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पांच राज्यों में चुनाव: डिजिटल प्रचार से फायदा किसका

-न्यूजलॉन्ड्री, 

जैसे- जैसे पांचों राज्यों के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वैसे- वैसे राजनीतिक दलों और नेताओं का प्रचार तेज हो गया है. लेकिन इस बार का चुनाव एक अलग अंदाज में होने जा रहा है. दरअसल इस बार हमेशा की तरह बड़ी-बड़ी रैलियां नहीं देखने को मिलेंगी. ऐसा इसलिए क्योंकि चुनाव आयोग ने कोरोना के चलते पांचों राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में बड़े पैमाने पर सभाओं और राजनीतिक रैलियों पर रोक लगा दी है. यह रोक फिलहाल 22 जनवरी तक लगाई गई है. ऐसे में कई पार्टियों ने अपनी रणनीतियों में मौलिक बदलाव किए हैं. इसका मतलब इस बार चुनाव का सारा हल्ला-गुल्ला डिजिटल होगा. कुछ पार्टियां जैसे भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी इस मौके का फायदा उठा रही हैं. रोजाना नए डिजिटल कैंपेन लॉन्च किए जा रहे हैं. वहीं छोटी पार्टियों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.

इस बार राजनीतिक पार्टियों के लिए सोशल मीडिया एक बड़ा चुनावी 'टूल' है. राजनीतिक दलों ने आम चुनावों के लिए बड़े पैमाने पर पहुंच बढ़ाने और अपने प्रमुख संदेश देने के लिए बिग डेटा एनालिटिक्स तकनीक का इस्तेमाल किया है. एक सर्वे के अनुसार, 2019 के चुनावों में 15 करोड़ मतदाता जो पहली बार चुनाव में मतदान डालने जा रहे थे उनमें से 30 प्रतिशत सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से जुड़े और प्रभावित हुए.

देश में कैंब्रिज एनालिटिका की सहयोगी कंपनी स्ट्रेटेजिक कम्युनिकेशंस लेबोरेट्रीज़ (SCL) के भारत में निदेशक रहे अवनीश राय ने एक टीवी चैनल पर दिए इंटरव्यू में खुलासा किया था कि साल 2012 के यूपी विधानसभा चुनावों में भाजपा ने उनसे संपर्क किया था. उन्होंने बताया था कि भाजपा की डिमांड थी कि बूथ स्तर पर जाति और उम्र के हिसाब से मतदाताओं की जानकारी चाहिए.

आरोप यह भी था कि ग्लोबल साइंस रिसर्च ने अवैध तरीके से 5.62 लाख भारतीय फेसबुक यूजर्स का डेटा जमा किया और इसे कैंब्रिज एनालिटिका के साथ साझा किया. कैंब्रिज एनालिटिका ने इस डेटा का इस्तेमाल, भारत में हो रहे चुनाव को प्रभावित करने के लिए किया था. फर्म की वेबसाइट ने दावा किया था कि उसने 2010 में बिहार चुनावों पर काम किया और अपने "ग्राहक को एक शानदार जीत हासिल करने में मदद की". वह चुनाव जनता दल (यूनाइटेड) और भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन ने जीता था.

चुनाव केवल उम्मीदवारों के बीच नहीं होता. यह पार्टियों के बीच एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा भी है. सोशल मीडिया की ताकत बहुत बड़ी है लेकिन बाज़ी बड़े राजनीतिक दल मार ले जाते हैं. डिजिटल चुनाव प्रचार के चलते इस प्रतिस्पर्धा में कितना बदलाव आया है? कौन आगे निकलेगा और कौन इसकी मार झेलेगा? यह जानने से पहले राजनीतिक दलों की सोशल मीडिया रणनीति को समझना पड़ेगा.

भाजपा

चुनाव लड़ रही सभी पार्टियों में देखा जाए तो सोशल मीडिया खेल में सबसे ताकतवर पार्टी भाजपा को माना जाता है. भाजपा की हर राज्य के हर जिले में सोशल मीडिया इकाई है जो काफी सक्रिय है. हर बूथ पर भी आईटी टीम का गठन किया गया है. सभी टीमों की नियमित बैठकें होती हैं. इंडिया टुडे मैगजीन के अनुसार कुल 1918 मंडलों की जिम्मेदारी के लिए 11000 पदाधिकारी नियुक्त किए गए हैं.

सूचना और प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री राजीव चंद्रशेखर को भाजपा ने सभी पांचों चुनावी राज्यों में पार्टी के सोशल मीडिया अभियान को तैयार करने का काम सौंपा है.

हर विधानसभा क्षेत्र के लिए दो टीमें- आईटी और सोशल मीडिया बनाई गई हैं. 15,000 से अधिक व्हाट्सएप ग्रुप हैं. साथ ही कू एप, सिग्नल और टेलीग्राम पर भी सक्रियता को बढ़ाया गया है. सोशल मीडिया की रेस में आगे होने के कारण भाजपा के पास ढांचा तैयार था, बस उसका विस्तार बूथ स्तर तक किया गया है.

उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के शेखूपुर विधानसभा के भाजपा के विधानसभा संयोजक कमलजीत बोरानी न्यूज़लॉन्ड्री से कहते है, "हमने 2014 में ही सोशल मीडिया की ताकत को समझ लिया था. उसी साल हमने अपने ट्विटर और फेसबुक का इस्तेमाल कर के 165 सीटों पर बढ़त बनाई थी. हम तब से ही सोशल मीडिया पर अपनी योजनाओं का प्रचार-प्रसार करते आ रहे हैं."

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