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भारत बीते 50 सालों की सबसे भयावह मानवीय त्रासदी के दौर में प्रवेश कर चुका है

-द वायर,

भारत का गरीब और मजदूर वर्ग अब अख़बार के भीतरी पन्नों और टीवी स्क्रीन से गायब हो गया है.

ऐसा दिखाने की कोशिश हो रही है कि जब देश में सारी व्यवस्थाएं धीरे-धीरे खुलने लगी हैं और अधिकतर प्रवासी मजदूर अपने गांव लौट गए हैं, तब भूख और रोजी-रोटी की समस्या खत्म हो गई है. जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है.

सच तो सिर्फ इतना है कि अचानक से थोपे गए लॉकडाउन ने पहले से ही मंदी में चल रही हमारी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है और यह लंबे समय तक नुकसान पहुंचाता रहेगा.

हालांकि गरीबों की पीड़ा पर न किसी सरकार का ध्यान गया और न ही समाज के मध्यम और अमीर वर्ग का.

भूख का गहराता संकट
यमुना किनारे दिल्ली के सबसे बड़े श्मशान घाट के पास यमुना पुश्ता नाम की एक बसावट है. यहां 4,000 बेघर पुरुष रहते हैं.

सामान्य दिनों में ये लोग मजदूरी करके अपना काम चलाते हैं, कोई शादी-ब्याह में रोड लाइट ढोने, तो कोई निर्माण कार्य में मजदूरी का काम करता है.

उनका काम हमेशा अस्थिर रहा है और पैसे भी उचित ढंग से नहीं मिलते. पहले इनका पेट गुरुद्वारे, मंदिर या दरगाह से गरीबों को खिलाए जाने वाले भोजन से भरता था.

हाल ही में उनसे मुलाकात के दौरान मैंने पाया कि उनकी पीड़ा और हताशा हमारी सरकार की चेतना में ही नहीं है. उनका काम अभी भी ठप है और मंदिर-गुरुद्वारे ने अभी भी अपने मुफ्त भोजन को व्यवस्थित तरीके से शुरू नहीं किया है.

दिल्ली सरकार ने पका हुआ भोजन बांटने के अपने अधिकतर कार्यक्रम बंद कर दिए हैं. सबसे कठिन दिनों में दिल्ली के 1,000 केंद्रों पर करीब 10 लाख लोगों को भोजन कराया गया.

मैं उस समय गरीबों को अपमानजनक तरीके से घंटों तक लाइन में खड़ा कराकर एक मुट्ठी भात देने की व्यवस्था की आलोचना कर रहा था.

तमाम आलोचनाओं के बावजूद भी सरकार की तरफ से मिल रहे भोजन ने एक हद तक गरीबों की मदद की. लेकिन आज जब सरकार ने ये सारे भोजन केंद्र बंद कर दिए हैं, गरीबों के पास मुंह ताकने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है.

कभी-कभार मिलने वाले निजी दान पर ही उनकी आंखें टिकी रहती हैं.

दूसरे शहरों में बेघर लोगों के बीच काम करने वाले मेरे साथी, भोजन का अधिकार अभियान में सहयोगी रहे लोग और कारवां-ए-मोहब्बत की तरफ से भोजन बांटने वाले वॉलिंटियर्स, सभी का कहना है कि पूरे देश में गरीबों की एक चिंताजनक तस्वीर उभरकर सामने आई है.

गांव में रहने वाले अपने परिवार का खर्च अभी तक प्रवासी मजदूर उठा रहे थे लेकिन आज जब प्रवासियों को खुद गांव लौटना पड़ा है, परिवार के ऊपर भोजन के इंतजाम का दबाव बढ़ गया है.

दिहाड़ी मजदूर, बुनकर, घरों में काम करने वाले लोग, रिक्शा चालक और रेहड़ी-पटरी वालों का जीवन पहले भी खुशहाल नहीं था, लेकिन अब वे भूख के संकट का बहुत गहराई के साथ सामना कर रहे हैं.

भूख की इस चपेट में अब कई नए वर्ग के लोग भी जुड़ गए हैं. छोटे उद्योगों से नौकरी गंवाने वाले लोग, रेस्तरां में काम करने वाले, घरेलू कामगार, सेक्स वर्कर्स और यहां तक कि प्राइवेट स्कूल के शिक्षक और ट्यूशन पढ़ाने वाले लोग भी भूख के संकट का सामना करने लगे हैं.

ये सभी लोग भुखमरी की स्थिति से दूर रहने के लिए उन तरीकों को ईजाद कर रहे हैं, जिसका इस्तेमाल हाशिए पर खड़े लोग सदियों से करते आ रहे हैं.

भोजन के प्लेट से महंगे व्यंजन जैसे कि दाल, दूध, सब्जियां, फल, अंडे और मांस कम होने लगे हैं. कई परिवारों ने बताया है कि वे सिर्फ चावल, रोटी और नमक खाकर अपना गुजारा कर रहे हैं.

भोजन की मात्रा और एक दिन में किए जाने वाले भोजन की संख्या में कमी हो रही है. मजबूरन कई लोगों को रात में भूखे पेट सोना पड़ रहा है.

जिन बच्चों को स्कूलों या आंगनबाड़ी केंद्रों पर मिलने वाले मध्याह्न भोजन से एक वक्त का भोजन नसीब होता था, आज उन्हें काम के लिए निकलना पड़ रहा है. बच्चे कूड़ों के बीच फेंका हुआ बासी खाना या बेचने का कोई सामान ढूंढ रहे हैं.

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