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कोरोना के इस वैश्विक संकट के समय आज गांधी होते, तो क्या करते?

-लल्लनटॉप,

आज का वैश्विक संकट तिहरा है. कोविड महामारी, गहन व्यापक आर्थिक मंदी और मानव अस्तित्व को खतरे में डालने वाला पर्यावरण परिवर्तन. इन सबके अलावा, ऐसी परिस्थिति में राह दिखाने वाले राजनीतिक और नैतिक नेतृत्व का दुनियाभर में अभाव है. इसलिए उत्तर तो कहीं और ही ढूंढ़ना पड़ेगा! महात्मा गांधी के सामने यह चुनौती खड़ी होती, तो उन्होंने क्या किया होता? इसका जवाब कहां खोजा जाए? यह तो वे खुद कह ही गए हैं–‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है.’ अत: गांधीजी का उत्तर उनके जीवन में खोजना पड़ेगा.

उनके उत्तर में कुछ विशेषताएं तो समान होंगी. पहली तो यह कि दूसरों को उपदेश करने की बजाय सबसे पहले वे स्वयं उसका आचरण करते. तभी तो आत्मश्लाघा प्रतीत हो ऐसा वाक्य– “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है” वे बोल पाए. हम बोल सकते हैं क्या? बोलकर तो देखिए. ज़बान लड़खड़ाएगी. दूसरे, वे कोई भी कार्य सबसे पहले स्थानीय स्तर पर ही करते. दुनिया बदलने के लिए दुनिया के पीछे नहीं भागते. मिट्टी के एक कण में पृथ्वी देख सकने वाली दृष्टि थी उनके पास. मैं जहां हूं वही मेरा ‘स्व-देश’ है. मेरा कार्य यही आरंभ होगा, क्योंकि मैं सिर्फ यहीं कार्य कर सकता हूं. तीसरे, आरंभ में उनका कार्य मामूली या बचकाना लग सकता है, जैसे मुट्ठीभर नमक उठाना या सूत कातना. लेकिन ज़रा रुकिए; इससे इतिहास बदल जाएगा.

‘आज आप क्या करते?’ ऐसा प्रश्न गांधीजी के समक्ष रखने का ‘विचार प्रयोग’ मैंने कर देखा और मुझे जो नौ सूत्री कार्यक्रम मिला, वह ऐसा है:

1. भयमुक्ति

आज विषाणु की अपेक्षा विषाणु का भय अधिक पैमाने पर फैला हुआ है. गांधी सबसे पहले हमसे कहते –‘निर्भय होओ’! एक तो डर मनुष्य को शक्तिहीन बनानेवाला घातक भाव है. दूसरे, विषाणु की वजह से होने वाली मृत्यु की आशंका हमारी आबादी में बेहद कम है. इसका हौआ खड़ा करने की ज़रूरत नहीं. उनका आख़िरी तर्क होता–मृत्यु का कैसा भय? किसे? शरीर मरा भी, तो आत्मा अमर है. तुम शरीर नहीं, आत्मा हो. तुम थोड़े ही मरोगे? भय काल्पनिक असत्य होने के कारण अपने आप पिघलकर लुप्त होने लगेगा.

2. रुग्णसेवा

रोगियों की सेवा, गांधीजी की सहजप्रवृत्ति थी. बोअर युद्ध, प्रथम विश्वयुद्ध, भारत में महामारियों के दौरान, कुष्ठरोग के शिकार विकलांग परचुरे शास्त्री को अपनी कुटिया के करीब रखकर स्वयं उनकी सुश्रूषा, इसी के उदाहरण हैं. कोरोनाग्रस्त रोगियों की देखभाल वे स्वयं करते, यह करते हुए स्वच्छता रखना, हाथ धोना, मुंह पर मास्क जैसे सभी वैज्ञानिक निर्देशों का सटीक पालन करते हुए वे रोगियों की प्रत्यक्ष सेवा करते.

स्वतंत्र होने ही वाले भारत के लिए उचित चिकित्सा पद्धति तथा स्वास्थ्य व्यवस्था की खोज में गांधीजी पुणे के करीब उरळी कांचन गांव में रहते हुए 1946 में प्रयोग करने लगे. डॉक्टर और दवाइयों के खर्च पर निर्भर रहने की अपेक्षा लोगों के लिए आत्मनिर्भर एवं स्वास्थ्य-स्वातंत्र्य प्रदान करने वाली सस्ती और सहज पद्धति की तलाश में थे वे. आज भी वे वैसी ही पद्धति का प्रयोग करते. शरीर की रोग प्रतिरोधक नैसर्गिक क्षमता पर गांधीजी भरोसा रखते थे. उसे वे प्राकृतिक चिकित्सा कहते थे. वे कह रहे होते –‘प्रकृति को अवकाश दो.’

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