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पलवल की बधिर बेटी के नाम पत्र

25 अगस्त को हरियाणा के पलवल जिले में दस साल की बधिर बच्ची का अपहरण कर बलात्कार करने के बाद हत्या कर दी गई. उस बच्ची की मां, बहन और भाई भी सुन नहीं सकते. टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, जब उसके परिवार ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की तो पुलिस ने उन्हें भगा दिया गया. मूक-बधिर लोगों के खिलाफ अपराध और खास कर मूक-बधिर बच्चों के खिलाफ यौन अपराध भारत में बड़े पैमाने पर होते हैं. पिछले एक साल में ऐसे अपरोधों के कई मामले झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर में सामने आए हैं. बधिर और मूक अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि ऐसे लोगों को विशेष शिक्षण तकनीक प्रदान करने में सरकार की विफलता उन्हें प्रभावी संवाद करने और ऐसे अपराधों को रोकने में असमर्थ बनाती है. सौदामिनी पेठे  भारत की पहली बधिर महिला हैं जो कानून की पढ़ाई कर रही हैं. वह मूक एवं बधिर लोगों के लिए काम करती हैं. हरियाणा में उस नाबालिग की हत्या के खिलाफ उन्होंने यह खुला पत्र लिखा है. 

मेरी प्यारी बेटी,

तुम जैसी मासूम जान के बलात्कार और हत्या की क्रूर घटना के बाद मेरे भीतर एक बेबस गुस्से और गहरे संताप के अलावा और कुछ नहीं बचा है. 

खुद एक सशक्त बधिर औरत होने के नाते मैं उन दरिंदों द्वारा तुम्हारा बलात्कार और हत्या को मंजूर नहीं कर सकती. मैं तुम्हारी कमजोर स्थिति, आत्मरक्षा कर पाने की तुम्हारी अक्षमता को समझती हूं, जिसका फायदा पितृसत्तात्मक और आपराधिक मानसिकता का प्रदर्शन करने वाले उन बलात्कारियों ने उठाया जो समझते हैं कि ऐसा करने के बावजूद वे बच निकल सकते हैं. एक बधिर बच्ची जो खुद को अभिव्यक्त नहीं कर सकती या अपनी बात नहीं कह सकती, उन लोगों के लिए बलात्कार और हत्या का आसान शिकार थी. ऐसा करने वाले फिर भी सही सलामत खुले घूम रहे हैं. 

जब भी मैं इस बारे में सोचने की कोशिश करती हूं कि क्या किया जा सकता है और क्या होना चाहिए तो इन मामलों के पीछे की परिस्थितियों को याद कर दहल जाती हूं. मेरा मन कैसे, क्यों और आगे इस तरह की घटना कभी न हो इसे रोकने के तरीकों से जुड़े अनगिनत अनसुलझे सवालों से भर जाता है. मैं इस खत को इस उम्मीद के साथ लिख रही हूं कि सभी संबंधित पक्ष यानी माता-पिता, शिक्षक, स्थानीय प्रशासन, पुलिस अधिकारी और बड़े पैमाने पर भारतीय समाज, लैंगिक सीमाओं को किनारे रख, एक बधिर बच्ची के लिए तत्कालीन हस्तक्षेप, रोकथाम और सशक्तिकरण की जरूरत को समझेंगे. 

तुम अपने माता-पिता के साथ हरियाणा के एक छोटे से गांव की झुग्गी में रह रही थी. तुम्हारे पास शायद कोई स्ट्रीट लैंप, कोई सीसीटीवी कैमरा या कोई अन्य सुविधा नहीं थी जो कुछ महानगरीय शहरों में औरतों की सुरक्षा करती हैं. तुम्हारे साथ जघन्य अपराध करने के इरादे से तुम्हें खेत में ले जाने वाले लोग आस पड़ोस के ही रहे होंगे. तुम एक ऐसे युवक के साथ पास के खेतों में गई होगी जिसे तुम सालों से जानती थी, जिसे तुम रोज ही देखती थी. तुम नहीं जानती थी कि वह और उसके दोस्त तुम्हारे भरोसे और मासूमियत का फायदा उठाने के इंतजार में थे. 

तुम अपने आस-पास हो रही बातचीत को नहीं सुन पाती थी. तुम तो अपने माता-पिता के साथ भी बात नहीं कर पाती थी, उनके साथ संवाद करने की भाषा तुम नहीं जानती थी. क्या ऐसी उम्मीद करना बेमानी नहीं है कि दोस्ताना चेहरे के पीछे छिपे शैतान को तुम्हें पहचान लेना चाहिए था? 

