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किस हाल में हैं असम के डिटेंशन कैंपों में बंद संदिग्ध नागरिक?

-सत्यहिंदी,

पिछले साल असम के डिटेंशन कैंप उस समय चर्चा में आए थे जब 23 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया था कि भारत में कोई डिटेंशन सेंटर नहीं है। उन्होंने इसे अफ़वाह बताया था।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, ‘सिर्फ कांग्रेस और अर्बन नक्सलियों द्वारा उड़ाई गई डिटेन्शन सेन्टर वाली अफ़वाहें सरासर झूठ है, बद-इरादे वाली है, देश को तबाह करने के नापाक इरादों से भरी पड़ी है - ये झूठ है, झूठ है, झूठ है।’

क्या कहा था मोदी ने?
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, ‘सिर्फ कांग्रेस और अर्बन नक्सलियों द्वारा उड़ाई गई डिटेन्शन सेन्टर वाली अफ़वाहें सरासर झूठ है, बद-इरादे वाली है, देश को तबाह करने के नापाक इरादों से भरी पड़ी है - ये झूठ है, झूठ है, झूठ है।’

उन्होंने कहा, ‘जो हिंदुस्तान की मिट्टी के मुसलमान हैं, जिनके पुरखे माँ भारती की संतान हैं। भाइयों और बहनों, उनसे नागरिकता क़ानून और एनआरसी दोनों का कोई लेना देना नहीं है।' मोदी ने कहा था, 

'देश के मुसलमानों को ना डिटेंशन सेन्टर में भेजा जा रहा है, ना हिंदुस्तान में कोई डिटेंशन सेन्टर है। भाइयों और बहनों, यह सफेद झूठ है, यह बद-इरादे वाला खेल है, यह नापाक खेल है। मैं तो हैरान हूँ कि ये झूठ बोलने के लिए किस हद तक जा सकते हैं।’

डिटेंशन कैंप की योजना चालू है
प्रधानमंत्री के झूठे दावे का खंडन करने के लिए उस समय असम में मौजूद डिटेंशन कैंपों की चर्चा देशी-विदेशी मीडिया में होने लगी थी। गृह मंत्री अमित शाह ने जब पूरे देश में एनआरसी प्रक्रिया लागू करने की बात कही थी, तब आशंका व्यक्त की गई थी कि असम की तरह ही देश भर में डिटेंशन कैंप बनाकर और मुसलमानों को विदेशी बताकर क़ैद करने की योजना पर हिन्दुत्ववादी सरकार काम कर रही थी।  

 फिर देशव्यापी सीएए-विरोधी आंदोलन की तीव्रता के चलते एनआरसी को लेकर शाह पीछे हटते नज़र आए। लेकिन इस बात का कोई संकेत नहीं मिला है कि सरकार ने अपनी योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। कोरोना के प्रकोप के चलते इसमें विलंब हुआ है, लेकिन इसे छोड़ा नहीं गया है।

सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप
16 मार्च 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए क़ानूनी प्रक्रिया शुरू की और डिटेंशन कैंपों में भीड़भाड़ पर विचार करने के लिए और कोविड -19 के प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए सामाजिक दूरी के महत्व को रेखांकित किया। इन निर्देशों के बाद महामारी के दौरान डिटेंशन को चुनौती देने के लिए दो याचिकाएं दायर की गई।

‘जस्टिस एंड लिबर्टी इनिशिएटिव’ ने पहली याचिका दायर की, जिसमें आरोप लगाया गया कि बंदियों को केवल सिविल क़ैदियों के रूप में रखा जाता है और इसलिए उन्हें सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 59 (3) का लाभ मिलना चाहिए। संहिता की सिफ़ारिश है कि किसी भी संक्रामक बीमारी से बचाव के लिए क़ैदियों को  जेलों से रिहाई दी जानी चाहिए। 

क्या है याचिका में?
इसके अलावा याचिका में 2019 के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का हवाला दिया गया जिसके तहत 'घोषित विदेशियों' के लिए 3 वर्ष या उससे अधिक समय के लिए हिरासत में रहने वाले क़ैदियों की रिहाई की अनुमति दी गई है। यह निम्नलिखित शर्तों के तहत दी जाएगी: 1 लाख रुपये के दो जमानती, ठहरने का एक सत्यापित पता, उनकी पुतलियों का बायोमेट्रिक डेटा और फ़िंगरप्रिंट, और विदेशी ट्रिब्यूनल द्वारा निर्दिष्ट पुलिस स्टेशन पर साप्ताहिक रिपोर्ट करने के लिए प्रतिबद्धता।

दूसरी याचिका एक बंदी राजू बाला दास द्वारा दायर की गई, जिन्हें दो साल से  हिरासत में रखा गया था। दास ने डिटेंशन कैंप में अपनी सुरक्षा के लिए आशंका व्यक्त की। याचिका में कहा गया कि कैंप में अस्वच्छ परिवेश और भीड़ की स्थिति है, जो कोविड -19 फैलने के जोखिम को बढ़ाती है। याचिका में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया कि यात्रा प्रतिबंधों के कारण प्रत्यर्पण की कोई उचित संभावना नहीं थी, और इसलिए नज़रबंदी को उचित नहीं ठहराया गया।

सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला
अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने घोषणा की कि बंदी सशर्त रिहाई के लिए पात्र होंगे और पात्रता के लिए शर्तों में ढील दी गई। बंदियों को सशर्त रिहाई के लिए पात्र होने के लिए पहले निर्दिष्ट तीन वर्षों के बजाय, दो साल की क़ैद को पर्याप्त माना गया। दूसरे, बंदियों को अब 1 लाख के बजाय 5,000 रुपये की दो ज़मानत देने की ज़रूरत है। इस तरह 376 कैदियों की रिहाई अब तक संभव हो पाई है।

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