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सिर्फ बीमारी देखेंगे या स्वास्थ्य सेवाओं को भी वेंटिलेटर से हटायेंगे ?

-मीडियाविजिल,

इन दिनों पलाश, कचनार और कदम्ब के पेड़ों पर अजीब सी खुमारी छाई हुई हैं. कुदरत ने अपना रंग भरकर उनको नायाब बना दिया है. भौंरे तो मानो उनका सारा रस पी लेना चाहते हैं. दूसरी तरफ कोरोना वायरस के संकट ने पूरे इंसानी जगत को हिलाकर रख दिया है. इस वायरस पर न तो धरती के युद्ध टैंक काम आ रहे हैं और न ही चंद्रमा की जानकारी. ऊंचे-ऊंचे भवनों और सुरक्षा अधिकारियों से भी ये वायरस ख़ौफ़ नहीं खाता.

ये सम्भव है कि जल्द ही इस वायरस का निचोड़ मिल जाये और अन्य महामारियों की तरह मानव जाति इस महामारी पर भी अपने साहस, आत्मविश्वास और लगन से जीत दर्ज करे. लेकिन समय के इस दौर में जिन सवालों को लेकर बहस होनी चाहिए वो कहीं नजर नहीं आती.

बहस का मुद्दा केवल कोरोना वायरस बन गया है. उससे होने वाली बीमारी तक ये बहस सिमटकर रह गई है. कुछ लोग डॉक्टर्स की कमी का हवाला दे रहें हैं. कुछ पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट, मास्क, वेंटिलेटर और अस्पताल में बेड की कमी की बात कर रहे हैं. समाधान के तौर पर हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने की बात हो रही है. स्वास्थ्य क्षेत्र के बजट पर भी एक-दो बार सवाल उठे हैं.

अस्पताल में बेडों की संख्या और वेंटिलेटर बढ़ा देने से, डॉक्टर्स को मास्क व जरूरी चीजें उपलब्ध करवा देने से इस बीमारी का इलाज करने में तो सहायता मिल सकती है किन्तु जो स्वास्थ्य क्षेत्र वेंटिलेटर पर पड़ा है उसका इलाज कौन करेगा?

मीडिया से जो उम्मीद थी. उसने वो ही काम किया. पहले डर का बाज़ार बनाया. झूठी सूचनाएं फैलाई और जब इससे भी काम नहीं चला तो उसे साम्प्रदायिक रंग से भर दिया. सारी बहस को हिन्दू बनाम मुस्लिम में समेट दिया. रात-दिन इंश्योरेंस और पब्लिक प्राइवेट पारटर्नरशिप की रट लगाने वाले दावों की हवा निकल गई.

जो मुद्दे इस बहस से गायब हैं

भारत में जब-जब स्वास्थ्य क्षेत्र की बात की जाती है तो वो न केवल अधूरी रहती है बल्कि अधिकांश मामलों में खोखली रहती है. भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता और उन तक पहुंच एक गंभीर सवाल खड़ा करती है. स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता का मतलब है कि लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं लेने हेतु कितना दूर जाना है. दूसरे शहर या अन्य राज्य में? और क्या वे सेवाएं उसकी आर्थिक पहुंच में हैं भी? स्वास्थ्य क्षेत्र का अगला मुख्य मुद्दा है स्वास्थ्य सेवाओं में गुणवत्ता और उन सेवाओं से रोगी के ठीक होने का भरोसा. कम से कम ये सेवाएं इतना यकीन तो दे सकें कि इससे हम ठीक हो जाएंगे. अंतिम मुद्दा है समता का है. स्वास्थ्य सेवाओं में अमीर-गरीब के अंतर का न हो.

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