेकिन हम इन संघर्षों को आज जनान्दोलन के मॉडल के रूप में याद करते हैं क्योंकि इन आंदोलनों ने हिन्दुस्तान की आजादी के पहले ही हिन्दुस्तानियों के दिल-ओ-दिमाग को आजाद कर दिया था.


गांधीजी पारखी थे, वे इस गहरी बात को समझ चुके थे कि : आंदोलनों की दुनिया में असली चीज दूध के उबाल के बाद वाली मलाई नहीं बल्कि असली चीज होती है वह छाड़न जो बाद को खुरचन कहलाती है. किसी आंदोलन की असल कामयाबी का पैमाना यह नहीं होता कि उसने अपने तात्कालिक मकसद को किस हद तक हासिल किया बल्कि आंदोलन की कामयाबी की माप इस बात से होती है कि उसने अपने साथ जुड़े लोगों को किस हद तक बदला और सशक्त बनाया.

जहां तक तात्कालिक मकसद को हासिल करने की बात है, किसान-आंदोलन आजाद भारत में अपनी कद-काठी के हुए अन्य आंदोलनों की तुलना में कहीं ज्यादा हासिल कर चुका है. साल 1974 की रेल-हड़ताल को कुचल दिया गया था. बिहार का जेपी आंदोलन राज्य सरकार को इस्तीफे के लिए मजबूर ना कर सका. अन्ना हजारे आंदोलन बेशक संसद से प्रस्ताव पारित करवाने में कामयाब हुआ लेकिन लोकपाल एक्ट के लिए दो साल का इंतजार करना पड़ा. ऐसे में यह अप्रत्याशित कहा जायेगा कि जिन तीन कृषि कानूनों को केंद्र सरकार ने अपनी नाक का सवाल बना रखा था उन्हीं कानूनों को किसान-आंदोलन ने वापस लेने पर सरकार को मजबूर कर दिया. नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार ऐसा करने पर मजबूर हुई, यह और भी ज्यादा अविश्वसनीय है.

फिर भी, किसान-आंदोलन की सबसे पायेदार उपलब्धि यह नहीं है. इस आंदोलन को जो चीजें अपने मकसद की राह में सौगात की तरह मिल गई हैं वही इसे ऐतिहासिक आंदोलन बनाती हैं, बशर्ते सौगात में मिली इन चीजों की हम कद्र करें और आगे के सफर के लिए उन्हें अपना सहारा बनायें.

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