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बात बोलेगी: जिन्हें कहीं नहीं जाना, उन्हें यहीं पहुंचना था…!

-जनपथ,

राजनीति कला है, विज्ञान है, धर्म है, सेवा है या वैभव और प्रतिष्ठा का एक अक्षय स्रोत? अलग-अलग विषय के विशेषज्ञ इसकी व्याख्या तमाम ऐतिहासिक संदर्भों में, इसके उद्भव, विकास आदि आदि के बारे में अलग-अलग नज़रिये से हमें समझाते रहे हैं कि राजनीति एक कला है या विज्ञान है या धर्म है या सेवा है। दरकार अब ऐसे विशेषज्ञों की है जो हमें यह समझाएं कि राजनीति इन सब से परे रुतबा, प्रतिष्ठा, पावर या हैसियत पाने का एक स्रोत है। यह व्याख्या हमारी मौजूदा राजनीति को समझने और समझाने के लिए सबसे मुफीद अनुशासन होगा।

विश्वविद्यालयों में इस अनुशासन को एक ‘सहकारिता संकाय’ (faculty of co-operation) की तरह विभिन्न अनुशासनों के बीच समन्वय की दृष्टि से पाठ्यक्रम में जोड़ा जाना चाहिए। इसके अलावा राजनीति के इस विशिष्ट पहलू को लेकर कुछ बड़ी शोध परियोजनाएं शुरू की जानी चाहिए ताकि आने वाली नस्लों को यह सहूलियत मिले कि तमाम संदर्भों से गुजरते हुए वे राजनीति को एक अनंत धारा या संश्लिष्‍ट विषय मानने के बजाय उसकी निष्पत्ति पर अपना चित्त एकाग्र कर सकें।

बहरहाल, आज की घनघोर रूप से मूल्यहीन हो चुकी राजनीति का सकल मूल्य विभिन्न मंत्रालयों में होने वाली ‘भर्तियों’ में तब्दील हो चुका है। राजनीति उनके लिए अभी भी मूल्यवान है जिनका मूल्य मंत्री बनने या बनाये जाने लायक है। यहां यह समझना ज़रूरी है कि जिनकी भर्ती मंत्री पदों पर हो रही हैं वे भी राजनीति के मूल्य नहीं बल्कि अपने तमाम सामाजिक, क्षेत्रीय और दलीय मूल्यों के कारण ही मूल्यवान हैं। मंत्रि‍मण्डल का विस्तार या गठन या पुनर्गठन कुछ ऐसे अवसर होते हैं जब व्यक्ति की काबिलियत से कहीं ज़्यादा मूल्यवान उसकी जाति, उसका क्षेत्र, उसका दल या अन्य कारण होते हैं।

आज हो रहे मंत्रिमण्डल विस्तार को कुछ-कुछ इसी नज़रिये से देखा जाना चाहिए, लेकिन इसके मूल में राजनीति के उस विशिष्ट अनुशासन को भी ज़रूर रखें जिसके बारे में पैराग्राफ नंबर दो में लिखा है।

क्‍या जाने सभा के कोने में बैठा एक प्राणिमात्र कब विशिष्‍टजन में शुमार हो जाय?

हिंदुस्तान की राजनीति और यहां का राजनैतिक वर्ग पूरी दुनिया से इसलिए भिन्न है क्‍योंकि यहां राजनीति में मुब्तिला लोगों की ज़िंदगी में किस्मत का बटन हमेशा लिपलिपाता रहता है। ठीक ओला कैब या इसी तरह की रेडियो टैक्सी में SOS बटन की मानिंद। यह कभी किसी अवसर पर दबता ज़रूर है। संभव है पूरी ज़िंदगी इस बटन को निहारते ही गुज़र जाये लेकिन कभी कोई क्षण ज़िंदगी में ऐसा आएगा जब अचानक 540 की सभा के कोने में बैठा कोई एक ‘प्राणि‍मात्र’ कुल जमा 81 विशिष्टजनों की संख्या में शुमार हो जाय। वह भी हक्का-बक्का रह जाय। इसीलिए अक्सर शपथ ग्रहण में लोग अकबकाये दिखते हैं। उन्हें खुद पर यकीन ही नहीं होता है कि वे कोने से कबीने तक कब और कैसे पहुंच गये।  

हिंदुस्तान की राजनीति से अगर एक मंत्री के जलवे को, उसको मिलने वाले प्रसाद को हटा दिया जाय तो यह अन्य परिपक्व लोकतंत्रों की आजमाइश करने वाले देशों की सफ़ में शुमार हो जाय। यहां जितना विशिष्टपन मंत्रियों को मिलता है वह राजनीति का परम लक्ष्य और प्रसाद जैसा है और सच पूछें तो राजनीति का कला, विज्ञान, सेवा, धर्म आदि का निष्कर्ष यहां आकार संपूर्णता को प्राप्त कर लेता है।

हिंदुस्तान की राजनीति का मूल भाव सेवा कदापि नहीं है और धर्म तो उसमें इतना ही है जितना राम मंदिर आंदोलन में राम हैं। अब रही बात कला की, तो वह आज के दौर के हिंदुस्तान में अपने चरम पर है, हालांकि यह कला भी ठीक नहीं है बल्कि कला का एक बेहद सतही और विकृत और निकृष्ट स्वरूप है और जिसमें सबसे मंजे हुए कलाकार का रुतबा खुद प्रधानमंत्री को नसीब है। अब रही बात विज्ञान की, तो? क्या इसकी वाकई कोई बात आज की राजनीति में है? शायद रत्ती भर भी नहीं।

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