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टूटी हुई खाद्य प्रणाली और किसानों के लिए फ्री मार्केट का औचित्य?

-गांव कनेक्शन, 

"1980 के दशक में किसान प्रत्येक डॉलर में से 37 सेंट घर ले जाते थे। वहीं आज उन्हें हर डॉलर पर 15 सेंट से कम मिलते हैं," यह बात ओपन मार्केट इंस्टीट्यूट के निदेशक ऑस्टिन फ्रेरिक ने कंजर्वेटिव अमेरिकन में लिखी है। उन्होंने इस तथ्य के जरिये इशारा किया कि पिछले कुछ दशक में किसानों की आमदनी घटने की प्रमुख वजह चुनिंदा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढ़ती आर्थिक ताकत है। फ्रेरिक ने खाद्य व्यवस्था की खामियों को दुरुस्त करने की जरूरत बताई। दिग्गज आर्थिक अखबार फाइनेंशियल टाइम्स ने पिछले हफ्ते एक अन्य आर्टिकल में लिखा था, 'क्या हमारी खाद्य व्यवस्था चरमरा गई है? गूगल पर 'ब्रोकेन फूड सिस्टम्स' सर्च करते ही सैकड़ों आर्टिकल, रिपोर्ट और स्टडीज आ जाती हैं। इनसे साफ संकेत मिलता है कि वैश्विक कृषि के ढांचे को नए सिरे से बनाने की सख्त जरूरत है जिसका मुख्य उद्देश्य कामकाज के टिकाऊ तरीके अपनाना और खेती-बाड़ी को आर्थिक तौर पर फायदेमंद बनाना हो।'

कृषि संकट सर्च करने पर टाइम मैगजीन का भी एक लेख सामने आता है। इसका शीर्षक 'विलुप्त होने की कगार पर छोटे अमेरिकी किसान' ही अपने आप में सारी कहानी कह देता है। आप जितना अधिक पढ़ते हैं, आपको अहसास होता जाता है कि किस तरह फ्री मार्केट और कहीं भी, किसी को भी बेचने की आजादी के नाम पर छोटे किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है। बाजार के उदारीकरण के पांच साल बाद भी बड़े खुदरा विक्रेताओं के लिए कोई स्टॉक लिमिट नहीं है यानी वे जितना मर्जी जमाखोरी कर सकते हैं। इसके अलावा रोपाई के समय कमोडिटी फ्यूचर्स मार्केट्स से फसल के भाव का संकेत मिल जाता है। नेब्रास्का के पूर्व सीनेटर और पशुपालक अल डेविस बताते हैं, "खेती और मवेशी पालने के कामकाज से जुड़ा एक बड़ा तबका विलुप्त होने की कगार पर है। अगर हम ग्रामीण जीवन शैली गंवाते हैं तो हम असल में एक ऐसा बड़ा हिस्सा खो देंगे जिसने इस देश को महान बनाया है।" इससे सवाल पैदा होता है कि क्या भारत में कृषि बाजारों के योजनाबद्ध उदारीकरण पर कुछ ज्यादा ही उत्साह का प्रदर्शन नहीं किया जा रहा है? अगर कृषि उत्पादों का भाव तय करने का जिम्मा बाजार पर छोड़ना जीत का फॉर्मूला है तो फिर यह समझाने का वक्त गुजर चुका है कि अमेरिकी और यूरोपीय कृषि संकट में क्यों है? उरुग्वे दौर की वार्ता और 1995 में विश्व व्यापार संगठन (WTO) बनने के बाद से ही विकसित देशों द्वारा दी जा रही भारी सब्सिडी विवादास्पद मसला बनी हुई है।

पूर्व वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने कई WTO मंत्रिस्तरीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। वह अक्सर कहते थे, "अगर आप उम्मीद करते हैं कि भारतीय किसान अमेरिकी खजाने से मुकाबला कर पाएंगे तो यह गलत है।" कमलनाथ का इशारा अमेरिका में बड़े पैमाने पर दी जाने वाली सब्सिडी की ओर रहता था। बाद में वाणिज्य मंत्री के रूप में अरुण जेटली ने भी कानकुन मिनिस्ट्रियल के समय इसी तरह की राय जाहिर की थी। यहां तक कि अभी भी विकासशील देश सब्सिडी पर गरमागरम बहस की बात कह रहे हैं। अगर कृषि बाजार कुशल हैं तो वे अमेरिका/यूरोपीय संघ में खेती को बढ़ावा देने में नाकाम कैसे रहें? अमेरिकी कृषि विभाग ने स्वीकार किया है कि 1960 के बाद से खेत से असल आमदनी में गिरावट आ रही है। बावजूद इसके के अमेरिकी सरकार साल दर साल भारी सब्सिडी दे रही है। इसकी वजह बड़ी सरल है। अमेरिकी सरकार की सब्सिडी का 80 प्रतिशत कृषि-व्यवसाय कंपनियों के खाते में जाता है और बाकी 20 प्रतिशत का लाभ बड़े किसान उठाते हैं। 2007 में UNCTAD-India के एक अध्ययन से पता चला था कि अगर विकसित देशों में ग्रीन बॉक्स सब्सिडी (घरेलू कृषि को सहयोग) वापस ले ली जाती है तो अमेरिका, यूरोपीय संघ और कनाडा से कृषि निर्यात में लगभग 40 प्रतिशत तक की गिरावट आ जाएगी। WTO का गठन होने के 25 वर्ष बाद भी ऑर्गनाइजेशन फॉर इकनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) देश अपने कृषि क्षेत्र को भारी सब्सिडी दे रहे हैं। यह 2018 में 246 अरब डॉलर तक पहुंच गया था। इनमें से EU-28 देश अपने किसानों को सालाना 110 अरब डॉलर की मदद देते हैं। इसका करीब 50 प्रतिशत डायरेक्ट इनकम सपोर्ट के तौर पर उत्पादकों को मिलता है। कोरोना काल के बाद सब्सिडी में और इजाफा होने का अनुमान है।

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