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बेगूसराय के इस विकलांगों के गांव के लिए बिहार चुनाव में क्या है?

-न्यूजलॉन्ड्री,

उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए जब हम मुहीदा परवीन से मिलने पहुंचे तो वह अपनी चाची के घर पर महिलाओं के साथ बीड़ी बना रही थीं. 30 वर्षीय परवीन दोनों पैरों से विकलांग हैं. माथे पर दुप्पटा डाले और नजरों को बीड़ी की तरफ गड़ाए हुए परवीन कहती हैं, ‘‘कहीं बाहर जा नहीं सकती. एक ही जगह जिंदगी गुजर रही है. मुझे देखने वाला कोई भी नहीं है. इससे बड़ा दुःख क्या होगा.’’

मुहीदा के माता-पिता दोनों का निधन हो चुका है. चार साल पहले ही उनकी शादी हुई है. शादी के एक महीने बाद ही पति ने इन्हें छोड़ दिया. अब न तो वो साथ रखता है और ना ही तालाक दिया है. वह अपने भाई के घर में रहती हैं. भाई भी विकलांग ही है. उनकी भी आमदनी ठीक नहीं है जिसके कारण मुहीदा को अपने खर्च का इंतज़ाम खुद करना होता है. वह कहती हैं, ‘‘सरकार से हमें क्या मिलता है. महीने के चार सौ रुपए. आप बताओ चार सौ रुपए में किसका खर्च चलता है. हर चीज महंगी है. सरकार को हम लोगों पर ध्यान देना चाहिए. बीड़ी बनाती हूं तो थोड़ी बहुत आमदनी हो जाती है जिससे खा-पी लेती हूं. मैं विकलांग हूं, लेकिन मुझे शौचालय नहीं मिला. मैं चाची के शौचालय में जाती हूं. मेरा तो घर भी नहीं है. सरकार हम लोगों पर कभी ध्यान नहीं देती है.’’

ऐसा नहीं है कि मुहीदा बचपन से ही विकलांग थी. जन्म के चार-पांच साल तक ठीक से चल रही थीं, लेकिन पोलियो ने उन्हें विकलांग बना दिया. सिर्फ मुहीदा ही नहीं उनके जैसे सौ से ज़्यादा बच्चे एक ही समय काल में विकलांग हो गए और आज बदहाल ज़िंदगी जीने को मजबूर है.

गांव के लोग कहते हैं कि इस गांव में एक वक़्त में कई बच्चे और कुछ बुजुर्ग पोलियो के शिकार हो गए. परिजनों ने अपनी शक्ति के मुताबिक सबका इलाज कराया, लेकिन ज़्यादातर को कामयाबी नहीं मिली.

बिहार विकलांग अधिकार मंच के राज्य सचिव राकेश कुमार बताते हैं, ‘‘सरकारी आंकड़ों के हिसाब से बात करें तो साल 2011 जनगणना के मुताबिक बिहार में अलग-अलग अंग से विकलांग लोगों की आबादी 24 लाख है. हालांकि 2011 में हम लोगों के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में विकलांगों की संख्या लगभग 48 लाख थी. उस समय विकलांगों के सात प्रकार थे लेकिन साल 2016 में सरकार ने दिव्यांग अधिकार संशोधन अधिनियम नीति बनाई जिसमें विकलांगता के प्रकार सात से बढ़कर 21 हो गए. मेरा मानना है कि यदि अभी जनगणना हो तो लगभग डेढ़ करोड़ के आसपास बिहार में विकलांग होंगे.’’

बेगूसराय जिला मुख्यालय से तीन किलोमीटर दूर स्थित लरू-आरा मुस्लिम बाहुल्य गांव है. यहां के ज़्यादातर पुरुष मज़दूरी पर निर्भर हैं वहीं महिलाएं अपने घरों में ही बीड़ी बनाने का काम करती हैं. यहां बनी बीड़ी कटिहार, दरभंगा और मुज्जफरपुर आदि शहरों में भेजी जाती है. एक हज़ार बीड़ी बनाने के बदले इन्हें सिर्फ 80 रुपए मिलते हैं. कोई काम नहीं होने और गरीबी की वजह से महिला इस पेशे से जुड़ी हुई हैं.

गांव को जाने वाली सड़क अब भी बदहाल है. जैसे हम इस गांव में पहुंचे तो हमारी मुलाकात मोहम्मद साजिद अंसारी से हुई. साजिद भी दोनों पैर और एक हाथ से विकलांग हैं और ट्राईसाईकिल से चलते हैं. सरकारी अधिकारी विकलांगों की सुन नहीं रहे थे तो उन तक अपनी बात पहुंचाने के लिए स्थानीय विकलांगों को लेकर विकलांग विकास संघ का निर्माण किया. वे बताते हैं, ‘‘इस गांव में सौ से ज़्यादा लोग विकलांग हैं, लेकिन आप यहां की सड़कें देखिए. एक तो सबको ट्राईसाईकिल नहीं दी गई. वे जमीन पर घसीटकर चलते हैं. ऐसे उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते हुए हम लोगों के पैर से खून निकल जाता है. इस रास्ते से तो ट्राईसाईकिल भी चलाना मुश्किल है. हमारी तो कोई सुनता ही नहीं.’’

साजिद ही नहीं उनकी बहन रोजिदा खातून भी हाथों से और मानसिक तौर पर बीमार हैं. फिर भी सरकार की तरफ से इनके परिवार को शौचालय तक नहीं दिया गया जबकि बिहार खुले में शौच से मुक्त हो चुका है.अपने मिट्टी के घर के सामने खड़े साजिद बताते हैं, ‘‘शौच के लिए हमें यहां से एक से दो किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. बरसात में तो हमारे कपड़े तक खराब हो जाते हैं. लेकिन सरकार को दिख नहीं रहा है.’’

हमारी मुलाकात साजिद के पिता से हुई. न्यूज़लाउंड्री से बात करते हुए वे कहते हैं, ‘‘अब तक घर नहीं बना, शौचालय भी नहीं है. पूरा परिवार बाहर शौच करने जाता है. क्या करे. मेरे दो बच्चे विकलांग हैं. इनको लेकर हम परेशान रहते हैं. कहां-कहां इलाज कराने के लिए लेकर इन्हें नहीं गए. हम लोग मज़दूरी करते हैं. इतनी आमदनी नहीं होती कि इनका ठीक से इलाज करा सकें और घर भी बना सकें. सरकार मदद कर नहीं रही है.’’

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