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अरुंधति रॉय: दो साजिशें और एक दाह संस्कार

-न्यूजलॉन्ड्री, 

जब दीवाली करीब आ रही है, और हिंदू लोग अपने राज्य में (और उस नए भव्य मंदिर में, जो अयोध्या में उनके लिए बनाया जा रहा है) भगवान राम की सफल वापसी का उत्सव मनाने की तैयारियां कर रहे हैं, हम बाक़ी लोगों को बस भारतीय लोकतंत्र की सिलसिलेवार सफलताओं के जश्न से ही तसल्ली करनी पड़ेगी. एक बेचैन कर देने वाले दाह संस्कार की, एक महान साजिश को दफनाने और एक दूसरी साजिश की कहानी बनाने की जो खबरें आ रही हैं, उसमें हम खुद पर, अपनी संस्कृति पर, अपनी सभ्यता के मूल्यों पर नाज़ किए बिना कैसे रह सकते हैं, जो प्राचीन भी हैं और आधुनिक भी?

सितंबर के बीच में खबर आई कि उत्तर प्रदेश के हाथरस में, प्रभुत्वशाली जाति के मर्दों ने 19 साल की एक दलित लड़की का सामूहिक बलात्कार करके उसे मरने के लिए छोड़ दिया था. उसका परिवार गांव के 15 दलित परिवारों में से एक था, जहां 600 परिवारों की बहुसंख्यक आबादी ब्राह्मणों और ठाकुरों की है. भगवाधारी और खुद को योगी आदित्यनाथ कहने वाले प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट इसी ठाकुर जाति से आते हैं. (सारे इशारे यही बताते हैं कि वे आने वाले समय में प्रधानमंत्री पद पर नरेंद्र मोदी की जगह लेने वाले हैं). हमलावर कुछ समय से इस लड़की का पीछा कर रहे थे और उसे आतंकित कर रखा था. कोई नहीं था, जिससे वह मदद मांगती. कोई नहीं था जो उसकी हिफाजत करता. इसलिए वह अपने घर में छुप कर रहती और बहुत कम बाहर जाया करती. उसे और उसके परिवार को पता था कि हालात कैसे खतरनाक रुख ले सकते हैं. लेकिन इस पता रहने का भी कोई फायदा नहीं हुआ. उस दिन, खून से लथपथ उसका शरीर उसकी मां को खेत में पड़ा मिला, जहां वह गायों को चराने ले जाया करती थी. उसकी जीभ करीब-करीब काट ली गई थी, उसकी गर्दन की हड्डी टूट गई थी, जिसके चलते उसके शरीर का एक हिस्सा काम नहीं कर रहा था.

लड़की दो हफ्तों तक जिंदा रही, पहले अलीगढ़ अस्पताल में, और इसके बाद जब उसकी हालत बहुत बिगड़ गई तो दिल्ली के एक अस्पताल में. 29 सितंबर की रात उसकी मौत हो गई. उत्तर प्रदेश पुलिस, जो पिछले साल हिरासत में 400 लोगों की हत्याएं करने के लिए जानी जाती है (देश भर में 1700 ऐसी हत्याओं का यह एक चौथाई है1), रात के सन्नाटे में लड़की की लाश को लेकर उसके गांव के बाहर पहुंची. उसने सदमे में डूबे परिवार को घर में कैद कर दिया, लड़की की मां को इसकी इजाज़त तक नहीं दी कि वह अपनी बेटी को आखिरी बार विदा कह पाती, एक बार उसका चेहरा देख पाती. उसने एक पूरे समुदाय को इससे वंचित किया कि वो अपनी एक प्यारी सदस्य के अंतिम संस्कार को सम्मान के साथ अंजाम दे पाते.

खाकी वर्दी की एक दीवार के घेरे के बीच, आनन फानन में सजाई गई चिता पर उस मार दी गई लड़की की लाश रखी गई, और धुआं अंधेरे आसमान में उठता रहा. दहशत में डूबा लड़की का परिवार मीडिया में उठे शोर से सहमा हुआ था. क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि रोशनियों के बुझने के बाद, उन्हें इस शोर के लिए भी सजा मिलने वाली है.

