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कोविड ने महिलाओं को दशकों पीछे धकेला, उनको मदद दिए बिना भारत ‘आत्मनिर्भर’ नहीं बन सकता

-द प्रिंट,

भारत में कोरोनावायरस संकट के कारण लागू किए गए लॉकडाउन ने महिलाओं को दशकों पीछे धकेल दिया है. इनमें से ज्यादातर का जीवन कुछ वैसा ही हो गया है जैसा कभी उनकी दादी-नानी का था. वो दिन का ज्यादातर हिस्सा खाना-पकाने, साफ-सफाई करने और घर-परिवार को संभालने में बिता रही हैं. और जो घर से काम कर रही हैं, अगर उनके पास अब भी नौकरी बची है तो, वो ‘डबल-डबल शिफ्ट‘ कर रही हैं. महिलाओं पर न केवल लॉकडाउन की मार अप्रत्याशित तौर पर पुरुषों के मुकाबले ज्यादा पड़ी है, बल्कि उन्हें कोविड-19 स्वास्थ्य संकट और उसके कारण आई आर्थिक मंदी की चोट सहनी पड़ रही है.

उस पर भी आलम यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार की तरफ से उठाए गए राहत और बचाव वाले कदमों में महिलाओं की समस्याओं की एकदम अनदेखी कर दी गई है. हालांकि, ऐसे समय में लैंगिक असमानता बढ़ने देना देश की आर्थिक स्थिति सुधारने और आत्मनिर्भर बनाने की कोशिशों पर भारी पड़ेगा.

हर मोर्चे पर मुसीबत
शहरों में लॉकडाउन के दौरान स्कूल और डे केयर सेंटर बंद होने और घरेलू कामकाज करने वालों के छुट्टी पर चले जाने के साथ ही महिलाओं पर पूरे परिवार की देखभाल और कामकाज की जिम्मेदारी खासी बढ़ गई है, जो पहले से ही बिना किसी वेतन तमाम जिम्मेदारियों का बोझ संभाले हुए हैं. हालांकि पुरुष भी इसमें सहयोग कर रहे हैं और वैतनिक और अवैतनिक कार्य की चुनौतियों के बीच संतुलन साधने को लेकर उनकी सराहना भी कर रहे हैं लेकिन फिर भी काम का ज्यादा बोझ महिलाओं को ही वहन करना पड़ा रहा है. इससे इतर वह जरूरी यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी का खामियाजा भुगतने के साथ-साथ घरेलू हिंसा में वृद्धि जैसी ‘परोक्ष महामारी‘ को भी झेल रही हैं.

तथाकथित अनलॉक के बावजूद निकट भविष्य में महिलाओं के लिए स्थितियां सुधरने की कोई गुंजाइश नज़र नहीं आ रही है. देखभालकर्ता के तौर पर महिलाओं को स्कूल और डे-केयर खुलने तक तो अपनी घरेलू जिम्मेदारियों को निभाना ही होगा, जिसमें कोविड-19 वैक्सीन के विकास तक लंबा समय लग सकता है. इसके अलावा महिलाओं पर बुजुर्गों की देखभाल की जिम्मेदारी भी बढ़ रही है क्योंकि अस्पताल और नर्सिंग सहायता उपलब्ध नहीं हो पा रही है. आने वाले महीनों में ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को नौकरी छोड़ने के लिए बाध्य किया जा सकता है. यह खासकर उन मामलों में तो होगा ही जिसमें दूरस्थ व्यवस्था से काम करना संभव न हो, लेकिन जो परिवार-बच्चों के बीच रहकर भी घर से काम संभालने में सक्षम होंगी उन्हें भी कैरियर में ब्रेक लेने को मजबूर किया जा सकता है.

यह सब आर्थिक मंदी के संभावित असर को और बढ़ाएगा ही, जिसे दुनिया के कुछ हिस्सों में महिलाओं से जोड़कर सी-सेसन की संज्ञा दी जा रही है. शुरुआती आकलन, आईएएनएस-सी वोटर इकोनॉमिक बैटरी वेब सर्वे और अशोका यूनिवर्सिटी की रिसर्च ने ही यह साफ कर दिया था कि भारत में आर्थिक मंदी महिलाओं के कैरियर को सबसे ज्यादा क्षति पहुंचाने वाली है. महिलाओं के दबदबे वाले, रिटेल, हॉस्पिटैलिटी, पर्सनल केयर और डे केयर जैसे कामकाज सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं और इनके जल्द उबरने की कोई उम्मीद भी नहीं है.

साथ ही महिला उद्यमियों द्वारा संचालित उद्योगों पर नकारात्मक असर पड़ा है और इनमें कई को अपना कामकाज समेटना पड़ा है. भारत में सिर्फ आठ फीसदी महिला संचालित उद्योग पंजीकृत हैं और केवल 20 फीसदी ही प्रतिमाह पांच हजार रुपये से ज्यादा कमा पा रहे हैं. ऐसे में इसकी कोई गुंजाइश नज़र नहीं आती कि इनमें से ज्यादतर को मोदी सरकार के आर्थिक राहत पैकेज के तहत सूक्ष्य, लघु और मध्यम उद्योग (एमएसएमई) के लिए घोषित गारंटी मुक्त ऋण सुविधा का कोई लाभ मिल पाएगा.

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