तुम्हारी मां खुद भी बधिर है. सांकेतिक भाषा या साइन भाषा न जानने के चलते वह खुद भी अपनी ही दुनिया में कैद थी. तुम्हारा परिवार और यह समाज भी तुम्हें ऐसी घटनाओं से सावधान रहना नहीं सिखा सकता. सालों से खुद को जाहिर करने में या किसी भी बात को कहने में असमर्थ, तुम्हारी मां वहां बैठी थी, बिना शब्दों या संकेतों के. तुम्हारे बहन और भाई जो सात और तीन साल के हैं, दोनों सुन नहीं सकते तो इस तरह की संभावित त्रासदियों की समझ भला कैसे रखते? 

क्या बधिर समाज के हमलोगों को इस घटना को आम घटना की तरह लेना चाहिए और आगे बढ़ जाना चाहिए? क्या तुम्हारा परिवार इससे सीख ले सकता है और तुम्हारे भाई-बहन को मूकबधिर समाज की वास्तविकता से परिचित करा सकता है? क्या वे उन्हें बधिर बच्चों के लिए शिक्षा केंद्र में भर्ती कर सकते हैं? या फिर हमें भी समाज में बदलाव के लिए आवाज उठानी चाहिए, विरोध करना चाहिए, इसको सामने लाना चाहिए? उनमें से कितने हमें सुन पाएंगे? क्या समाज कभी इस भयावह अपराध को लेकर बनी जटिलताओं की गंभीरता को समझ पाएगा? 

मैं समझ नहीं पा रही हूं कि बधिर शिक्षा केंद्र में अगर तुम्हें भर्ती कर दिया जाता तो तुम्हारी हालत में कितना बदलाव आता? क्या वहां तुम और ज्यादा सीख पाती और अधिक संवाद कर पाती? हो सकता है कि अपने जैसे बधिर लोगों को सहज बातचीत करता देख तुम्हारे अंदर अपने लिए भरोसा जग जाता. शायद तुम कुछ ज्यादा जागरूक हो जाती और हो सकता है कि तुम हमलावरों के चंगुल से खुद को बचाने में सफल रहती.

अगर तुम्हारी मां सुन सकती तो शायद वह तुमको ज्यादा सचेत कर सकती. लेकिन फिर चेन्नई में इसी तरह की घटना हुई थी जिसमें 22 लोगों ने 11 साल की बधिर लड़की के साथ लगातार बलात्कार किया था. जब वह उस सब से गुजर रही थी तो छह महीने तक वह अपनी मां को कुछ नहीं बता पाई. क्या परिवार उसे बेहतर ढंग से संवाद करने में मदद कर सकता था? क्या अन्य परिवार अपने बच्चों को मूक-बधिर समाज से रूबरू कराएंगे? बजाय अपने-अपने खोलों में बंद रहने और अतिसुरक्षित रहने के? क्या उनका ऐसा करना तुमको अधिक जागरूक नहीं करता? क्या यह तुमको सशक्त नहीं करता? 

पूरी स्थिति इस बात से जुड़ी है कि समाज मूक-बधिर लोगों को किस तरह से लेता है. कब तक बहरेपन को एक टैबू माना जाएगा और समाज से छिपाकर रखा जाएगा और इसके अल्पकालिक समाधान किए जाते रहेंगे? क्या ये समाधान वास्तव में आपको सशक्त बनाते हैं? या अपने जैसे लोगों का माहौल पाने, सांकेतिक भाषा समझाने वालों से मिल लेने और जान लेने से कि ऐसी तुम अकेली नहीं हो, तुम्हें आत्मविश्वास मिलता है और तुम्हारे लिए चीजें आसान हो जाती हैं? कब तुम्हारा परिवार, तुम्हारे शिक्षक, डॉक्टर और व्यापक समाज इस सच्चाई को मानेगा और उन बदलावों को करेगा जिनकी हमें सख्त जरूरत है? समाधान के रूप में अपने जैसे लोगों वाले माहौल की तलाश करने और ऐसा माहौल तैयार करने की जरूरत का एहसास करने के लिए तुम्हारे जैसी कितनी और बेटियों को समाज का शिकार होना पड़ेगा? 

इस पूरी स्थिति में क्या "होना चाहिए" वाला पहलू मुझे चक्कर में डाल देता है. जब मैं उन कई नजरियों के बारे में सोचती हूं जिन्हें हम शिक्षकों के रूप में किसी बधिर व्यक्ति को शिक्षित करने और सही मायने में सशक्त बनाने के सही तरीकों और उपायों के बारे में अलग-अगल राय रखते हैं तो मैं बुरी तरह से उकता जाती हूं. सांकेतिक भाषा सीखने और पहचान प्राप्त करने या बोलना सीखने और सुन सकने वाले समुदाय के साथ घुल-मिल जाने के तकरार भरे नजरिए जटिल और थकाऊ हैं. इस तरह के निर्णय लेने में बधिरों और सांकेतिक भाषा सिखाने वाले कार्यकर्ताओं की आवाज शायद ही कभी सुनी जाती है.

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