अगर वे बच पाने में कामयाब रहे तो वे अपनी उस ज़िंदगी में लौट जाएंगे, जिसके वे आदी बना दिए गए हैं– जाति की गलाज़त में डूबे उन मध्ययुगीन गांवों में जहां वे मध्ययुगीन क्रूरता और अपमान का शिकार बनते हैं, जहां उन्हें अछूत, और इंसानों से कमतर माना जाता है.

दाह संस्कार के एक दिन बाद, पुलिस को जब यह हौसला हो गया कि लाश को सुरक्षित रूप से मिटा दिया गया है, उसने ऐलान किया कि लड़की का बलात्कार नहीं हुआ था. उसकी सिर्फ़ हत्या हुई थी. सिर्फ़. यही वह आजमाया हुआ तरीका है, जिसके ज़रिए जातीय अत्याचारों में से जाति के पहलू को काट कर अलग कर दिया जाता है. उम्मीद की जा सकती है कि अदालतें, अस्पताल के रेकॉर्ड, और मुख्यधारा का मीडिया इस प्रक्रिया में साथ देंगे, जिसमें हर कदम पर, नफरत से भरे जातीय अत्याचार को एक बदकिस्मत, लेकिन महज एक मामूली अपराध में बदल दिया जाता है. दूसरे शब्दों में, हमारे समाज के सिर से कसूरवार होने का बोझ हट जाता है, संस्कृति और सामाजिक रस्में बरी हो जाती हैं. हमने बार-बार यही होते हुए देखा है, और 2006 में खैरलांजी में सुरेखा भोटमांगे और उनके दो बच्चों के कत्लेआम और उनके साथ बरती गई बेरहमी में यह बहुत खौफनाक रूप में दिखाई पड़ी थी.

हम अपने मुल्क को इसके गौरवशाली अतीत में वापस ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसको पूरा करने का वादा भारतीय जनता पार्टी ने किया है. अगर कर सकें तो कृपया आप अजय सिंह बिष्ट को वोट देना न भूलें. अगर उन्हें नहीं, तो मुसलमानों की ताक में रहने वाला, दलितों से नफरत करने वाला, उनके जैसा कोई भी राजनेता चलेगा या चलेगी. अपलोड किए गए अगले लिंचिंग वीडियो को लाइक करना न भूलें. और अपने पसंदीदा, ज़हर उगलने वाले टीवी एंकर को देखते रहें, क्योंकि हमारे सामूहिक विवेक के पहरेदार वही हैं. और कृपया इसके लिए शुक्रिया कहना नहीं भूलें कि हम अभी भी वोट डाल सकते हैं, कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहते हैं, कि हम अपने जिन पड़ोसियों को ‘नाकाम राज्य’ कहना पसंद करते हैं, उनसे उलट भारत में निष्पक्ष अदालतें कानून की व्यवस्था बनाए रखती हैं.

हाथरस में गांव के बाहर शर्मनाक तरीके से, आतंक के माहौल में किए गए इस दाह संस्कार के महज कुछ ही घंटों के बाद, 30 सितंबर की सुबह, एक विशेष सीबीआई अदालत ने हमारे सामने ऐसी निष्पक्षता और ईमानदारी का एक ज़ोरदार प्रदर्शन किया.

बड़ी सावधानी से 28 साल तक गौर करने के बाद अदालत ने उन 32 लोगों को बरी कर दिया, जिन पर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराने की साजिश का इलजाम था. यह एक ऐसी घटना थी, जिसने आधुनिक भारत के इतिहास की धारा को बदल दिया था. बरी किए गए लोगों में एक पूर्व गृह मंत्री, एक पूर्व कैबिनेट मंत्री और एक पूर्व मुख्यमंत्री शामिल हैं. ऐसा लगता है कि असल में किसी ने बाबरी मस्जिद नहीं गिराई. कम से कम कानून का ऐसा ही मानना है. शायद मस्जिद ने खुद को गिरा लिया. शायद यह अपने ऊपर गेती और हथौड़े चला कर खुद ही मिट्टी में मिल गई. शायद उस दिन खुद को श्रद्धालु कहने वाले, अपने चारों ओर जमा, भगवा गमछा बांधे हुए गुंडों की सामूहिक इच्छाशक्ति के आगे वह खुद ही बिखर गई. इन सबके लिए इतने साल पहले 6 दिसंबर का दिन भी शायद इसने खुद चुना था जो बाबासाहेब आंबेडकर की पुण्यतिथि भी है.